नीले और सुनहरे रंग का स्वेटर...

फ़िरदौस ख़ान
जाड़ो का मौसम शुरू हो चुका था. हम उनके लिए स्वेटर बुनना चाहते थे. बाज़ार गए और नीले और सुनहरे रंग की ऊन ख़रीदी. सलाइयां तो घर में रहती ही थीं. पतली सलाइयां, मोटी सलाइयां और दरमियानी सिलाइयां. अम्मी हमारे और बहन-भाइयों के लिए स्वेटर बुना करती थीं. इसलिए घर में तरह-तरह की सलाइयां थीं. 
हम ऊन तो ले आए, लेकिन अब सवाल ये था कि स्वेटर में डिज़ाइन कौन-सा बुना जाए. कई डिज़ाइन देखे. आसपास जितनी भी हमसाई स्वेटर बुन रही थीं, सबके डिज़ाइन खंगाल डाले. आख़िर में एक डिज़ाइन पसंद आया. उसमें नाज़ुक सी बेल थी. डिज़ाइन को अच्छे से समझ लिया और फिर शुरू हुआ स्वेटर बुनने का काम. रात में देर तक जागकर स्वेटर बुनते. चन्द रोज़ में स्वेटर बुनकर तैयार हो गया. 
हमने उन्हें स्वेटर भिजवा दिया. हम सोचते थे कि पता नहीं, वह हाथ का बुना स्वेटर पहनेंगे भी या नहीं. उनके पास एक से बढ़कर एक क़ीमती स्वेटर हैं, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से देशों से ख़रीदे होंगे. काफ़ी दिन बीत गए, एक दिन हमने उन्हें वही स्वेटर पहने देखा. उस वक़्त हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. हमने कहा कि तुमने इसे पहन लिया. उन्होंने एक शोख़ मुस्कराहट के साथ कहा- कैसे न पहनता. इसमें मुहब्बत जो बसी है.
इस एक पल में हमने जो ख़ुशी महसूस की, उसे अल्फ़ाज़ में बयां नहीं किया जा सकता. कुछ अहसास ऐसे हुआ करते हैं, जिन्हें सिर्फ़ आंखें ही बयां कर सकती हैं, उन्हें सिर्फ़ महसूस किया जाता है, उन्हें लिखा नहीं जाता. शायद लिखने से ये अहसास पराये हो जाते हैं.
हम अकसर ख़ामोश रहते हैं, वह भी बहुत कम बोलते हैं. उन्हे बोलने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती, क्योंकि उनकी आंखें वह सब कह देती हैं, जिसे हम सुनना चाहते हैं. वह भी हमारे बिना कुछ कहे, ये समझ लेते हैं कि हम उनसे क्या कहना चाहते हैं. रूह के रिश्ते ऐसे ही हुआ करते हैं. 
उनकी दादी भी उनके लिए स्वेटर बुना करती थीं.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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ये इक़रार है मुहब्बत का


दिल चाहता है कि महबूब को अपना बना लें. ये इक़रार है मुहब्बत का यानी कलमा. 
दिल चाहता है कि महबूब से ख़ूब बातें करें. ये गुफ़्तगू है मुहब्बत की यानी नमाज़. 
दिल चाहता है कि महबूब की बातें सुनें. ये चाहत है मुहब्बत की यानी क़ुरआन की तिलावत.  
दिल चाहता है कि महबूब की याद में खाना-पीना छोड़ दें. ये शिद्दत है मुहब्बत की यानी रोज़ा.
दिल चाहता है कि महबूब के लिए माल ख़र्च करें. ये कैफ़ियत है मुहब्बत की यानी ज़कात-ख़ैरात .
दिल चाहता है कि महबूब के घर के चक्कर लगाएं. ये दीवानगी है मुहब्बत की यानी हज.
दिल चाहता है कि महबूब पर जान निसार कर दें. ये इन्तेहा है मुहब्बत की यानी जिहाद.  
फ़िरदौस ख़ान
        
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लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी : रवीश कुमार

सम्मानीय रवीश जी !
आप हमेशा से ही हमारे लिए आदर्श रहे हैं. हमें इस बात का हमेशा फ़ख़्र रहेगा कि हम उस दौर में हैं, जब आप हैं.पत्रकारिता भी आप पर नाज़ करती होगी. आपने साबित कर दिया कि इंसान के लिए ईमान सबसे क़ीमती चीज़ है. आपको याद होगा कि आपने हमारे बारे में एक तहरीर लिखी थी, जो दैनिक हिन्दुस्तान में 26 मई 2010 को शाया हुई थी. आज उस पर नज़र पड़ी, तो सोचा कि इसके लिए एक बार फिर से आपको शुक्रिया कहें. आपके ये शब्द 'लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी' हमारे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं हैं.इसके लिए हम हमेशा आपके तहेदिल से शुक्रगुज़ार रहेंगे.    
-फ़िरदौस ख़ान  


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इंतज़ार


हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम मिस्र के बाशिन्दों को काहिनों के ज़ुल्म से निजात दिलाने की मुहिम में जुटे हैं. वे मिस्र के बाशिन्दों को ख़ुशहाल ज़िन्दगी देने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. अपना घरबार छोड़कर मिस्र के गोशे-गोशे की ख़ाक छान रहे हैं.

और बानो ज़ुलैख़ा अपने यूसुफ़ के इंतज़ार में पलकें बिछाये बैठी हैं. उन्हें यक़ीन है कि कभी न कभी ये हिज्र का मौसम ज़रूर बीतेगा और उन्हें अपने यूसुफ़ का क़ुर्ब हासिल होगा.


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अल्लाह तुम्हें अर्श पे मारूफ़ करेगा


अल्लाह तुम्हें अर्श पे मारूफ़ करेगा 
करते रहो ज़मीन पे गुमनाम इबादत

करते नहीं ख़्याल ग़रीबो यतीम का 
हो जाएगी हर किस्म की नाकाम इबादत
-फ़िरदौस ख़ान 
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ख़त


मेरे महबूब !
मेरी ज़िन्दगी
वो गुमशुदा ख़त है
जिसका पता तुम हो...
-फ़िरदौस ख़ान 
 

Mere Mahboob !
Meri Zindagi 
Wo Gumshuda Khat Hai
Jiska Pataa TUM ho...
-Firdaus Khan


Photo Curtesy by Google
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रंग-बिरंगी कढ़ाई वाले रुमाल...


फ़िरदौस ख़ान
तुम्हें मालूम है न. कुछ काम हमें कितना सुकून देते हैं. जैसे सफ़ेद रुमालों पर रंग-बिरंगे रेशम से बेल-बूटे टांकना. स्कूल के दिनों में बहुत रुमालों पर एक से एक ख़ूबसूरत फूल काढ़े हैं. लाल, गुलाबी, पीले, नीले और कई शेड वाले गुलाब, चम्पा और न जाने कौन-कौन से फूल. कुछ फूलों के आकार पेंसिल से बनाए, तो कुछ दादी जान के फ़र्मों से. पहले फ़र्मों पर हल्की-सी रौशनाई लगाई, फिर उसे रुमाल के एक कोने पर छाप दिया. उसके बाद रुमाल को फ़्रेम पर कसकर रेशम से फूल काढ़े, पत्तियां हरे रंगों से, कलियां हल्के रंगों से और फूल गहरे रंगों से. एक रुमाल की कढ़ाई में कई-कई दिन लग जाते थे, क्योंकि सुबह स्कूल जाना. ढेर सारा होमवर्क करना. खेलना भी तो ज़रूरी होता था. रात में रुमाल याद आते थे. देर तक जागने पर दादी जान कहती थीं- सुबह कौन-सा इम्तिहान है. यह काम कल कर लेना. और न चाहते हुए भी हमें कढ़ाई छोड़नी पड़ती.

रेशम ख़रीदने के लिए पापा के साथ बाज़ार जाया करते थे. दुकान पर जब बहुत से प्यारे-प्यारे रंग देख कर समझ नहीं पाते थे कि कौन-से रंग का रेशम ख़रीदें और कौन-सा छोड़े. सभी तो एक से बढ़कर एक हुआ करते थे. तब पापा कहते- बबीता सभी ले लो. बचपन में पापा हमें बबीता ही कहा करते थे. वे बाद में फ़िरदौस कहने लगे, क्योंकि हमें लोग फ़िरदौस नाम से ही जानते हैं, जो हमारा असली नाम है. वैसे भी हमारे कई नाम रहे हैं. इस बारे में फिर कभी बात करेंगे. बहरहाल, हम ढेर सारे रेशम ख़रीदकर घर आते. हां, रास्ते में पापा हमें आईसक्रीम, छोले, समौसे और भी न जाने क्या-क्या खिलाते थे. पापा के साथ खायी सभी चीज़ें हम आज भी खाते हैं, पर वह मज़ा नहीं आता, जो पापा के साथ आया करता था.

पापा के साथ ख़रीदे गए रेशम आज भी एक डिब्बे में रखे हुए हैं. जब भी इन्हें देखते हैं, तो पापा बहुत याद आते हैं. हमने कितने ही रुमाल काढ़े, अपनी टीचर को दिए, अम्मी को दिए. अम्मी के पास कभी रुमाल टिके ही नहीं, क्योंकि जो भी रुमाल देखता मांग लेता. अम्मी कभी मना ही नहीं कर पाती थीं, लेकिन हमें हमेशा इस बात का अफ़सोस रहा कि हमने कभी तुम्हें रुमाल नहीं दिया, क्योंकि हमारी एक सहेली ने कहा था-रुमाल देने से रिश्ता टूट जाता है. यह बात कितनी सच है, हम नहीं जानते, लेकिन तुम्हारे मामले में कोई रिस्क लेना नहीम चाहते थे. देखो, हमने तुम्हें कोई रुमाल नहीं दिया. फिर भी तुम कितने दूर हो. मन के सबसे क़रीब होकर भी दूर, बहुत दूर.

अब हम एक रुमाल काढ़ना चाहते हैं, तुम्हारे लि, रंग-बिरंगे रेशम से. क्योंकि हम जान गए हैं कि रिश्ते तो क़िस्मत से बनते और बिखरते हैं. फिर क्यों हम तुम्हें उस रुमाल से महरूम रखें, जो तुम हमेशा से चाहते हो.

दैनिक अमृत विचार 



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इक राह तो वो होगी, तुम तक जो पहुंचती है...


मेरे महबूब !
मुझे हर उस शय से मुहब्बत है, जो तुम से वाबस्ता है. हमेशा से मुझे सफ़ेद रंग अच्छा लगता है. बाद में जाना कि ऐसा क्यों था. तुम्हें जब भी देखा सफ़ेद दूधिया लिबास में देखा. लोगों के हुजूम में तुम्हें देखकर ऐसा लगता है, जैसे चांद ख़ुद ज़मीं पर उतर आया हो. सच तुम इस ज़मीं का चांद ही तो हो, जिससे मेरी ज़िन्दगी में उजाला बिखरा है.
जब तुम परदेस में होते हो तो अपना देस भी बेगाना लगने लगता है. हर पल तुम्हारे लौटने का इंतज़ार रहता है. कभी ऐसा भी होता है कि परदेस ही अपना सा लगने लगता है, क्योंकि तुम वहां जो हो. सच मुहब्बत भी क्या शय है, जो ख़ुदा के क़रीब पहुंचा देती है. जबसे तुम्हें चाहा है, तब से ख़ुदा को पहचाना है. हर वक़्त तुम्हीं को क़रीब पाया है. सावन में जब आसमां पर काली घटाएं छा जातीं हैं और फिर बारिश की बूंदें प्यासी धरती की प्यास बुझाती हैं. जाड़ो में कोहरे से घिरी सुबह क्यारियों में महकते गुलाब फ़िज़ां में भीनी-भीनी ख़ुशबू बिखेर देते हैं. और गर्मियों की तपती दोपहरों और सुलगती रातों में भी हर सिम्त तुम ही तुम नज़र आते हो.
तुम्हारे बग़ैर कुछ भी अच्छा नहीं लगता.
ख़्वाजा मुहम्मद ख़ां ताहिर साहब ने सच ही तो कहा है-
फिर ज़ुलैख़ा न नींद भर सोई
जबसे यूसुफ़ को ख़्वाब में देखा...
मुझे वो सड़क भी बेहद अज़ीज़ है, जो तुम्हारे शहर तक जाती है. वैसे मैं जहां रहती हूं, वहां से कई सड़कें तुम्हारे शहर तक जाती हैं. पर आज तक ये नहीं समझ पाई कि मैं किस राह पर अपना क़दम रखूं कि तुम तक पहुंच जाऊं, लेकिन दिल को एक तसल्ली ज़रूर है कि इन अनजान राहों में इक राह तो वो होगी, तुम तक जो पहुंचती है...  
-फ़िरदौस ख़ान

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मुहब्बत



जब इंसान को किसी से मुहब्बत हो जाया करती है, तो फिर उसका वजूद, उसका अपना नहीं रह जाता. दिल उसका होता है, लेकिन धड़कनें किसी और की. जिस्म अपना होता है, लेकिन रूह किसी और की, क्योंकि उसकी अपनी रूह तो अपने महबूब की चाह में भटकती फिरा करती है.

बक़ौल बुल्ले शाह-
रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई
सद्दी मैनूं धीदो रांझा हीर न आखो कोई
रांझा मैं विच, मैं रांझे विच ग़ैर ख़िआल न कोई
मैं नाहीं ओह आप है अपणी आप करे दिलजोई
जो कुछ साडे अन्दर वस्से जात असाडी सोई
जिस दे नाल मैं न्योंह लगाया ओही जैसी होई
चिट्टी चादर लाह सुट कुडिये, पहन फ़कीरां दी लोई
चिट्टी चादर दाग लगेसी, लोई दाग न कोई
तख़्त हज़ारे लै चल बुल्ल्हिआ, स्याली मिले न ढोई
रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई...

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हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता...


संगीत दिलो-दिमाग़ को बहुत सुकून देता है. अगर भक्ति संगीत की बात की जाए, तो यह रूह की गहराई तक में उतर जाता है. हमारी पसंद के बहुत से भक्ति गीत हैं, जिन्हें सुनते हुए हम उम्र बिता सकते हैं. ऐसा ही एक गीत है- मंगल भवन अमंगल हारी. साल 1975 में आई फ़िल्म 'गीत गाता चल' में इसे सचिन पर फ़िल्माया गया था.
इस गीत को जब भी सुनते हैं, एक अजीब-सा सुकून मिलता है. 

मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहु सुदसरथ अचर बिहारी
राम सिया राम सिया राम जय जय राम-2
हो, होइहै वही जो राम रचि राखा
को करि तर्क बढ़ाये साखा
हो, धीरज धरम मित्र अरु नारी
आपद काल परखिये चारी
हो, जेहिके जेहि पर सत्य सनेहू
सो तेहि मिलय न कछु सन्देहू
हो, जाकी रही भावना जैसी
रघु मूरति देखी तिन तैसी
रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाए पर वचन न जाई
राम सिया राम सिया राम जय जय राम
हो, हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
कहहि सुनहि बहुविधि सब संता
राम सिया राम सिया राम जय जय राम...
बहरहाल, हम यह गीत सुनते हैं...
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झाड़ू की सींकों का घर...


जी, हां ये बात बिल्कुल सच है. जो चीज़ हमारे लिए बेकार है, उससे किसी का आशियाना भी बन सकता है.    
बहुत साल पहले की बात है. अक्टूबर का ही महीना था. हमने देखा कि कई कबूतर आंगन में सुखाने के लिए रखी झाड़ू की सींकें निकाल रहे हैं. हर कबूतर बड़ी मशक़्क़त से एक सींक खींचता और उड़ जाता. हमने सोचा कि देखें कि आख़िर ये कबूतर झाड़ू की सीकें लेकर कहां जा रहे हैं. हमने देखा कि एक कबूतर सामने के घर के छज्जे पर रखे एक कनस्तर में सींकें इकट्ठी कर रहा है और दो कबूतर दाईं तरफ़ के घर की दीवार में बने रौशनदान में एक घोंसला बना रहे हैं. कबूतरों के उड़ने के बाद हमने झाड़ू को खोल कर उसकी सींकें बिखेर दीं, ताकि वे आसानी से अपने नन्हे घर के लिए सींकें ले जा सकें. अब हमने इसे अपनी आदत में शुमार कर लिया. पुरानी छोटी झाड़ुओं को फेंकने की बजाय संभाल कर रख देते हैं. जब इस मौसम में कबूतर झाड़ू की सींके खींचने लगते हैं, तो हमें पता चल जाता है कि ये अपना घोंसला बनाने वाले हैं. गुज़श्ता दो दिनों में कबूतर हमारी दो झाड़ुओं की सींकें लेकर जा चुके हैं. 
हम चमेली व दीगर पौधों की सूखी टहनियों के छोटे-छोटे टुकड़े करके पानी के कूंडों के पास बिखेर देते हैं, ताकि पानी पीने के लिए आने वाले परिन्दों इन्हें लेकर जा सकें. 

आपसे ग़ुज़ारिश है कि अगर आपके आसपास भी परिन्दे हैं, तो आप भी अपनी पुरानी झाड़ुओं की सींकें कबूतरों के लिए रख दें, ताकि इनसे उनके नन्हे आशियाने बन सकें.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत इंसान


राहुल गांधी की ये तस्वीर ख़ूब वायरल हो रही है. इस तस्वीर को लेकर राहुल गांधी की उम्र, उनके चेहरे की झुर्रियों, उनकी सफ़ेद होती दाढ़ी और सफ़ेद बालों पर ख़ूब तंज़ किए जा रहे हैं.


ये बरहक़ है कि जो पैदा हुआ है वह उम्र के मुख़्तलिफ़ मरहलों से गुज़रता है. पहले वह बच्चा होता है, फिर वह अपनी जवानी को पहुंचता है और इसके बाद रफ़्ता-रफ़्ता ज़ईफ़ी की तरफ़ बढ़ता है. 
ख़ुशनसीब हैं वे लोग जो बूढ़े होते हैं, क्योंकि मौत के ज़ालिम पंजे किसी को पैदा होते ही अपनी गिरफ़्त में ले लेते हैं, तो किसी को बचपन में उनके अपनों से छीन लेते हैं. कितने ही लोग भरी जवानी में मौत की आग़ोश में समा जाते हैं. 

क्या बूढ़ा होना कोई गुनाह है? क्या चेहरे की झुर्रियां शर्म की बात है? क्या दाढ़ी सफ़ेद होना नदामत की बात है?
ख़ूबसूरत लोग हमेशा ख़ूबसूरत नहीं रहते, लेकिन अच्छे लोग हमेशा ख़ूबसूरत होते हैं. हमारे नज़दीक राहुल गांधी दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत इंसान हैं और हमेशा रहेंगे.
फ़िरदौस ख़ान  
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निस्बत

 हमारी बारिश की फुहारों से निस्बत यूं ही नहीं...  





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रहें न रहें हम, महका करेंगे…

फ़िरदौस ख़ान
गीत जब ज़ुबान पर चढ़ जाते हैं, तो वे सीधे दिल की गहराइयों में उतर जाते हैं. यह गीत के शब्दों का ही जादू है कि वे गीतकार को अमर कर देते हैं. बानगी देखिए-      
महबूब मेरे, महबूब मेरे... 
तू है तो दुनिया कितनी हसीं है
जो तू नहीं तो कुछ भी नहीं है
महबूब मेरे, महबूब मेरे... 
मुहब्बत के जज़्बे से लबरेज़ यह गीत लिखा था मशहूर शायर व गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने. फ़िल्म ‘पत्थर के सनम’ के इस गीत में जहां वह महबूब के ज़िन्दगी में होने के अहसास को शब्दों में पिरोते हैं, वहीं फ़िल्म अभिलाषा के गीत में कायनात को ख़ुद में ही समेट लेने चाहते हैं-
वादियां मेरा दामन, रास्ते मेरी बाहें
जाओ मेरे सिवा, तुम कहां जाओगे...
 
ग़ौरतलब है कि मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरारुल हसन ख़ान था. उनका जन्म एक अक्टूबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद में हुआ था. उनके पिता पुलिस विभाग में उपनिरीक्षक थे. मजरूह सुल्तानपुरी ने दरसे-निज़ामी का कोर्स किया. इसके बाद उन्होंने लखनऊ के तकमील उल तिब्ब कॉलेज से यूनानी पद्धति में डॉक्टरी की डिग्री हासिल की. फिर वह हकीम के तौर पर काम करने लगे, मगर उन्हें यह काम रास नहीं आया, क्योंकि बचपन से ही उनकी दिलचस्पी शेअरो-शायरी में थी. जब भी मौक़ा मिलता, वह मुशायरों में शिरकत करते. उन्होंने अपना तख़ल्लुस यानी उपनाम मजरूह रख लिया. शायरी से उन्हें ख़ासी शोहरत मिली और वह मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से विख्यात हुए.
उन्होंने अपना हकीमी का काम छोड़ दिया. एक मुशायरे में उनकी मुलाक़ात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई. उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी की हौसला अफ़ज़ाई की. साल 1945 में वे एक मुशायरे में शिरकत करने मुंबई गए, जहां उनकी मुलाक़ात फ़िल्म निर्माता एआर कारदार से हुई. कारदार उनकी शायरी पर फ़िदा थे. उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फ़िल्म में गीत लिखने की पेशकश की, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने इससे इंकार कर दिया, क्योंकि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखने को अच्छा नहीं मानते थे. जब मजरूह सुल्तानपुरी ने जिगर मुरादाबादी को यह बात बताई, तो उन्होंने सलाह दी कि वह फ़िल्मों के लिए गीत लिखें, इससे उन्हें शोहरत के साथ-साथ दौलत भी हासिल होगी. मजरूह सुल्तानपुरी को जिगर मुरादाबादी की बात पसंद आ गई और फिर उन्होंने फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया. मशहूर संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा. मजरूह सुल्तानपुरी ने उस धुन पर गेसू बिखराए, बादल आए झूम के... गीत लिखा. इससे नौशाद ख़ासे मुतासिर हुए और उन्होंने उन्हें अपनी नई फ़िल्म शाहजहां के लिए गीत लिखने की पेशकश कर दी. मजरूह सुल्तानपुरी ने हर दौर के संगीतकारों के साथ काम किया. वह वामपंथी विचारधारा से ख़ासे प्रभावित थे. वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन से भी जुड़ गए थे. उन्होंने 1940 के दशक में मुंबई में एक नज़्म माज़-ए-साथी जाने न पाए, पढ़ी थी. तत्कालीन सरकार ने इसे सत्ता विरोधी क़रार दिया था. सरकार की तरफ़ से उन्हें माफ़ी मांगने को कहा गया, लेकिन उन्होंने माफ़ी मांगने से साफ़ इंकार कर दिया. नतीजतन, उन्हें दो साल की सज़ा हुई और इस तरह उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का काफ़ी अरसा मुंबई की ऑर्थर रोड जेल में बिताना पड़ा. गुज़रते वक़्त के साथ-साथ उनके चाहने वालों की तादाद में इज़ाफ़ा होता चला गया. उनका कहना था-
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया

मजरूह सुल्तानपुरी भले ही फ़िल्मों के लिए गीत लिखते रहे, लेकिन उनका पहला प्यार ग़ज़ल ही रही. उनकी एक ग़ज़ल देखें- 
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह
इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है कि एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह
वो तो हैं कहीं और मगर दिल के आसपास
फिरती है कोई शय निगाह-ए-यार की तरह
सीधी है राह-ए-शौक़ पे यूं ही कभी-कभी
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह
अब जाके कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ून-ए-जुनून
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह
'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह 

उन्होंने शायरी को महज़ मुहब्बत के जज़्बे तक ही महदूद न रखकर उसमें ज़िन्दगी की जद्दोजहद को भी शामिल किया. उन्होंने ज़िन्दगी को जहां एक आम आदमी की नज़र से देखा, वहीं उन्होंने ज़िन्दगी को एक दार्शनिक के नज़रिये से भी देखा. उनकी शायरी इस बात का सबूत है. जेल में रहने के दौरान साल 1949 में लिखा उनका फ़िल्मी गीत- एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल… ज़िन्दगी की सच्चाई को बयान करता है. दरअसल क़ैद की वजह से उनके परिवार की माली हालत बहुत ख़राब हो गई थी. हालांकि उनकी मदद के लिए कई लोग आगे आए, लेकिन उन्होंने किसी ने भी मदद लेना गवारा नहीं किया. उसी दौरान प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता व अभिनेता राजकपूर ने उनसे मुलाक़ात की और उनसे अपनी फ़िल्म के लिए गीत लिखने को कहा, जिस पर उन्होंने यह गीत लिखा, जो आज भी ख़ूब पसंद किया जाता है. राजकपूर इस गीत से इतने मुतासिर हुए कि उन्होंने इस गीत को लिखने के लिए उन्हें एक हज़ार रुपये दिए, जो उस वक़्त एक गीत के लिए बड़ी रक़म थी.
जेल से आने के बाद उन्होंने फिर से अपना शायरी का सफ़र शुरू किया. उन्होंने जहां बेहतरीन ग़ज़लें लिखीं, वहीं फ़िल्मों के लिए भी शानदार गीत लिखे. उन्होंने फुटपाथ, आरपार, पत्थर के सनम, अभिलाषा, ममता, पाकीज़ा, सीआईडी, दोस्ती, पेइंग गेस्ट, नौ दो ग्यारह, चलती का नाम गाड़ी, सुजाता, सोलहवां साल, बंबई का बाबू, काला पानी, बात एक रात की, तीन देवियां, अभिमान, ज्वैल थीफ़, तीसरी मंज़िल, बहारों के सपने, प्यार का मौसम, कारवां, हम किसी से कम नहीं, ज़माने को दिखाना है, ऊंचे लोग, अकेले हम अकेले तुम आदि फ़िल्मों के लिए दिलकश गीत लिखकर धूम मचा दी. उनके गीत लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गए और कामयाबी उनके क़दम चूमने लगी.  

बक़ौल बेकल उत्साही, मजरूह सुल्तानपुरी एक ऐसे शायर थे, जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था. उन्हें एक हद तक प्रयोगवादी शायर और गीतकार भी कहा जा सकता है. उन्होंने अवध के लोकगीतों का रस भी अपनी रचनाओं में घोला था. इससे पहले शायरी की किसी और रचना में ऐसा नहीं देखा गया था. उन्होंने फ़िल्मी गीतों को साहित्य की बुलंदियों पर पहुंचाने में अहम किरदार निभाया. साल 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म ऊंचे लोग का यह गीत इस बात की तस्दीक करता है-
एक परी कुछ शाद सी, नाशाद-सी
बैठी हुई शबनम में तेरी याद की
भीग रही होगी कहीं कली-सी गुलज़ार की
जाग दिल-ए-दीवाना
साल 1994 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया. यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले गीतकार थे. साल 1965 में वह फ़िल्म दोस्ती में अपने गीत- चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे… के लिए उन्हें फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया. इसके अलावा उन्हें साल 1980 में ग़ालिब अवार्ड और साल 1992 में इक़बाल अवार्ड से समानित किया गया था. मजरूह सुल्तानपुरी ने चार दशकों से भी ज़्यादा अरसे तक तीन सौ से ज़्यादा फ़िल्मों के लिए चार हज़ार से ज़्यादा गीत लिखे. उन्होंने नौशाद साहब से लेकर अनु मलिक, जतिन ललित, एआर रहमान और लेस्ली लेविस तक के साथ काम किया.
मजरूह सुल्तानपुरी ने 24 मई, 2000 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें अमर कर दिया. फ़िल्म ‘ममता’ के लिए लिखा उनका यह गीत यह बताने के लिए काफ़ी है कि वह आज भी अपने गीतों के ज़रिये हमारे दिलों में ज़िन्दा हैं-

रहें ना रहें हम, महका करेंगे
बनके कली बनके सबा बाग़े वफ़ा में...
मौसम कोई हो इस चमन में, रंग बनके रहेंगे हम ख़िरामां  
चाहत की ख़ुशबू यूं ही ज़ुल्फ़ों से उड़ेगी, खिज़ा हों या बहारां
यूं ही झूमते, यूं ही झूमते और खिलते रहेंगे
बनके कली बनके सबा बाग़े-वफ़ा में
रहें ना रहें हम...

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अख़बारों से ग़ायब होता साहित्य

फ़िरदौस ख़ान 
हमारी ज़िंदगी में किताबों की बहुत अहमियत है... हम तो किताबों के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर तक नहीं कर सकते... उन्हें भी किताबें पढ़ने का इतना ही शौक़ है... सफ़र में जाते वक़्त सबसे पहले किताब ही बैग में रखते हैं... किताबें पढ़ना एक अच्छी आदत... जिसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए... किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं... ये हमें अज्ञान के अंधेरे से ज्ञान की रौशनी में ले जाती हैं... अख़बार में भी हम संपादकीय के बाद सबसे पहले उसका साहित्य पेज ही देखते हैं... लेकिन अकसर मायूसी ही हाथ आती है, क्योंकि अब अख़बारों से साहित्य ग़ायब होता जा रहा है...
साहित्य समाज का आईना होता है. जिस समाज में जो घटता है, वही उस समाज के साहित्य में दिखलाई देता है. साहित्य के ज़रिये ही लोगों को समाज की उस सच्चाई का पता चलता है, जिसका अनुभव उसे ख़ुद नहीं हुआ है. साथ ही उस समाज की संस्कृति और सभ्यता का भी पता चलता है. जिस समाज का साहित्य जितना ज़्यादा उत्कृष्ट होगा, वह समाज उतना ही ज़्यादा सुसंस्कृत और समृद्ध होगा. प्राचीन भारत की गौरवमयी संस्कृति का पता इसके साहित्य से ही चलता है. प्राचीन काल में भी यहां के लोग सुसंस्कृत और शिक्षित थे, तभी उस समय वेद-पुराणों जैसे महान ग्रंथों की रचना हो सकी. महर्षि वाल्मीकि की रामायण और श्रीमद भागवत गीता भी इसकी बेहतरीन मिसालें हैं. हिंदुस्तान में संस्कृत के साथ हिंदी और स्थानीय भाषाओं का भी बेहतरीन साहित्य मौजूद है. एक ज़माने में साहित्यकारों की रचनाएं अख़बारों में ख़ूब प्रकाशित हुआ करती थीं. कई प्रसिद्ध साहित्यकार अख़बारों से सीधे रूप से जु़डे हुए थे. साहित्य पेज अख़बारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था, लेकिन बदलते वक़्त के साथ-साथ अख़बारों और पत्रिकाओं से साहित्य ग़ायब होने लगा. इसकी एक बड़ी वजह अख़बारों में ग़ैर साहित्यिक लोगों का वर्चस्व भी रहा. उन्होंने साहित्य की बजाय सियासी विषयों और गॉसिप को ज़्यादा तरजीह देना शुरू कर दिया. अख़बारों और पत्रिकाओं में फ़िल्मी, टीवी गपशप और नायिकाओं की शरीर दिखाऊ तस्वीरें प्रमुखता से छपने लगीं.
पिछले दिनों एक मुलाक़ात के दौरान इसी मुद्दे पर मशहूर फ़िल्म गीतकार जावेद अख्तर साहब से गुफ़्तगू हुई. इसी साल मार्च में हमने उनके ग़ज़ल और नज़्म संग्रह लावा की समीक्षा की थी... इसे राजकमल प्रकाशन ने शाया किया था... क़रीब डेढ़ दशक से ज़्यादा अरसे बाद दूसरा संग्रह आने पर जावेद साहब ने कहा था अगर मेरी सुस्ती और आलस्य को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए तो इस देर की एक वजह बताई जा सकती है कि मेरे ख़्याल में एक के बाद दूसरे संग्रहों का अंबार लगा देना अपने अंदर कोई कारनामा नहीं है. मैं समझता हूं कि अगर अंबार लगे तो नये-नये विचारों का लगना चाहिए. जिस विचार को रचना का रूप मिल चुका हो, जिस विचार को अभिव्यक्ति मिल चुकी हो, उसे अगर किसी कारण कहने की ज़रूरत महसूस भी हो रही हो, तो कम से कम कथन शैली में ही कोई नवीनता, कोई विशिष्टता हो, वरना पाठक और श्रोता को बिना वजह तकलीफ़ क्यों दी जाए. अगर नवीनता सिर्फ़ नयेपन के लिए है तो कोई लाख समझे कि उसकी शायरी में सुर्ख़ाब के पर लग गए हैं, मगर उन परों में उड़ने की ताक़त नहीं हो सकती. बात तो जब है कि अक़ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उसे तन्हा छोड़ दिया गया है. मैं जानता हूं कि इसमें असंगति है, मगर बेख़ुदी-ओ-शायरी, सादगी-ओ-पुरकारी, ये सब एक साथ दरकार हैं. वह कहते हैं कि दरअसल, शायरी बुद्धि और मन का मिश्रण, विचार और भावनाओं का समन्वय मांगती है. मैंने सच्चे दिल से यही कोशिश की है कि मैं शायरी की यह फ़रमाइश पूरी कर सकूं. शायद इसलिए देर लग गई. फिर भी कौन जाने यह फ़रमाइश किस हद तक पूरी हो सकी है. 
बहरहाल, जावेद साहब की किताब लावा के बारे में फिर कभी तफ़सील से बात करेंगे. इसलिए मुद्दे पर आते हैं. अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर जावेद साहब का कहना था-यह एक बहुत ही परेशानी और सोच की बात है कि हमारे समाज में ज़ुबान सिकु़ड़ रही है, सिमट रही है. हमारे यहां तालीम का जो निज़ाम है, उसमें साहित्य को, कविता को वह अहमियत हासिल नहीं है, जो होनी चाहिए थी. ऐसा लगता है कि इससे क्या होगा. वही चीज़ें काम की हैं, जिससे आगे चलकर नौकरी मिल सके, आदमी पैसा कमा सके. अब कोई संस्कृति और साहित्य से पैसा थोड़े ही कमा सकता है. पैसा कमाना बहुत ज़रूरी चीज़ है. कौन पैसा कमा रहा है और ख़र्च कैसे हो रहा है, यह भी बहुत ज़रूरी चीज़ है. यह फ़ैसला इंसान का मज़हब और तहज़ीब करते हैं कि वह जो पाएगा, उसे ख़र्च कैसे करेगा. जब तक आम लोगों ख़ासकर नई नस्ल को साहित्य के बारे में, कविता के बारे में नहीं मालूम होगा, तब तक ज़िंदगी ख़ूबसूरत हो ही नहीं सकती. अगर आम इंसान को इसके बारे में मालूम ही नहीं होगा तो फिर वह अख़बारों से भी ग़ायब होगा, क्योंकि अख़बार तो आम लोगों के लिए होते हैं. मैं समझता हूं कि हमें अपने अख़बारों पर नाराज़ होने और शिकायतें करने की बजाय अपनी शैक्षिक व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा. हमें साहित्य को स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक महत्व देना होगा. अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी साहित्य को जगह देनी होगी. जब हम ख़ुद साहित्य की अहमियत समझेंगे तो वह किताबों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में भी झलकेगा.
वरिष्ठ साहित्यकार असग़र वज़ाहत भी अख़बारों से ग़ायब होते साहित्य पर फ़िक्रमंद नज़र आते हैं. उनका कहना है कि अख़बार समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं. मौजूदा दौर में अख़बारों से साहित्य ग़ायब हो गया है. इसे दोबारा वापस लाया जाना चाहिए, क्योंकि आज इसकी सख्त ज़रूरत है. वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी का मानना था कि अख़बारों से साहित्य ग़ायब होने के लिए सिर्फ़ अख़बार वाले ही ज़िम्मेदार नहीं हैं. पहले जो पढ़ने-लिखने जाते थे, वही लोग अख़बारों के भी पाठक होते थे. पहले जो व्यक्ति पाठक रहा होगा, उसने शेक्सपियर भी पढ़ा था. उसने रवींद्रनाथ टैगोर को भी पढ़ा था. उसने प्रेमचंद, शरतचंद्र, मार्क्स और टॉलस्टाय को भी पढ़ा था. लेकिन सरकार के साक्षरता अभियान की वजह से समाज में साक्षरता तो आ गई, लेकिन पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति कम हो गई. नव साक्षरों की तरह ही नव पत्रकारों को भी साहित्य की ज़्यादा जानकारी नहीं है. पहले भी साहित्य में रुचि रखने वाले लोगों को अख़बारों से पर्याप्त साहित्य पढ़ने को कहां मिलता था. वे साहित्य पढ़ने की शुरुआत तो अ़खबारों से करते थे, लेकिन साहित्यिक किताबों से ही उनकी पढ़ने की ललक पूरी होती थी. अब लोग अख़बार पढ़ने की बजाय टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में अख़बारों से साहित्य ग़ायब होगा ही.
माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी डॉ. सौरभ मालवीय अख़बारों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. उनका कहना है कि वर्तमान में मीडिया समाज के लिए मज़बूत कड़ी साबित हो रहा है. अख़बारों की प्रासंगिकता हमेशा से रही है और आगे भी रहेगी. मीडिया में बदलाव युगानुकूल है, जो स्वाभाविक है, लेकिन भाषा की दृष्टि से अख़बारों में गिरावट देखने को मिल रही है. इसका बड़ा कारण यही लगता है कि आज के परिवेश में अख़बारों से साहित्य लोप हो रहा है, जबकि साहित्य को समृद्ध करने में अख़बारों की महती भूमिका रही है. मगर आज अख़बारों ने ही ख़ुद को साहित्य से दूर कर लिया है, जो अच्छा संकेत नहीं है. आज ज़रूरत है कि अख़बारों में साहित्य का समावेश हो और वे अपनी परंपरा को समृद्ध बनाएं. युवा लेखक अमित शर्मा का कहना है कि राजेंद्र माथुर अख़बार को साहित्य से दूर नहीं मानते थे, बल्कि त्वरित साहित्य का दर्जा देते थे. अब न उस तरह के संपादक रहे, न अख़बारों में साहित्य के लिए स्थान. साहित्य महज़ साप्ताहिक छपने वाले सप्लीमेंट्स में सिमट गया है. अब वह भी ब्रांडिंग साहित्य की भेंट च़ढ रहे हैं. पहला पेज रोचक कहानी और विज्ञापन में खप जाता है. अंतिम पेज को भी विज्ञापन और रोचक जानकारियां सरीखे कॉलम ले डूबते हैं. भीतर के पेज 2-3 में साप्ताहिक राशिफल आदि स्तंभ देने के बाद कहानी-कविता के नाम कुछ ही हिस्सा आ पाता है. ऐसे में साहित्य सिर्फ़ कहानी-कविता को मानने की भूल भी हो जाती है. निबंध, रिपोर्ताज, नाटक जैसी अन्य विधाएं तो हाशिए पर ही फेंक दी गई हैं.
इस सबके बीच अच्छी बात यह है कि आज भी चंद अख़बार साहित्य को अपने में संजोए हुए हैं... वक़्त बदलता रहता है, हो सकता है कि आने वाले दिनों में अख़बारों में फिर से साहित्य पढ़ने को मिलने लगे... कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया क़ायम है...साहित्य प्रेमी भी अपने लिए अच्छी पत्र-पत्रिकाएं तलाश लेते हैं... बिलकुल हमारी तरह...
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शुक्रिया एबीपी न्यूज़...


Firdaus Diary... दरअसल हमारी डायरी है. इसमें हमारे गीत हैं,  ग़ज़लें हैं, नज़्में हैं, उन किताबों का ज़िक्र है, जो हमने पढ़ी हैं. इसमें मुख़्तलिफ़ मौज़ूं पर भी तब्सिरे हैं. और इस सबसे बढ़कर इसमें हमारी ज़िन्दगी की किताब के कई वर्क़ दर्ज हैं. हमें डायरी लिखने की आदत है. हम स्कूल के वक़्त से ही डायरी लिख रहे हैं. कुछ साल पहले अंतर्जाल पर भी ब्लॉग लिखना शुरू किया. शुरुआत हिन्दी से की थी. बाद में उर्दू, पंजाबी और अंग्रेज़ी में भी ब्लॉग लिखने लगे. डायरी लिखना ही नहीं, पढ़ना भी बहुत अच्छा लगता है. अकसर अपनी पुरानी डायरियां पढ़ने बैठ जाते हैं. दरअसल, डायरी ज़िन्दगी की एक किताब ही हुआ करती है, जिसके औराक़ (पन्नों) पर हमारी यादें दर्ज होती हैं. वह यादें, जो हमारे माज़ी का अहम हिस्सा हैं.

हिन्दी दिवस (14 सितम्बर 2014) के मौक़े पर ख़बरिया चैनल एबीपी न्यूज़ ने दिल्ली के पार्क होटल में आयोजित एक भव्य समारोह में हमें साहित्यिक विषयों पर लेखन के लिए सर्वश्रेष्ठ ब्लॊगर पुरस्कार से सम्मानित किया. हमारा चयन  एबीपी न्यूज़ के ख़ास मेहमान सुधीश पचौरी, डॉ. कुमार विश्वास, प्रसून जोशी और नीलेश मिश्र ने किया. इस सम्मान के लिए हम एबीपी न्यूज़ और सुधीश पचौरी जी, डॉ. कुमार विश्वास जी, प्रसून जोशी जी और नीलेश मिश्र जी के तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं...
यह पुरस्कार हम अपने उन सभी शुभचिंतकों और पाठकों को समर्पित करते हैं, जो हमारी तहरीर पढ़ते और पसंद करते हैं.

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दूरदर्शन


दूरदर्शन के साथ हमारी ख़ूबसूरत यादें वाबस्ता हैं. बचपन में जब दूरदर्शन देखते थे, तब ये सोचा भी नहीं था कि कभी हम ख़ुद इसका हिस्सा बनेंगे. दूरदर्शन में प्रोडयूसर व सहायक समाचार सम्पादक के तौर पर बरसों काम किया. वह वक़्त भी ज़िन्दगी का बहुत ख़ूबसूरत और यादगार वक़्त रहा.   

आज दूरदर्शन की सालगिरह पर न जाने कितनी ख़ूबसूरत यादें ताज़ा हो गईं... 


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अपनी भाषा हिन्दी पर गर्व करें


फ़िरदौस ख़ान
हर भाषा की अपनी अहमियत होती है। फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी होती है, क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं। बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है। इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है। लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं। बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग्रेज़ी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं। हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है। वे लोग जिनके पुरखे अंग्रेज़ी का 'ए' नहीं जानते थे, वे भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे। हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। दरअसल, वह तो हिन्दी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं।
अंग्रेज़ी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेज़ी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है। हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है। पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे। क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं। हमें ये बात अच्छे से समझनी होगी कि जब तक हिन्दी भाषी लोग ख़ुद हिन्दी को सम्मान नहीं देंगे, तब तक हिन्दी को वो सम्मान नहीं मिल सकता, जो उसे मिलना चाहिए।
देश को आज़ाद हुए साढ़े सात दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद अभी तक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।
हमारे देश भारत में बहुत सी भाषायें और बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने काम के लिए हिन्दी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती शामिल हैं।
ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। स्टैटिस्टा के मुताबिक़ दुनियाभर में हिन्दी भाषा तेज़ी से बढ़ रही है। साल 1900 से 2021 के दौरान इसकी रफ़्तार 175.52 फ़ीसदी रही, जो अंग्रेज़ी की रफ़्तार 380.71 फ़ीसदी के बाद सबसे ज़्यादा है। अंग्रेज़ी और मंदारिन भाषा के बाद हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। साल 1961 में ही हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई। उस वक़्त दुनियाभर में 42.7 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे। साल 2021 में यह तादाद बढ़कर 117 करोड़ हो गई। इनमें से 53 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। हालत यह है कि हिन्दी अब शीर्ष 10 कारोबारी भाषाओं में शामिल है। इतना ही नहीं दुनियाभर के 10 सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बारों में शीर्ष-6 हिन्दी के अख़बार हैं। भारत के अलावा 260 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। विदेशों में 28 हज़ार से ज़्यादा शिक्षण संस्थान हिन्दी भाषा सिखा रहे हैं। हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक माना जाता है। हिन्दी का श्ब्द भंडार भी बहुत विस्तृत है। अंग्रेज़ी में जहां 10 हज़ार शब्द हैं, वहीं हिन्दी में इसकी तादाद अढ़ाई लाख बताई जाती है। हिन्दी मुख्यतः देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन अब इसे रोमन में भी लिखा जाने लगा है। मोबाइल संदेश और इंटरनेट से हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी हिन्दी का ख़ूब चलन है। गूगल पर  हिन्दी के 10 लाख करोड़ से ज़्यादा पन्ने मौजूद हैं।
देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क़ है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय या राष्ट्रभाषा भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।
संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिन्दी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।
भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाता है। मगर हिन्दी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।
ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिन्दी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिन्दी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। साल 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिन्दी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिन्दी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।
संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छोद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का इस्तेमाल किया जाना है, किनके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम-1963, राजभाषा अधिनियम-1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अंग्रेज़ी भाषा हिन्दी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिन्दी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिन्दी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिन्दी भाषा के विकास के लिए गंभीर है, तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया था, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।
हिन्दी के विकास में हिन्दी साहित्य के अलावा हिन्दी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिन्दी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिन्दी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
अधिकारियों का दावा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिन्दी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिन्दी दिवस’ के तौर पर मना लेने से हिन्दी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए। 
रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है। एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है- अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे। अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनसे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हों। नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों। मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता। पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी। रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जुड़े हैं। कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है। मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए ‘मेरा दाग़िस्तान’ में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं। मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं। इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए। मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं। मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।
एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की। लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका। चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा। तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो। इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। अहम बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं।
अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं। मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है।
अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा। अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की। आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते। समझे न? समझ रहा हूं। अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?
रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया। एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद। चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक़्क़ाशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं। पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूं। दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।
किस किंवदंती के आधार पर?
एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं। पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुन्दर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिन्दे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्ता दिखा देगा। उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था। अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं। चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की।
तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?
देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ़ बूढ़ी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?
रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है। अपनी एक कविता में वह कहते हैं-
मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है
हमें भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपने दिल में यही जज़्बा पैदा करना होगा।


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इश्क़ में ख़ुद को मिटा देना ही इश्क़ की इंतेहा है


फ़िरदौस ख़ान
इस्लाम में सूफ़ियों का अहम मुक़ाम है. सूफ़ी मानते हैं कि सूफ़ी मत का स्रोत ख़ुद पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु अलैहि वसल्लम हैं. उनकी प्रकाशना के दो स्तर हैं, एक तो जगज़ाहिर क़ुरआन है, जिसे इल्मे-सफ़ीना यानी किताबी ज्ञान कहा गया है, जो सभी आमो-ख़ास के लिए है. और दूसरा इल्मे-सीना यानी गुह्य ज्ञान, जो सूफ़ियों के लिए है. उनका यह ज्ञान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद, ख़लीफ़ा अबू बक़्र, हज़रत अली, हज़रत बिलाल और पैग़म्बर के अन्य चार क़रीबी साथियों के ज़रिये एक सिलसिले में चला आ रहा है, जो मुर्शिद से मुरीद को मिलता है. पीरों और मुर्शिदों की यह रिवायत आज भी बदस्तूर जारी है. दुनियाभर में अनेक सूफ़ी हुए हैं, जिन्होंने लोगों को राहे-हक़ पर चलने का पैग़ाम दिया. इन्हीं में से एक हैं फ़ारसी के सुप्रसिद्ध कवि रूमी. वह ज़िन्दगी भर इश्क़े-इलाही में डूबे रहे. उनकी हिकायतें और बानगियां तुर्की से हिंदुस्तान तक छाई रहीं. आज भी खाड़ी देशों सहित अमेरिका और यूरोप में उनके कलाम का जलवा है. उनकी शायरी इश्क़ और फ़ना की गहराइयों में उतर जाती है. ख़ुदा से इश्क़ और इश्क़ में ख़ुद को मिटा देना ही इश्क़ की इंतहा है, ख़ुदा की इबादत है.
वे कहते हैं-
बंदगी कर, जो आशिक़ बना सकती है
बंदगी काम है जो अमल में ला देती है
बंदा क़िस्मत से आज़ाद होना चाहता है
आशिक़ अबद से आज़ादी नहीं चाहता है
बंदा चाहता है हश्र के ईनाम व ख़िलअत
दीदारे-यार है आशिक़ की सारी ख़िलअत
इश्क़ बोलने व सुनने से राज़ी होता नहीं
इश्क़ दरिया वो जिसका तला मिलता नहीं
हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब रूमी में सूफ़ी कवि रूमी की ज़िन्दगी, उनके दर्शन और उनके कलाम को शामिल किया गया है. इसके साथ ही इस किताब में सूफ़ी मत के बारे में भी संक्षिप्त मगर अहम जानकारी दी गई है. इस किताब का संपादन अभय तिवारी ने किया है. इस किताब के दो खंड हैं-रूमी की बुनियाद : सूफ़ी मत और मसनवी मानवी से काव्यांश. पहले खंड में सूफ़ी मत का ज़िक्र किया गया है. बसरा में दसवीं सदी के पूर्वार्ध में तेजस्वी लोगों के दल इख़्वानुस्सफ़ा के मुताबिक़, एक आदर्श आदमी वह है, जिसमें इस तरह की उत्तम बुद्धि और विवेक हो जैसे कि वह ईरानी मूल का हो, अरब आस्था का हो, धर्म में सीधी राह की ओर प्रेरित हनी़फ़ी (इस्लामी धर्मशास्त्र की सबसे तार्किक और उदार शाख़ा के मानने वाले) हो, शिष्टाचार में इराक़ी हो, परम्परा में यहूदी हो, सदाचार में ईसाई हो, समर्पण में सीरियाई हो, ज्ञान में यूनानी हो, दृष्टि में भारतीय हो, ज़िन्दगी जीने के ढंग में रहस्यवादी हो. 
रूमी को कई नामों से जाना जाता है. अफ़ग़ानी उन्हें बलख़ी पुकारते हैं, क्योंकि उनका जन्म अफ़ग़ानिस्तान के बलख़ शहर में हुआ था. ईरान में वह मौलवी हैं, तुर्की में मौलाना और हिन्दुस्तान सहित अन्य देशों में रूमी. आज जो प्रदेश तुर्की नाम से प्रसिद्ध है, मध्यकाल में उस पर रोम के शासकों का अधिकार लम्बे वक़्त तक रहा था. लिहाज़ा पश्चिम एशिया में उसका लोकनाम रूम पड़ गया. रूम के शहर कोन्या में रिहाइश की वजह से ही मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन, मौलाना-ए-रूम या रूमी कहलाए जाने लगे. उनके सिलसिले के सूफ़ी मुरीद उन्हें ख़ुदावंदगार के नाम से भी पुकारते थे. रूमी का जन्म 1207 ईस्वी में बलख़ में हुआ था. उनके पुरखों की कड़ी पहले ख़ली़फ़ा अबू बक़्र रज़ियल्लाहु अन्हु तक जाती है. उनके पिता बहाउद्दीन वलेद न सिर्फ़ एक आलिम मुफ़्ती थे, बल्कि बड़े पहुंचे हुए सूफ़ी भी थे. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी.
इस्लाम के मुताबिक़ अल्लाह ने कुछ नहीं से सृष्टि की रचना की यानी रचना और रचनाकार दोनों अलग-अलग हैं. इस्लाम का मूल मंत्र कलमा है ला इलाह इल्लल्लाह यानी अल्लाह के सिवा दूसरा कोई माबूद नहीं है. इसी कलमे पर सब मुसलमान ईमान लाते हैं. मगर सूफ़ी ये भी मानते हैं कि ला मौजूद इल्लल्लाह यानी उसके सिवा कोई मौजूद नहीं है. इस मौजूदगी में भी दो राय हैं. एक तो वहदतुल वुजूद यानी अस्तित्व की एकता, जिसे इब्नुल अरबी ने मुकम्मल शक्ल दी और जो मानता है कि जो कुछ है सब ख़ुदा है, और काफ़ी आगे चलकर विकसित हुआ. दूसरा वहदतुल शुहूद यानी (साक्ष्य की एकता, जो मानता है कि जो भी है उस ख़ुदा से है. 
इस्लाम में इस पूरी कायनात की रचना का स्रोत नूरे-मुहम्मद है. नूरुल मुहम्मदिया मत के मुताबिक़ जब कुछ नहीं था, तो वह सिर्फ़ ख़ुदा सिर्फ़ अज़ ज़ात यानी स्रोत के रूप में था. इस अवस्था के दो रूप मानते हैं- अल अमा यानी घना अंधेरा और वहदियत यानी एकत्व. इस अवस्था में ख़ुदा निरपेक्ष और निर्गुण रहता है. इसके बाद की अवस्था वहदत है, जिसे हक़ीक़तुल मुहम्मदिया भी कहा जाता है. इस अवस्था में ख़ुदा को अपनी सत्ता का बोध हो जाता है. तीसरी अवस्था वाहिदियत की है, जिसमें वह परम प्रकाश, अहं, शक्ति और इरादे के विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो जाता है. अन्य तरीक़े से इस हक़ीक़तुल मुहम्मदिया को ही नूरुल मुहम्मदिया भी कहा गया है. माना गया है कि ख़ुदा ने जब सृष्टि की इच्छा की तो अपनी ज्योति से एक ज्योति पैदा की-नूरे मुहम्मद. शेष सृष्टि का निर्माण इसी नूर से माना गया है. सभी पैग़म्बर भी इसी नूर की अभिव्यक्ति हैं. इस विधान और नवअफ़लातूनी विधान के वन, नूस और वर्ल्ड सोल के बीच काफ़ी साम्य है. वैसे तो इन दोनों से काफ़ी पूर्ववर्ती श्रीमद्भागवत में वर्णित सांख्य दर्शन के अव्यक्त, प्रधान आदि भी ऐसी ही व्यवस्था के अंग हैं, लेकिन उसमें नूरुल मुहम्मदिया या वर्ल्ड सोल जैसी कोई शय नहीं है. इसके बाद इस दिव्य ज्ञान की व्यवस्था में और भी विभाजन हैं, पांच तरह के आलम, ईश्वर का सिंहासन, उसके स्वर्ग का विस्तार आदि तमाम अंग हैं. इस विधान के दूसरे छोर पर आदमी है और उसकी ईश्वर की तरफ़ यात्रा की मुश्किलें हैं, उन्हें पहचानना और इस पथ के राही के लिए आसान करना ही इस ज्ञान का मक़सद है.
रूमी के कई क़िस्से बयान किए जाते हैं. एक बार एक क़साई की गाय रस्सी चबाकर भाग ख़डी हुई. क़साई उसे पक़डने को पीछे भागा, मगर गाय गली-गली उसे गच्चा देती रही और एक गली में जहां रूमी खड़े थे, उन्हीं के पास जाकर चुपचाप रुक गई. रूमी ने उसे पुचकारा और सहलाया. क़साई को उम्मीद थी कि रूमी उसे गाय सौंप देंगे, मगर रूमी का इरादा कुछ और था. चूंकि गाय ने उनके पास पनाह ली थी, इसलिए रूमी ने क़साई से गुज़ारिश की कि गाय को क़त्ल करने की बजाय छो़ड दिया जाए. क़साई ने सर झुकाकर इसे मान लिया. फिर रूमी बोले कि सोचे जब जानवर तक ख़ुदा के प्यार करने वालों द्वारा बचा लिए जाते हैं, तो ख़ुदा की पनाह लेने वाले इंसानों के लिए कितनी उम्मीद है. कहते हैं कि फिर वह गाय कोन्या में नहीं दिखी. एक बार किसी मुरीद ने पूछा कि क्या कोई दरवेश कभी गुनाह कर सकता है. रूमी का जवाब था कि अगर वह भूख के बग़ैर खाता है तो ज़रूर, क्योंकि भूख के बग़ैर खाना दरवेशों के लिए बड़ा संगीन गुनाह है.
किताब के दूसरे खंड में रूमी का कलाम पेश किया गया है. इश्क़े-इलाही में डूबे रूमी कहते हैं-
हर रात रूहें क़ैदे-तन से छूट जाती हैं
कहने करने की हदों से टूट जाती हैं
रूहें रिहा होती हैं इस क़फ़स से हर रात
हाकिम और क़ैदी हो जाते सभी आज़ाद
वो रात जिसमें क़ैदी क़फ़स से बे़खबर है
खोने पाने का कोई डर नहीं व ग़म नहीं
न प्यार इससे, उससे कुछ बरहम नहीं
सूफ़ियों का हाल ये है बिन सोये हरदम
वे सो चुके होते जबकि जागे हैं देखते हम
सो चुके दुनिया से ऐसे, दिन और रात में
दिखे नहीं रब का क़लम जैसे उसके हाथ में

बेशक इश्क़े-इलाही में डूबा हुआ बंदा ख़ुद को अपने महबूब के बेहद क़रीब महसूस करता है. वह इस दुनिया में रहकर भी इससे जुदा रहता है. रूमी के कलाम में इश्क़ की शिद्दत महसूस किया जा सकता है. रूमी कहते हैं-
क्योंकि ख़ुदा के साथ रूह को मिला दिया
तो ज़िक्र इसका और उसका भी मिला दिया
हर किसी के दिल में सौ मुरादें हैं ज़रूर
लेकिन इश्क़ का मज़हब ये नहीं है हुज़ूर
मदद देता है इश्क़ को रोज़ ही आफ़ताब
आफ़ताब उस चेहरे का जैसे है नक़ाब

इश्क़ के जज़्बे से लबरेज़ दिल सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने महबूब की बात करना चाहता है, उसकी बात सुनना चाहता है, उसके बारे में सुनना चाहता है और उसे बारे में ही कहना चाहता है. यही तो इश्क़ है.
बेपरवाह हो गया हूं अब सबर नहीं होता मुझे
आग पर बिठा दिया है इस सबर ने मुझे
मेरी ताक़त इस सबुरी से छिन गई है
मेरी रूदाद सबके लिए सबक़ बन गई है
मैं जुदाई में अपनी इस रूह से गया पक
ज़िंदा रहना जुदाई में बेईमानी है अब
उससे जुदाई का दर्द कब तक मारेगा मुझे
काट लो सर, इश्क नया सिर दे देगा मुझे
बस इश्क़ से ज़िंदा रहना है मज़हब मेरे लिए
इस सर व शान से ज़िन्दगी शर्म है मेरे लिए

बहरहाल, ख़ूबसूरत कवर वाली यह किताब पाठकों को बेहद पसंद आएगी, क्योंकि पाठकों को जहां रूमी के कई क़िस्से पढ़ने को मिलेंगे, वहीं महान सूफ़ी कवि का रूहानी कलाम भी उनके दिलो-दिमाग़ को रौशन कर देगा.

समीक्ष्य कृति : रूमी 
संपादन : अभय तिवारी
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 110 रुपये



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तुलसी बांटने की ख़ुशी...


फ़िरदौस ख़ान
काफ़ी अरसे पहले की बात है. हमारे पड़ौस में रहने वाली गुंजा ने आवाज़ दी. हमने छत से देखा, तो वह घर के सामने बच्चे को गोद में लिए खड़ी थी. उसने कहा- क्या तुलसी का एक पौधा मिल सकता है? हमने कहा कि सुबह ले लेना, क्योंकि सूरज छुपने के बाद पौधों को तोड़ना या उखाड़ना अच्छा नहीं माना जाता. उसने भी हमारी बात के समर्थन में सर हिलाया और चली गई. अगले दिन सूरज निकलते ही वह तुलसी का पौधा लेने आ गई. जब उसने मरुआ तुलसी देखी, तो कहने लगी- क्या एक पौधा मरुआ का भी मिल सकता है? हमने कहा, क्यों नहीं. हमारे छोटे भाई ने उसे दो पौधे दे दिए और वह उन्हें लेकर खु़शी-ख़ुशी चली गई. अकसर छोटी-छोटी चीज़ें इंसान को बहुत खु़शी और सुकून देती हैं. हमारे घर के लोग ये खु़शी अकसर बांटते रहते हैं. हमारे घर तुलसी के बहुत से पौधे हैं. हमारे इलाक़े के लोग अकसर हमारे घर से तुलसी के पौधे ले जाते हैं. अब तो हालत यह है कि लोग अपने परिचितों को भी हमारे यहां के पौधे भेंट करते हैं. इतना ही नहीं, पौधे बेचने वाले भी हमारे यहां से अकसर तुलसी के पौधे ले जाते हैं. यह सिलसिला पिछली क़रीब दो दहाई से चल रहा है.

हिन्दू धर्म में तुलसी को पवित्र माना जाता है. लोग घर के आंगन में तुलसी का चौरा बनाते हैं और हर सुबह उसकी पूजा करते हैं. हमारे यहां तुलसी की कई क़िस्में हैं, जिनमें प्रमुख तुलसी यानी ऑसीमम सैक्टम, काली तुलसी और मरुआ तुलसी शामिल हैं. तुलसी कई क़िस्म की होती है, जिनमें ऑसीमम अमेरिकन यानी काली तुलसी, ऑसीमम वेसिलिकम यानी मरुआ तुलसी, ऑसीमम वेसिलिकम मिनिमम, ऑसीमम ग्रेटिसिकम यानी राम तुलसी, बन तुलसी, ऑसीमम किलिमंचेरिकम यानी कपूर तुलसी, बेल तुलसी, ऑसीमम सैक्टम यानी श्री तुलसी और ऑसीमम विरिडी यानी जंगली तुलसी शामिल है. इनमें ऑसीमम सैक्टम को सबसे पवित्र तुलसी माना जाता है. इसकी दो प्रजातियां हैं, पहली श्री तुलसी जिसकी पत्तियां हरी होती हैं और दूसरी कृष्णा तुलसी, जिसकी पत्तियां कुछ बैंगनी रंग की होती हैं. गुण, धर्म की दृष्टि से काली तुलसी को ही श्रेष्ठ माना गया है, लेकिन ज़्यादातर विद्वानों का मत है कि दोनों तरह की तुलसी के गुण एक जैसे ही होते हैं.

क़ाबिले-ग़ौर है कि मंदिरों में देवताओं को तुलसी चढ़ाई जाती है. गया के विष्णुपद मंदिर को ही लीजिए, यहां हर रोज़ श्रीविष्णु के चरणों में तुलसी अर्पित की जाती है. पितृपक्ष मेले के दौरान श्रृंगार और पूजा अर्चना में हर रोज़ क़रीब एक क्विंटल तुलसी की खपत होती है. शहर के आसपास के इलाक़ों में तुलसी का उत्पादन होता है. इसके अलावा पश्चिम बंगाल से भी तुलसी मंगाई जाती है. पूजन कार्यों में तुलसी को प्रमुखता दी जाती है. मंदिरों में चरणामृत में भी तुलसी का ही इस्तेमाल होता है. माना जाता है कि यह अकाल मौत से बचाने वाली और सर्व व्याधियों का नाश करने वाली हैं. ख़ास बात यह है कि यही पूज्य तुलसी श्रीगणेश की पूजा में निषिद्ध मानी गई हैं. एक कथा के मुताबिक़ एक बार तुलसी देवी नारायण परायण होकर तपस्या के निमित्त से तीर्थों में भ्रमण करती हुई गंगा तट पर पहुंचीं. वहां उन्होंने श्रीगणेश को देखा, जो योगीराज श्रीकृष्ण की आराधना में लीन थे. उन्हें देखते ही तुलसी उनके रूप पर मोहित हो गईं उनका ध्यान भंग करने के लिए श्रीगणेश का उपहास उड़ाने लगीं. ध्यानभंग होने पर श्रीगणेश ने उनसे उनका परिचय पूछा और उनके वहां आगमन का कारण जानना चाहा. इस पर तुलसी ने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा. श्रीगणेश ने कहा कि वह ब्रह्मचारी हैं और विवाह नहीं कर सकते. इंकार सुनकर तुलसी ने श्रीगणेश को शाप देते हुए कहा- आपका विवाह ज़रूर होगा. इस पर श्रीगणेश ने भी तुलसी को शाप दिया- देवी, तुम भी निश्चित रूप से असुरों द्वारा ग्रस्त होकर वृक्ष बन जाओगी. इस शाप को सुनकर तुलसी ने व्यथित होकर श्रीगणेश की वंदना की. तब ख़ुश होकर गणेशजी ने तुलसी से कहा कि आप पौधों की सारभूता बनेंगी और समयांतर से भगवान नारायण की प्रिया भी बनेंगी. सभी देवता आपसे स्नेह रखेंगे, लेकिन श्रीकृष्ण के लिए आप विशेष प्रिय रहेंगी. आपकी पूजा मनुष्यों के लिए मुक्तिदायिनी होगी, लेकिन मेरे पूजन में आप सदैव त्याज्य रहेंगी. ऐसा कहकर श्रीगणेश तप करने चले गए. मगर तुलसी देवी दुखी होकर पुष्कर में जा पहुंचीं और निराहार रहकर तपस्या में लीन हो गईं. यहां वह श्रीगणेश के शाप से चिरकाल तक शंखचूड की पत्नी बनी रहीं. जब शिव के त्रिशूल से उसकी मौत हो गई, तो वह नारायण प्रिया तुलसी के पौधे के रूप में सामने आईं. एक अन्य मान्यता के अनुसार तुलसी को पूर्व जन्म में जालंधर नामक दैत्य की पत्नी बताया गया है. जालंधर नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त होकर भगवान विष्णु ने अपनी योगमाया से जालंधर का वध किया था. पति की मौत से दुखी तुलसी सती हो गईं. उनके भस्म से ही तुलसी के पौधे का जन्म हुआ. तुलसी के त्याग से ख़ुश होकर विष्णु ने तुलसी को अपनी पत्नी बना लिया और वरदान भी दिया कि जो भी तुम्हारा विवाह मेरे साथ करवाएगा, वह मोक्ष प्राप्त करेगा. इसलिए कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की नवमी को विष्णु से तुलसी का विवाह करने का प्रचलन है.

भारतीय संस्कृति के चिर पुरातन ग्रंथ वेदों में भी तुलसी के गुणों और इसकी उपयोगिता का ज़िक्र मिलता है. इसके अलावा दवाओं में भी तुलसी का ख़ूब इस्तेमाल किया जाता है. यह भी कहा जाता है कि जहां तुलसी का पौधा होता है, वहां मच्छर नहीं आते. नज़ला-ज़ुकाम और बुख़ार होने पर तुलसी की पत्तियों का काढ़ा पीने से आराम मिलता है. तुलसी की लकड़ी की मालाएं भी बनाई जाती हैं. पौधे घर की ख़ूबसूरती में भी चार चांद लगाते हैं और इनसे पर्यावरण भी हरा-भरा रहता है. हां, पौधे भेंट करने से ख़ुशी और सुकून भी तो मिलता है. है न?

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परिजात के फूल...


काफ़ी अरसे पहले की बात है. हम अपने कमरे में बैठे थे, तभी हमारी सखियां आ गईं और कहने लगीं आज मन्दिर चलते हैं. हमने कहा क्या बात है, आज कोई ख़ास दिन है. वे कहने लगीं कि मन्दिर के पास मेले जैसा माहौल होता है. मन्दिर भी हो आएंगे और कुछ चूड़ियां और मोती की मालाएं भी ले आएंगे. हमें कांच की चूड़ियों और मोती की मालों का बचपन से ही शौक़ रहा है. हमने अम्मी से पूछा, तो वो कहने लगीं. ठीक है, साथ में सुशीला को भी लेती जाना. सुशीला आंटी हमारी हमसाई थीं.
हम मन्दिर गए. मन्दिर के पास पूरी हाट लगी थी. लोग ख़रीदारी कर रहे थे. हमारी सहेलियां भी ख़रीदारी में लग गईं. सोचा जब तक सहेलियां ख़रीदारी कर रही हैं, तब तक मन्दिर की वाटिका ही देख ली जाए. वाटिका बहुत सुन्दर थी. त्रिवेणी के अलावा फूलों के कई पेड़ थे. उनमें पारिजात का पेड़ भी था. पूरा पेड़ सफ़ेद फूलों से भरा हुआ था. हमने कहीं सुना था कि पारिजात का पेड़ स्वर्ग का वृक्ष है और यह देवताओं को बहुत प्रिय है. श्रीकृष्ण की पत्नी को पारिजात के फूल बहुत पसंद थे, इसलिए श्रीकृष्ण पारिजात को धरती पर ले आए थे. हम मन ही मन में श्रीकृष्ण की पत्नी का शुक्रिया अदा करने लगे, क्योंकि शायद उनकी वजह से ही आज हम इस पेड़ के इतने क़रीब थे. 
पेड़ के पास बहुत से फूल बिखरे पड़े थे. हम ज़मीन पर बैठकर फूल चुनने लगे, तभी मन्दिर के पुजारी, वहां आ गए और कहने लगे कि ज़मीन से फूल क्यों चुन रही हो. इस पेड़ से जितने चाहो फूल तोड़ सकती हो. हमने पंडित जी का शुक्रिया अदा किया और पारिजात के फूल तोड़कर अपने दुपट्टे में इकट्ठे करने लगे. हमने एक अंजुली फूल इकट्ठे कर लिए. तब तक हमारी सहेलियां और आंटी भी वहां आ गईं. फिर हम मन्दिर के अंदर दाख़िल हुए. वहां छोटे-छोटे मन्दिर बने थे. किसी में राम और सीता की मूर्ति थी, किसी में हनुमान जी की मूर्ति थी, किसी में देवी संतोषी की, तो किसी में किसी और देवता की मूर्ति सजी थी. आंटी ने सभी मन्दिरों में घंटी बजाकर माथा टेका. हमारी सहेलियां भी ऐसा ही कर रही थीं. हम भी सबके साथ-साथ चल रहे थे. 
आख़िर में एक और मन्दिर आया, जिसमें श्रीकृष्ण की मनोहारी प्रतिमा थी. पीला लिबास धारण किए हुए. हाथ में बांसुरी और होंठों पर मोहक मुस्कान. हम सोचने लगे. श्रीकृष्ण के इसी रूप पर फ़िदा होकर रसखान से लेकर अमीर ख़ुसरो तक कितने ही सूफ़ी-संतों ने श्रीकृष्ण पर गीत रच डाले हैं. हम फ़ौरन प्रतिमा की तरफ़ बढ़े और हमारे हाथ में जितने पारिजात के फूल थे, सभी श्रीकृष्ण के क़दमों में रख दिए.
तभी पंडित जी बोल पड़े- ऐसा लगता है, जैसे श्रीकृष्ण की राधा ने ही पुष्प भेंट किए हों. आंटी और हमारी सहेलियों ने पंडित जी की हां में हां मिलाई. हमने प्रसाद लिया और घर आ गए.
पारिजात के फूल चुनने से लेकर श्रीकृष्ण के क़दमों में रखने तक हमने जो लम्हे जिए और वो हमारी इक उम्र का सरमाया हैं. आज भी जब पारिजात के फूल देखते हैं, तो दिल को अजीब-सा सुकून महसूस होता है. हम नहीं जानते कि श्रीकृष्ण और पारिजात के फूलों से हमारा कौन-सा रिश्ता है.
-फ़िरदौस ख़ान
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खिला-खिला दिन


आज कितना खिला-खिला दिन है. अम्बर पर सूरज चमक रहा है. ज़मीन पर बिखरी हुई सूरज की सुनहरी किरनें कितनी भली लग रही हैं. गहरे नीले आसमान पर दूधिया बादल उड़े-उड़े फिर रहे हैं. क्यारियों में लगी चमेली की शाख़ें हवा में झूम रही हैं. गुलाब और बेला भी अपनी महक से फ़िज़ा को रूमानी बना रहे हैं. कितना सुहाना मौसम है. दिल चाहता है कि ये वक़्त यही ठहर जाए.
फ़िरदौस ख़ान 



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दोस्त


सबसे क़रीबी दोस्त वह होता है, जिससे इंसान अपने महबूब के बारे में बात करता है, अपने ख़्वाबों के बारे में बात करता है. अपने दुख-सुख के बारे में बात करता है. बाक़ी तो रस्मी दोस्त ही हुआ करते हैं. 
फ़िरदौस ख़ान 
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दोस्तियां...


फ़िरदौस
कुछ लोग सिर्फ़ सोशल साइट्स तक ही महदूद हुआ करते हैं, सोशल साइट्स पर आए, तो दुआ-सलाम हो गया, वरना तुम अपने घर और हम अपने घर. कुछ लोग कारोबार यानी दफ़्तर तक की महदूद होते हैं. आमना-सामना हुआ, तो हाय-हैलो हो गई. कुछ लोग सोशल फ़ील्ड तक ही महदूद रहा करते हैं.
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो मेहमानों की तरह घर पर भी आ जाते है, और मेहमान नवाज़ी के बाद रुख़्सत हो जाते हैं. इन सबके बीच कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो हमारे बावर्चीख़ाने तक आते हैं. यक़ीन मानिये, जो दोस्तियां या रिश्ते घर के बावर्चीख़ाने तक पहुंच जाते हैंहैं, वह ताउम्र के हो जाते हैं.
हमारी बचपन से एक आदत रही है. स्कूल से कॊलेज और कॊलेज से दफ़्तर तक जिन लोगों से हमारी आशनाई रही है, उनसे हमने घर तक का रिश्ता रखा. यानी हमारे घरवाले उन सभी लोगों को जानते हैं, और उन लोगों के घरवाले भी हमसे वाक़िफ़ हैं. ये हमने अपने परिवार से ही सीखा. पापा के दोस्तों के घरवाले और हमारी अम्मी की सहेलियों के घरवालों का हमारे घर आना-जाना रहता था. हमने भी ऐसा ही किया. त्यौहारों पर अपनी सहेलियों, अपने दफ़्तर के सहकर्मियों को घर पर बुलाना. उनके घर जाना. इस तरह सब हमारे पारिवारिक दोस्त होकर रहे. फ़ेसबुक पर ऐसे कई लोग हैं, जो हमारे पारिवारिक मित्र हैं. अगर हमारा फ़ोन ना मिले, तो वे हमारे घर के नंबर पर फ़ोन कर लेते हैं. फ़ेसबुक पर एक ऐसे पारिवारिक मित्र भी हैं, जिन्हें हम अपनी दूसरी मां कहते हैं. क्योंकि वो हमारी इतनी ही फ़िक्र करते हैं, जितनी कोई मां अपने बच्चे की करती है.
कई साल पहली की बात है. हमारे एक आशनाई अपनी बहन के साथ घर आए. हमारी तबीयत ठीक नहीं थी. वह बोले कि भूख लग रही है. हमने कहा कि आज हमने खाना नहीं पकाया. आप शिबली से पकवा लें. कहने लगे कि अब हंस कर पकाओ या रोकर, पर खाना तुम्हारे हाथ का ही खाऊंगा. इसलिए उठो, और कुछ पका लो.
हमने मन न होते हुए भी बिरयानी पकाकर दी. उनकी बहन भी कम नहीं थी. छुट्टी के दिन आ जाती और कहती कि आज कुछ नई चीज़ खाने का मन है. चलो, कुछ पकाकर खिलाओ. हम नये-नये पकवान बनाते. कभी कोई मुग़लई पकवान बनाते, तो कभी दक्षिणी भारयीय व्यंजन. वह खाकर कहती, किसी होटल में शेफ़ थी क्या 🙂  
हम मूवी देखते. कॊल्ड ड्रिंक्स पीते. बहुत अच्छा वक़्त बीतता.
जिस दिन उनकी अम्मी बिरयानी बनातीं, अल सुबह ही हमारे पास कॊल आ जाती कि शाम को घर पर बिरयानी पक रही है. इसलिए दफ़्तर से सीधा घर आ जाना. और दिन भर न जाने कितनी कॊल्स आतीं.
हमने घर तक का रिश्ता रखा, इसलिए स्कूल के दिनों तक की दोस्तियां आज भी क़ायम हैं. रिश्तों में उतनी ही शिद्दत और ताज़गी है, जितनी शुरू में हुआ करती है.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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मुहब्बत



मुहब्बत सिर्फ़ मुहब्बत होती है और कुछ नहीं. मुहब्बत सिर्फ़ देना जानती है. सावन के बरसते बादलों की मानिन्द. जिस तरह बादल अपनी आख़िरी बूंद तक प्यासी धरती पर उडेल देते हैं, इसी तरह मुहब्बत अपने महबूब को सराबोर कर देती है, मुहब्बत के जज़्बे से. 
फ़िरदौस ख़ान
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हम किसके लिए लिखते हैं


अकसर लोग पूछते हैं कि आप किसके लिए लिखती हैं ? आप जिसके लिए लिखती हैं, वो वाक़ई बहुत ख़ुशनसीब है. हमारा हर लफ़्ज़ उन्हें समर्पित हैं, जिनके क़दमों में हम अपनी अक़ीदत के फूल चढ़ाते हैं, जो हमारी इबादत का मर्कज़ हैं. जिनके बिना हमारी इबादत अधूरी है. जो हर जगह हैं, जिनकी मुहब्बत ने हमें फ़ना कर डाला. 
फ़िरदौस ख़ान
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तुम्हारा नाम


मेरे महबूब !
वो तुम्हारा ही तो नाम है
सबसे ख़ूबसूरत नाम 
जिसे मैं 
कलमे की तरह 
अज़ल से अब्द तक 
पढ़ते रहना चाहती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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यादें


वाक़ई ये यादें ही तो हैं, जो तपती धूप में घने दरख़्त का साया हैं, तो जाड़ों में गुनगुनी धूप का अहसास देती हैं. ज़िन्दगी की भूल-भूलय्या में रौशनी बनकर बिखर जाती हैं, तो कभी सावन की फुहारें बनकर तन-मन को भिगो देती हैं.
फ़िरदौस ख़ान
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मुहब्बत और ईमान


मुहब्बत बिल्कुल ईमान की तरह हुआ करती हैं. जब बन्दा अपने ख़ुदा पर ईमान ले आता है, तो वे दर-दर भटकने से बच जाता है. इसी तरह जब इंसान को मुहब्बत हो जाती है, तो उसे अपने महबूब के दर के सिवा कोई और दर नज़र ही नहीं आता. 
फ़िरदौस ख़ान
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महबूब और चाँद


लोग न जाने क्यों चांद में महबूब का अक्स तलाशते हैं. हक़ीक़त में महबूब का अक्स दहकते सूरज में अया होता है, जो पूरे वजूद को फ़ना कर डालता है. इश्क़ में फ़ना होना ही तो इश्क़ की इंतेहा है.
फ़िरदौस ख़ान
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महबूब से वाबस्ता हर चीज़ें


महबूब से वाबस्ता हर चीज़ अज़ीज़ हुआ करती है. फिर वो ज़मीन क्यूं न अज़ीज़ हो, जिस ज़मीन पर महबूब के क़दम रखे गए हों. जिसकी फ़िज़ाओं में उसकी सांसों की महक शामिल हो. जहां की हवायें उसके जिस्म को छूकर गुज़री हों. फिर क्यूं न उस ज़मीन का हर ज़र्रा क़ाबिले-एहतराम हो.
फ़िरदौस ख़ान
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दो रिश्ते


दुनिया में दो रिश्ते ऐसे हैं, जिनमें ख़ुद को क़ुर्बान कर देने में ही ख़ुशी मिला करती है. पहला मां का रिश्ता. मां अपनी औलाद के लिए हर दर्द ख़ुशी-ख़ुशी सह जाती है. दूसरा रिश्ता इश्क़ का है. इंसान अपने महबूब के लिए ख़ुद को फ़ना कर देता है. ख़ुद को मिटा देने में ही उसे सुकून मिलता है. 
फ़िरदौस ख़ान
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चमेली के फूल



मेरे महबूब ! 
चमेली के सफ़ेद फूलों से आंगन महक रहा है. रोज़ रात में चमेली के फूल खिलते हैं और अपनी ख़ुशबू से रूह तक को महका देते हैं. अल सुबह हम चमेली के फूल अपने दामन में इकट्ठे करते हैं और सोचते हैं कि काश ! तुम पास होते, तो ये फूल तुम्हारे क़दमों में चढ़ा देते. ये फूल हमारी अक़ीदत के फूल हैं, जिन्हें हम आपके क़दमों में बिखेर देना चाहते हैं.
फ़िरदौस
 
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ज़िन्दगी


हमने ज़िन्दगी में जो चाहा वह नहीं मिला, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा मिला. ज़मीन चाही, तो आसमान मिला... इतना मिला कि अब कुछ और चाहने की 'चाह' ही नहीं रही.

* ज़िन्दगी में ऐसा भी मुक़ाम आया करता है, जब इंसान जद्दो-जहद करके थक जाता है. उसकी ख़्वाहिशें दम तोड़ देती हैं. उम्मीद का दिया बुझ जाता है. फिर उसे ज़िन्दगी में कुछ भी अच्छा होने की कोई आस नहीं रहती.

* इंसान को संघर्ष अकेले करना पड़ता है. नाकामी का दर्द भी अकेले ही सहना पड़ता है. लेकिन जब कामयाबी मिल जाती है, तो उसे बांटने के लिए सब आ जाते हैं. यही दुनिया का दस्तूर है.


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सिक्कों की दुनिया की सैर


फ़िरदौस ख़ान
जबसे मुद्रा का विकास हुआ है, तभी से यह हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग रही है. इसके बिना जीवन की कल्पना तक संभव नहीं है. हाल में राजकमल प्रकाशन की एक किताब भारतीय सिक्कों का इतिहास प़ढने का मौक़ा मिला. कुछ वक़्त पहले जब चवन्नी का चलन बंद हुआ था, तबसे ही भारतीय मुद्रा के बारे में जानने की जिज्ञासा थी. लेखक गुणाकर मुले ने इस किताब के लिए काफ़ी शोध किया है. इस किताब को कई अध्यायों में बांटा गया है, जैसे सिक्कों की शुरुआत, भारत के सबसे पुराने पंचमार्क सिक्के, मौर्यकाल के पंचमार्क सिक्के, हिन्द-यवन शासकों के सिक्के, शक पह्लव शासकों के सिक्के, कुषाणों के सिक्के, पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्के, गणराज्यों और जनपदों के सिक्के, भारत में रोमन सिक्के, सात वाहनों के सिक्के, गुप्त सम्राटों के सिक्के, हेफतालों के सिक्के, मध्यकालीन उत्तर भारतीय मुद्राएं, दक्षिण भारत के सिक्के, पांड्य, चोल और चेर शासकों के सिक्के, इस्लामी शासकों के सिक्के, दिल्ली सल्तनत के सिक्के, सल्तनत कालीन प्रांतीय राज्यों के सिक्के, मुग़ल शासकों के सिक्के, मुग़ल कालीन प्रादेशिक राज्यों के सिक्के, यूरोप की व्यापारी कंपनियों के सिक्के, भारत में अंग्रेजी राज के सिक्के, सिक्कों की लिपियां और भाषा आदि.

इस किताब में सिक्कों के बारे में बेहद रोचक और ज्ञानवर्द्धक जानकारी मिलती है. इस्लाम में सिक्कों पर प्रतिमांकन कराने की प्रथा नहीं थी, इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर भारत के इस्लामी शासकों के सिक्कों के दोनों तरफ़ केवल मुद्रालेख ही देखने को मिलते हैं. प्राचीन भारत के शासकों की ही तरह इस्लामी शासकों में भी सिंहासन संभालते ही नये सिक्के जारी करने की प्रथा रही है. प्राचीन भारत के सिक्कों को देखकर यह नहीं बताया जा सकता कि वे किस टकसाल में तैयार किए गए थे, लेकिन इस्लामी शासकों ने सिक्कों पर टकसाल की जगह का नाम अंकित कराने की प्रथा शुरू की. इतना ही नहीं, इन टकसालों को कुछ विशिष्ट नाम भी दिए गए, जैसे दिल्ली को देहली हज़रत, दारुल ख़िलाफ़त, दारुल मुल्क, दारुल इस्लाम. दिल्ली के सुल्तानों ने दौलताबाद में भी टकसाल स्थापित की थी. शेरशाह के वक़्त (1540-1545) में टकसालों की तादाद 23 तक पहुंच गई थी. अकबर के शासनकाल (1556-1605) में देश में 76 टकसालें थीं. सिक्कों पर टकसालों के उल्लेख से उन स्थानों के शासकीय महत्व और राज्य की सीमाओं के बारे में जानकारी मिलती है. ज़्यादातर मुस्लिम शासकों के सिक्के शुद्ध धातु और प्रामाणिक तौल के हैं. अकबर के शासनकाल में कोई भी व्यक्ति अपना सोना या अपनी चांदी टकसाल में ले जाकर उसके सिक्के तैयार करा सकता था. चांदी के रुपये बनवाने के लिए उसे कुल मुद्रांकित धातु का क़रीब 5.6 फ़ीसदी मुद्रा निर्माण के लिए देनी होती थी. मुग़ल बादशाहों में जहांगीर (1605-1627) के सिक्के सबसे सुंदर हैं. उसे नये-नये सिक्के बनवाने का शौक़ था. बाबर और हुमायूं के चांदी के दिरहम मध्य एशियाई शैली के हैं और तैमूरी वंश के शासक शाहरुख़ के नाम पर शाहरुख़ीकहलाते हैं. क़रीब 72 ग्रेन के इन सिक्कों के पुरोभाग पर कलमा और ख़लीफ़ाओं के नाम तथा पृष्ठभाग पर बादशाह का नाम है. शेरशाह सूरी ने अपने चंद सालों के शासन के दौरान भारतीय मुद्रा प्रणाली को एक नई दिशा दी थी. उसने मिश्र धातु का इस्तेमाल बंद करवा दिया और शुद्ध चांदी के मानक रुपये को चलाया. अकबर ने सोना, चांदी और तांबे के अपने सिक्कों के लिए सूरी शैली, तौल और बनावट को अपनाया. बुनियादी सिक्का चांदी का रुपया था, जिसका तौल 11.5 माशा या 178 ग्रेन के बराबर था. अकबर के पूरे राज्य में एक ही तौल के रुपये का प्रचलन था और उसकी चांदी की मुद्राओं में चार फ़ीसद से ज़्यादा मिलावट कभी नहीं रही. टीपू सुल्तान ने अपने 17 सालों (1782-1799) के शासनकाल में तरह-तरह के की मुद्राएं जारी कीं. टीपू सुल्तान ने न केवल सोने के पगोद, पणम, चांदी के रुपये और दोहरे रुपये आदि जारी किए, बल्कि तांबे के भी विविध तौल के सिक्के जारी किए. इन सिक्कों को नाम दिए गए. चौथाई मुहर को फ़ारुख़ी, एक रुपये को अहमदी, दोहरे रुपये को हैदरी आदि. ये सब इस्लाम से संबंधित नाम हैं. कुछ सिक्कों के नाम ग्रहों और नक्षत्रों के नाम पर भी रखे गए. 

देश के आज़ाद होने के बाद जो सिक्के ढाले गए, वे 1947 से 1950 के दौर के थे. एक अप्रैल, 1957 को भारतीय मुद्रा अधिनियम लागू हुआ तो सिक्कों में बदलाव आया. इससे पहले आना प्रणाली के सिक्कों का चलन था. इसमें एक रुपया 16 आने के बराबर था. भारतीय मुद्रा अधिनियम के बाद दशमलव प्रणाली आई. रुपये का चलन वैसा ही था, लेकिन आना के बजाय उसकी क़ीमत 100 पैसे के बराबर हो गई. जनता में रुपया नया पैसा के नाम से प्रचलित हुआ. 60 के दशक में तांबे एवं निकल के सिक्के बने. इनमें षटकोण वाले 3 पैसे का सिक्का, लहरियेदार किनारे वाला 20 पैसे का सिक्का प्रचलित था. 70 के दशक में एक, दो एवं तीन पैसे का चलन लगभग ख़त्म होने लगा और उस वक़्त स्टील के 10, 25 और 50 पैसे को शामिल किया गया. बाद में विभिन्न विशेष अवसरों पर सिक्कों का प्रचलन शुरू हुआ, जिन पर नहर, हल जोतने और फ़सल काटते किसान आदि अंकित होते थे. कई सिक्कों पर एक तरफ़ भारत गणराज्य का राज्य चिन्ह एवं सत्यमेव जयते और दूसरी तरफ़ महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी आदि की तस्वीरें या राष्ट्रीय इमारतें अंकित थीं. साल 1972 में 50 पैसे और 10 रुपये के सिक्कों पर सर्वप्रथम संसद भवन का अंकन हुआ था. भारत में चार सरकारी टकसालें हैं. ये महाराष्ट्र में मुंबई, पश्चिम बंगाल में कोलकाता, आंध्रप्रदेश में हैदराबाद और उत्तर प्रदेश के नोएडा शहर में हैं. भारतीय सरकार पर पर सिक्कों को बनाने की ज़िम्मेदारी है और ये सभी भारतीय टकसालों से भारतीय रिज़र्व बैंक पहुंचते हैं. बहरहाल, इतिहास और पुरातत्व में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह किताब बेहद उपयोगी है. 

समीक्ष्य कृति : भारतीय सिक्कों का इतिहास 
लेखक : गुणाकर मुले 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 
मूल्य : 350 रुपये    
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