नये रास्ते...


हमेशा एक ही रास्ते पर चलना कितना उबाऊ लगता है... और रास्ते बदल-बदल कर चलना कितना भला लगता है... अब समझ में आया कि पापा हमेशा रास्ते बदल-बदल कर क्यों चला करते थे... हम जब भी पापा के साथ कहीं जाते, तो देखते कि हम जिस रास्ते से जाते थे, उस रास्ते से वापस कभी नहीं आते थे... इसलिए हमें रास्ते याद नहीं रहा करते थे... हमने पापा से पूछा कि वे जिस रास्ते से जाते हैं, उस रास्ते से वापस क्यों नहीं आते, तो वे कहते कि एक ही रास्ते पर चलना बहुत उबाऊ लगता है... पापा को बहुत से रास्ते मालूम थे... हमें यह सोचकर ही बहुत गर्व महसूस होता था कि पापा को कितने सारे रास्ते मालूम हैं... हमारे भाई सनव्वर को भी यही आदत है... हम सनव्वर के साथ एक कॊम्पलैक्स गए... वह हमें जिस रास्ते से लेकर गया, उस रास्ते से हम पहले कभी नहीं गए थे... वापसी पर तो रास्ता और भी भला लगा... सनव्वर को भी पापा की ही तरह बहुत से रास्ते मालूम हैं... सच ! कितना भला लगता है हमेशा नये-नये रास्तों से आना-जाना...
  
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ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें


फ़िरदौस ख़ान 
बीसवीं सदी के मशहूर शायरों में जां निसार अख़्तर को शुमार किया जाता है. उनका जन्म 14 फ़रवरी, 1914 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक सुन्नी मुस्लिम परिवार में हुआ. उनके पिता मुज़्तर खैराबादी मशहूर शायर थे. उनके दादा फज़ले-हक़ खैराबादी मशहूर इस्लामी विद्वान थे. जां निसार अख़्तर ने ग्वालियर के विक्टोरिया हाई स्कूल से दसवीं पास की. इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह अलीगढ़ चले गए, जहां उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल की. इसके बाद वह वापस अपने शहर ग्वालियर लौट आए और विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू के प्राध्यापक के तौर पर नियुक्त हो गए. उन्होंने 1943 में सफ़िया सिराज उल हक़ से निकाह किया. सफ़िया मशहूर शायर मज़ाज लखनवी की बहन थीं और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उन्हीं के साथ पढ़ती थीं. यहीं से उनकी दोस्ती सफ़िया से हो गई थी, जो बाद में मुहब्बत और फिर शादी तक जा पहुंची. उनके दो बेटे हुए जावेद और सलमान. जावेद अख्तर प्रसिद्ध फ़िल्म गीतकार हैं. बाद में जां निसार अख़्तर भोपाल आ गए और हमीदिया कॉलेज में उर्दू और फ़ारसी विभाग के अध्यक्ष के तौर पर काम करने लगे. बाद में सफ़िया ने भी इसी कॉलेज में काम किया. वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे, बाद में वह इसके अध्यक्ष भी बने.

उन्होंने 1949 में इस्तीफ़ा दे दिया और मुंबई चले आए. यहां वह प्रगतिशील लेखकों मुल्क राज आनंद, कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी और इस्मत चुग़ताई के संपर्क में आए. इन लेखकों की यह जमात बॉम्बे लेखक समूह के नाम से जानी जाती थी. अकसर इनकी मुलाक़ातें मुंबई के सिल्वर फिश रेस्तरां में होतीं. जां निसार अख्तर को फ़िल्मों में काम मिलना शुरू हो गया. उन्होंने सी रामचंद्रा, ओपी नैयर, एन दत्ता और खय्याम के लिए तक़रीबन 151 यादगार गीत लिखे. इनमें फ़िल्म यासमीन (1955), सीआईडी (1956), रुस्तम सोहराब (1963), प्रेम पर्वत (1974), नूरी (1979), शंकर हुसैन (1977) और कमाल अमरोही की फिल्म रज़िया सुल्तान (1983) शामिल है. उन्होंने 1967 में बहु बेगम फ़िल्म बनाई. इसकी कहानी भी उन्होंने ख़ुद लिखी थी. फ़िल्म में मीना कुमारी और प्रमोद कुमार ने काम किया था. यह फ़िल्म हिट रही.

मगर जां निसार अख़्तर को कामयाबी मिलने से पहले ही ज़िंदगी के हर मुश्किल सफ़र में उनका साथ निभाने वाली उनकी पत्नी सफ़िया की 17 जनवरी, 1953 में कैंसर से मौत हो गई. कुछ वक़्त बाद 17 सितंबर, 1956 को उन्होंने ख़दीजा तलत से निकाह कर लिया. सफ़िया के पत्रों का संग्रह 1955 में तुम्हारे नाम शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इसके हर्फ़-ए-आशना और ज़ेर-ए-लब नामक दो खंडों में 1 अक्टूबर, 1943 से 29 दिसंबर 1953 तक सफ़िया द्वारा जां निसार अख़्तर को लिखे गए ख़त शामिल हैं. जां निसार अख़्तर की शायरी के कई संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें नज़र-ए-बुतां, सलासिल, जावेदां, पिछले पहर, घर-आंगन और ख़ाक-ए-दिल आदि शामिल हैं. जां निसार अख्तर को 1976 में उर्दू साहित्य अकादमी अवॉर्ड से नवाज़ा गया.

जां निसार अख़्तर की शायरी में रूमानियत के रेशमी जज़्बात हैं, तो तसव्वुरात के ख़ूबसूरत लम्हे भी हैं. आज भी मुहब्बत करने वाले अपने ख़तों में उनके शेअर लिखा करते हैं.
अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेअर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आंखों में जो भर लोगे तो कांटो से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूं तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़क़्त दीप जलाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

उनके कलाम में मुहब्बत के कई रंग शामिल हैं. इसमें मिलन का रंग है, तो नाराज़गी और बिछड़ने का रंग भी शामिल है.
सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी
उनसे यही कह आए कि हम अब न मिलेंगे
आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी
ये हमसे न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़! हमारी न तेरे साथ बनेगी
हैरत कदा-ए-हुस्न कहां है अभी दुनिया
कुछ और निखर ले तो तिलिस्मात बनेगी

उनकी शायरी में मुहब्बत का वह अहसास है, जिसे महबूब के होने या न होने से कोई फ़र्क़ नहीं प़डता. मुहब्बत तो बस मुहब्बत है. महबूब क़रीब हो या दूर, पर मुहब्बत का अहसास हमेशा बरक़रार रहता है.
कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है
लब पे आहें भी नहीं आंख में आंसू भी नहीं
दिल ने हर राज़ मुहब्बत का छुपा रखा है
तूने जो दिल के अंधेरे में जलाया था कभी
वो दिया आज भी सीने में जला रखा है
देख जा आके महकते हुए ज़ख्मों की बहार
मैंने अब तक तेरे गुलशन को सजा रखा है

उन्होंने सामाजिक असमानता, शोषण और ग़रीबी जैसे मुद्दों को भी अपनी शायरी में बख़ूबी उठाया है.
मौजे-गुल, मौजे-सबा, मौजे-सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है कि नज़र लगती है
हमने हर गाम पे सजदों के जलाए हैं चिराग़
अब तेरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है
लम्हे-लम्हे में बसी है तेरी यादों की महक
आज की रात तो खु़शबू का सफ़र लगती है
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है
सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मिरे ख़ून से तर लगती है
कोई आसूदा नहीं अहले-सियासत के सिवा
ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है
वाक़िया शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो अख़बार के दफ़्तर की ख़बर लगती है
लखनऊ! क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही
हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है

वह प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े थे. इसका असर भी उनके कलाम में दिखाई देता है.
लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझसे
तेरी आंखों ने तो कुछ और कहा मुझसे
हाय! इस व़क्त को कोसूं कि दुआ दूं यारो
जिसने हर दर्द मेरा छीन लिया मुझसे
दिल का ये हाल धड़के ही चला जाता है
ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझसे
खो गया आज कहां रिज़्क़ का देने वाला
कोई रोटी जो खड़ा मांग रहा है मुझसे
अब मेरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी
कौन-सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझसे

मुंबई में 19 अगस्त, 1976 को 62 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई, लेकिन अपनी शायरी की वजह से वह हमेशा लोगों के दिलों में रहेंगे. उनके मदहोश कर देने वाले गीत आज भी लोग गुनगुना उठते हैं. शायरी उनके खू़न में थी. लिहाज़ा, अब उनके बेटे जावेद अख़्तर भी अपने कलाम से अदब की महफ़िल में चार चांद लगाए हुए हैं. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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ए के हंगल हिंदी सिनेमा का रौशन सितारा


फ़िरदौस ख़ान
यादगार चरित्र, सशक्त अभिनय और बेमिसाल संवाद अदायगी के लिए पहचाने जाने वाले एके हंगल फ़िल्मी दुनिया का एक ऐसा सितारा थे, जिसकी चमक से यह दुनिया बरसों तक रौशन रही. वह पहले भी कलाकारों के लिए प्रेरणा स्रोत थे और आगे भी रहेंगे. अवतार किशन हंगल यानी एके हंगल का जन्म एक फरवरी, 1917 में पाकिस्तान के स्यालकोट में कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ. जब वह चार साल के थे, तब उनकी मां का साया उनके सिर से उठ गया. उनका बचपन पेशावर में बीता. उन्होंने दर्ज़ी का काम सीखा और आजीविका के लिए इसे अपनाया भी. उनके पिता उन्हें अफ़सर बनाना चाहते थे, लेकिन अंग्रेज़ों की नौकरी करना उन्हें मंज़ूर नहीं था. वह शानदार दर्ज़ी थे. बक़ौल एके हंगल, मेरे घर पर सब अंग्रेज़ों के ज़माने के अफ़सर थे. सब चाहते थे कि मैं भी अंग्रेज़ सरकार का अफ़सर हो जाऊं. मैं स्वतंत्रता सेनानी था तो अंग्रेज़ों का ग़ुलाम कैसे बनता और उनकी नौकरी कैसे करता. मैंने सिलाई सीखी और फिर इतने अच्छे कपड़े सिलने लगा कि उस ज़माने में मुझे चार सौ रुपये मिलते थे. अपने इस काम के लिए घर में बहुत डांट खाई. उनके पिता हरिकृष्ण हंगल की सेवानिवृत्ति के बाद उनका परिवार कराची आ गया. मार्क्सवादी विचारधारा के एके हंगल देश के स्वतंत्रता संग्राम से भी जुड़े रहे और 1936 से 1947 तक उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई. वह पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) से जु़डे थे. यहां उन्होंने बलराज साहनी और कैफ़ी आज़मी के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम किया. वह 18 साल की उम्र से नाटकों में काम करने लगे थे. उन्होंने 1936 से 1947 तक रंगमंच पर अभिनय के जलवे बिखेरे.

उन्हें 1947 में जेल हो गई. कराची की जेल में दो साल बिताने के बाद 1949 में वह मुंबई आ गए. यहां उन्होंने दर्ज़ी का काम शुरू कर दिया. इसके साथ ही वह रंगमंच से भी जु़डे रहे. उनका सशक्त अभिनय देखकर लोग अकसर उनसे कहा करते कि वह फ़िल्मों में काम क्यों नहीं करते. अपनी तारी़फ़ें सुनने के बाद वह भी फ़िल्मों में अभिनय करने के बारे में सोचने लगे. एक दिन जब वह भूला भाई इंस्टीट्यूट में अपने नाटक की रिहर्सल कर रहे थे, तब बासु भट्टाचार्य ने उन्हें अपनी फ़िल्म तीसरी क़सम में काम करने की पेशकश की, जिसे उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी मंज़ूर कर लिया. फ़िल्म में उनका किरदार तो छोटा था, लेकिन उन्हें राजकपूर और वहीदा रहमान जैसे कलाकारों के साथ काम करने का मौक़ा मिल रहा था. इसलिए उन्होंने हां कर दी. इस तरह उनका फ़िल्मी करियर शुरू हुआ. इसके बाद उन्होंने एक के बाद कई फ़िल्मों में महत्वपूर्ण किरदार निभाए और अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवाया. जिस वक़्त क़रीब 50 साल की उम्र में उन्होंने फ़िल्मों में काम करना शुरू किया, अमूमन उस उम्र में लोग अपने काम से रिटायर होने लगते हैं. इसलिए उनके पास ज़्यादा विकल्प नहीं बचे थे. उन्होंने पिता, चाचा और इसी तरह अन्य बुज़ुर्गों के किरदार निभाए. उन्हें फ़िल्म शोले के रहीम चाचा के किरदार में ख़ूब पसंद किया गया. इस फ़िल्म का उनका संवाद इतना सन्नाटा क्यों है भाई बहुत मशहूर हुआ था, जो आज भी लोगों के ज़ेहन में है.

उन्होंने तक़रीबन 225 फ़िल्मों में अभिनय किया. इनमें फ़िल्म शार्गिद, धरती कहे पुकार के, सात हिंदुस्तानी, सारा आकाश, अनुभव, गुड्डी, मेरे अपने, नादान, बावर्ची, जवानी दीवानी, परिचय, अभिमान, अनामिका, चुपके-चुपके, दाग़, गरम हवा, हीरा पन्ना, जोशीला, नमक हराम, आपकी क़सम, बिदाई, दूसरी सीता, दो नंबर के अमीर, इश्क़ इश्क़ इश्क़, कोरा काग़ज़, तीन मूर्ति, उस पार, आंधी, अनोखा, दीवार, सला़खें, शोले, आज का यह घर, बालिका वधु, चित्त चोर, जीवन ज्योति, रईस, तपस्या, ज़िद, ज़िंदगी, आफ़त, आईना, आलाप, ईमान धर्म, कलाबाज़, मुक्ति, पहेली, बदलते रिश्ते, बेशर्म, देस परदेस, नौकरी, सत्यम शिवम सुंदरम, स्वर्ग नर्क, तुम्हारे लिए, अमरदीप, जुर्माना, ख़ानदान, लड़के बाप से बड़े, मंज़िल, मीरा, प्रेम बंधन, रत्नदीप, हम क़दम, हम पांच, जुदाई, काली घटा, नीयत, फिर वही रात, थोड़ी-सी बेवफ़ाई, बसेरा, कलयुग, कल हमारा है, क्रोधी, क़ुदरत, नरम गरम, बेमिसाल, दिल आख़िर दिल है, ख़ुद्दार, साथ-साथ, शौक़ीन, श्रीमान-श्रीमती, स्टार, स्वामी दादा, अवतार, नौकर बीवी का, आज का एमएलए राम अवतार, कमला, शराबी, अर्जुन, बेवफ़ाई, मेरी जंग, पिघलता आसमां, राम तेरी गंगा मैली, सागर, साहेब, सुर्ख़ियां, एक चादर मैली-सी, न्यू डेल्ही टाइम्स, डकैत, जान हथेली पे, जागो हुआ सवेरा, जलवा, मेरा यार मेरा दुश्मन, सत्यमेव जयते, आख़िरी अदालत, ख़ून भरी मांग, अभिमन्यु, इलाक़ा, पुलिस पब्लिक, दुश्मन देवता, फ़रिश्ते, अपराध, लाट साहब, मीरा का मोहन, जागृति, खलनायक, रूप की रानी चोरों का राजा, दिलवाले, क़िस्मत, लाइव टुडे, सौतेले भाई, तेरे मेरे सपने, मैं सोलह बरस की, ये आशिक़ी मेरी, ज़ोर, तक्षक, लगान, द अडॉप्टिड, शरारत, कहां हो तुम, दिल मांगे मोर, हरिओम, द प्राइम मिनिस्टर, पहेली, सब कुछ है और कुछ भी नहीं और हमसे है जहां में आदि शामिल हैं. इसके अलावा उन्होंने टेलीविजन धारावाहिकों में भी काम किया, जिनमें मधुबाला, ज़बान संभालके, होटल किंग्सटन, चंद्रकांता, डार्कनेस, मास्टरपीस थियेटर, जीवन रेखा और बॉम्बे ब्ल्यू शामिल हैं. 95 साल की उम्र में उन्होंने मनोरंजन चैनल कलर्स पर आने धारावाहिक मधुबाला के ज़रिये वापसी की. सात साल से वह पर्दे से ग़ायब थे.

आख़िरी दिनों तक वामपंथी विचारधारा से जु़डे रहने वाले एके हंगल हिंदुस्तान और पाकिस्तान के विभाजन के सख्त ख़िलाफ़ थे. वह मानते थे कि सरहद की लकीरें दिलों को नहीं बांट सकतीं. उन्होंने 1993 में मुंबई में होने वाले पाकिस्तानी डिप्लोमैटिक फंक्शन में शिरकत की, जो पाकिस्तान से आए एक प्रतिनिधिमंडल के सम्मान में आयोजित किया गया था. इसमें उनके शामिल होने की वजह से शिव सेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने उनकी फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी. शिवसेना ने उन्हें देशद्रोही तक कह डाला था. इसकी वजह से निर्माता-निर्देशक उन्हें अपनी फ़िल्मों में लेने से कतराने लगे. फ़िल्म रूप की रानी चोरों का राजा और अपराधी जैसी कई फ़िल्मों से उनके किरदार निकाल दिए गए. नतीजतन, दो साल उन्होंने बेरोज़गारी में गुज़ारे. लोगों ने उनकी फ़िल्मों पर लगी रोक का विरोध किया और फिर यह रोक हट भी गई. उन्हें फिर से फ़िल्मों में काम मिलने लगा, लेकिन आख़िरी वक़्त तक उन्हें यह बात सालती रही कि इस पाबंदी की वजह से उन्हें दो साल बेरोज़गार रहना पड़ा. वह कहते थे कि उन दिनों हुए उनके इस नुक़सान की भरपाई भला कौन कर सकता है.

उन्होंने आर्थिक तंगी में ज़िंदगी गुज़ारी. उनके पास आमदनी का कोई ज़रिया नहीं था. उनके इकलौते बेटे विजय हंगल भी 70 साल से ज़्यादा उम्र के हैं. वह बॉलीवुड में फोटोग्राफर और कैमरामैन रहे हैं. उन्हें भी पीठ की बीमारी की वजह से काम छोड़ना पड़ा. 1994 में उनकी पत्नी का निधन हो गया था. उनकी कोई औलाद भी नहीं है. ऐसे में एके हंगल और उनके बेटे विजय हंगल का कोई सहारा नहीं था. मगर स्वाभिमानी एके हंगल और उनके बेटे ने किसी से मदद नहीं मांगी. पिछले साल ही यह बात सामने आई कि आर्थिक तंगी की वजह से वे अपना इलाज तक नहीं करा पा रहे हैं. उनकी ख़ुद्दारी को देखते हुए फैशन डिजाइनर रियाज़ गंजी ने 8 फ़रवरी, 2011 को आयोजित फैशन शो में एके हंगल को व्हीलचेयर पर ही रैम्प पर उतारा. इस शो के लिए उन्हें 50 हज़ार रुपये दिए गए. यह उनकी ख़ुद्दारी ही थी कि उन्होंने अपनी उम्र के आख़िरी दिनों तक बीमारी की हालत में भी काम किया. उन्होंने बीते मई माह में टेलीविज़न धारावाहिक मधुबाला में काम किया. इस उम्र में काम करने के एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, मैं मानता हूं कि काम करने की उम्र की कोई सीमा नहीं होती.

सादगी प्रिय एके हंगल का कहना था कि मैं हर किसी से सीखना चाहता हूं. जब मैं डायलॉग बोलता हूं तो लाइनें रटकर नहीं, बल्कि उसे समझकर बोलता हूं, शायद इसलिए मेरा किरदार इतना मौलिक लगता है. जब कोई किरदार निभाता हूं तो उसकी पूरी खोज करता हूं कि कौन सा मज़हब है, कौन से गांव का है, कब की कहानी है, क्या संस्कार हैं वग़ैरह. शायद इसलिए मेरी अदाकारी में दिखावटीपन नहीं होता है.

उनके चाहने वालों की कभी कमी नहीं रही. उनके प्रशंसक हमेशा उन्हें पत्र लिखते रहे. वह कहते थे कि मेरे काम को लेकर आज भी मुझे चिट्ठियां आती हैं. इस उम्र में भी लोग मुझे पूछते हैं, जानकर बहुत अच्छा लगता है. एक कलाकार के लिए इससे बड़ी ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है कि उसके प्रशंसक हमेशा उसके साथ हैं.

उन्हें शास्त्रीय संगीत बहुत पसंद था. कई साल उन्होंने संगीत को समर्पित कर दिए थे. लेकिन ज़िंदगी की आपाधापी में उनका रियाज़ छूट गया और वह अभिनय के होकर ही रह गए. उन्हें ठुमरी और ग़ज़ल बेहद पसंद थीं. जब भी व़क्त मिलता वह अपना यह शौक़ पूरा जरूर करते. उनका कहना था कि इससे उनके मन को रूहानी सुकून मिलता है.

बीते 13 अगस्त को बाथरूम में गिर जाने की वजह से उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई थी और री़ढ की हड्डी में भी चोट आई थी. इलाज के लिए उन्हें मुंबई के आशा पारेख अस्पताल में दाखिल कराया गया था. इलाज के दौरान उनकी हालत बिगड़ने पर उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया था. उनका एक फेफड़ा काम नहीं कर रहा था. इसकी वजह से उन्हें सांस लेने में भी परेशानी हो रही थी. 26 अगस्त, 2012 को मुंबई में उनका निधन हो गया.

हिंदी सिनेमा में यादगार भूमिकाओं के लिए उन्हें 2006 में पद्मभूषण से नवाज़ा गया. उन्हें सम्मान की नज़र से देखा जाता है. अभिनेता धर्मेंद्र के मुताबिक़, पूरी फ़िल्मी दुनिया हंगल साहब की बहुत इज्ज़त करती है. वह जिस सेट पर जाते थे, बड़े से बड़ा कलाकार भी उनके सम्मान में खड़ा हो जाता था. उन्होंने अपनी आत्मकथा लाइफ एंड टाइम्स ऑफ एके हंगल लिखी. इसमें उन्होंने अपनी ज़िंदगी के सफ़र को बख़ूबी पेश किया है. इसमें उनके खट्टे-मीठे अनुभव हैं. कहीं ज़िंदगी के ख़ुशनुमा लम्हों का ज़िक्र है, तो कई पन्ने उनके आंसुओं से भीगे हुए हैं. उनके प्रशंसकों के लिए यह एक बेहतरीन किताब है. बेशक, आज एके हंगल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी यादगार भूमिकाओं के ज़रिये वह हमेशा याद किए जाएंगे और अभिनय के आसमान में तारा बनके चमकते रहेंगे. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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