जब याद तुम्हारी आएगी...

इंतज़ार...किसी से मिलने की तड़प, जुदाई का दर्द, यादों की महक...कितना कुछ बसा है, इस एक लफ्ज़ में...इंतज़ार...जो मीठा भी है...और तल्ख़ भी...जिसके इंतज़ार में निगाहें राह में बिछी हों...और वो आ जाए तो इंतज़ार अहसास खुशनुमा हो जाता है...लेकिन जब वो न आए तो यही इंतज़ार उम्रभर का दर्द बन जाता है...इंतज़ार का एक-एक पल सदियों के बार (बोझ) की तरह महसूस होता है...हमने इंतज़ार के इन्हीं लम्हों को गीत में पिरोकर संजोया है...

जब याद तुम्हारी आएगी
फिर मुझको ख़ूब रुलाएगी
ग़मगीन लगेगी बादे-सबा
वीरानी-सी छा जाएगी

फिर अपने घर बुलवाने को
पैगाम तुम्हें मैं भेजूंगी
उन बेचैनी के लम्हों में
कैसे आस सहेजूंगी
फिर गमे-हिज्र के आलम में
हर पल मुश्किल से बीतेगा
लाखों कोशिश करने पर भी
यादों का सावन जीतेगा
राहों में ये पलकें बिछाके
चौखट पे जां टिक जाएगी
जब याद तुम्हारी आएगी
फिर मुझको ख़ूब रुलाएगी

नज़रों से ओझल होने पर
दर्शन किस विधि मैं पाऊंगी
उस रंजो-अलम की बेला में
दिल को कैसे समझाऊंगी
मेहंदी की डाल पे चिड़ियाँ
जब गीत ख़ुशी के गाएंगी
उन कसमो-वादों की बातें
रह-रहके मुझे सताएंगी

फिर नील गगन की चादर पे
संध्या की लाली छाएगी
जब याद तुम्हारी आएगी
फिर मुझको ख़ूब रुलाएगी
-फ़िरदौस ख़ान
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...

इबादत...सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने या रोज़े रखने का ही नाम नहीं है...बल्कि इबादत का दायरा इससे भी कहीं ज़्यादा वसीह (फैला) है...किसी की आंख के आंसू अपने दामन में समेट लेना...किसी उदास चेहरे पर मुस्कराहट बनकर बिखर जाना...भी इबादत का ही एक हिस्सा है...




बक़ौल निदा फ़ाज़ली :
घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

किसी को देखते रहना नमाज़ है तेरी...


रमज़ान का मुबारक महीना आ चुका है...दिन रोज़े में और रात ज़िक्रे-इलाही में गुज़र रही है...यानि फ़िज़ां इबादत की खुशबू से महक रही है... इन दिनों मेल और एसएमएस भी ऐसे ही मिल रहे हैं..
मसलन...
मुबारक हो आपको एक महीना रहमत का
चार हफ़्ते बरकत के
30 दिन मग़फ़िरत के
720 घंटे पाकीज़गी के
43200 मिनट हिदायत के
2592000 सेकेंड नूर के...

दूसरा संदेश
इबादत के बदले फ़िरदौस (स्वर्ग) मिले
यह मुझे मंज़ूर नहीं
बेलोस इबादत करता हूं
मैं कोई मज़दूर नहीं...

बेशक ख़ुदा की इबादत से बढ़कर कुछ नहीं...और आशिक़ (बंदा) अपने महबूब (ख़ुदा) से इबादत का सिला नहीं चाहता...यही तो है बन्दगी, इबादत और मुहब्बत है, जिसमें पाने की नहीं, फ़क़्त ख़ुद को फ़ना करने की हसरत होती है, ...अपने महबूब के लिए...

शायरों ने मोहब्बत को इबादत से जुदा नहीं माना है...
बक़ौल अल्लामा मुहम्मद इक़बाल साहब-
अज़ान अज़ल से तेरे इश्क़ का तराना बनी
नमाज़ उसके नज़ारे का इक बहाना बनी
अदा-ए-दीदे-सरापा नयाज़ है तेरी
किसी को देखते रहना नमाज़ है तेरी......
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS