पुस्तक समीक्षा : स्मृतियों में रूस



-फ़िरदौस ख़ान
हमेशा से हमारे मन में रूस के लिए एक विशेष आकर्षण रहा है. बचपन में रूस की परियों, राजकुमारियों, राजकुमारों और ज़ार (राजा) की  कहानियां पढ़ा करते थे, उम्र बढ़ने के साथ-साथ रूसी साहित्य के लिए दिलचस्पी भी बढ़ती गई. हालत यह हो गई कि घर की लाइब्रेरी में रूसी साहित्य की किताबें ज़्यादा नज़र आने लगीं. कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. रूसी साहित्य से वहां की सभ्यता और संस्कृति को जानने का मौक़ा मिला. लेनिन पुरस्कार विजेता लोक कवि रसूल हमज़ातोव की किताब 'मेरा दागिस्तान' तो कास्पियन सागर के पास काकेशिया के पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दागिस्तान के पहाड़ी गांवों में ले जाती है. जब शिखा वार्ष्णेय की किताब 'स्मृतियों में रूस' हाथ में आई तो हम भूख-प्यास सब भूलकर किताब में खो गए और देर रात तक इसे पढ़ते रहे. इस किताब के ज़रिये हमें एक ऐसी लड़की के नज़रिए से रूस को जानने का मौक़ा मिला, जो पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए अकेली घर से निकलती है और फिर परदेस में कई परेशानियों का सामना करते हुए अपनी मंज़िल को हासिल करती है. लेखिका के संस्मरण इतने जीवंत हैं कि वे पढ़ने वाले को उस वक़्त में ले जाकर खड़ा कर देते हैं, जब ये सब घटनाएं घट रही थीं.

बक़ौल शिखा वार्ष्णेय, इस अनोखे देश में बहुत से आश्चर्यजनक अनुभव हुए. एक नई संस्कृति और समाज के अलावा जीवन को बहुत क़रीब से जानने का अवसर मिला. नए दृष्टिकोण और नई परिस्थितियों से गुज़रकर जीवन के कई रंगों से रूबरू होने का मौक़ा भी मिला, जिन्हें पूरी तरह शब्दों में ढालना तो संभव नहीं, परंतु उन अनमोल पलों को सहेजकर इस पुस्तक के माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत करने की एक छोटी सी कोशिश मैंने ज़रूर की है. 1990 से 1996 तक का समय शायद सबसे महवपूर्ण समय था रूस और बाक़ी दुनिया के लिए, जिसे मैंने अपनी दृष्टि से देखा, अनुभव किया और समझा. उसे उसी तरह से आपको दिखाना चाहती हूं. इस पुस्तक के सभी वर्णन, घटनाएं और वक्तव्य पूरी तरह मेरे निजी अनुभवों और विचारों पर आधारित हैं. उस समय के परी लोक को अपनी दृष्टि से आपको दिखाने का एक प्रयास मात्र है यह पुस्तक, जिसका एक-एक शब्द मैंने अनुभूति की स्याही में अपनी स्मृति की क़लम को डुबो-डुबोकर लिखने का प्रयास किया है. देखिये उस समय का रूस मेरी नज़र से.    

प्रसिद्ध लेखक डॉ. विवेकी  राय कहते हैं, यह पुस्तक साहित्य की संस्मरण विधा का समुचित और सार्थक उदहारण है. सोवियत संघ हमारे देश के अनन्य मित्र देश और संकटमोचक की भूमिका में हमेशा उपयुक्त रहा है. लेखिका का सोवियत प्रवास और उनके खट्टे-मीठे अनुभव रूपी संस्मरण रोचकता की लहरों पर सवार होकर पाठकों के हृदय में स्थान बना लेगा, ऐसा मेरा विश्वास है. जन सामान्य भाषा में लिखी गई यह पुस्तक सोवियत देश के सामाजिक, आर्थिक ताने-बाने पर भी एक दृष्टिकोण देने में सफ़ल है. घुमक्कड़ प्रवृति हमेशा से समाज को नए आयाम देती रही है.

वहीं दिव्या माथुर का कहना है कि शिखा की कृति 'स्मृतियों में रूस' पढ़ना एक सुखद अनुभव है. इस पुस्तक में शिखा ने छोटी-बड़ी सभी तरह की घटनाओं का वर्णन अपने संस्मरण और बदलते मूड के अनुसार किया है. उन्होंने बड़ी निपुणता से अपने वेरोनिश पहुंचने की घटना की भयावहता का स्पष्ट वर्णन किया है. हर छोटी घटना के वर्णन में उनकी भाषा सरस और कौतुहल उत्पन्न करने वाली है. घटनाओं का वर्णन, शांत, गतिमान, सत्य और दिखावारहित है.

रोचकता से लबरेज़ इस किताब के आख़िर में लेखिका ने अपनी स्मृतियों को एक कविता के रूप में पेश किया है, जिसे पढ़ना अच्छा लगता है.
यादों की सतह पर चढ़ गई हैं
वक़्त की कितनी ही परतें 
फिर भी कहीं न कहीं से निकलकर 
दस्तक दे जाती हैं यादें 
और मैं मजबूर हो जाती हूं
खोलने को कपाट मन के
फिर निकल पड़ते हैं उदगार
और बिखर जाते हैं काग़ज़ पे 
सच है
गुज़रा वक़्त लौट कर नहीं आता 
पर क्या कभी भूला भी जाता है
कहीं किसी मोड़ पर मिल ही जाता है

बहरहाल, लेखिका की पहली किताब होने के लिहाज़ से यह उनकी लेखन यात्रा पहला पड़ाव है, उन्हें अभी लंबा सफ़र तय करना है. अपने इस सफ़र में वह नए कीर्तिमान स्थापित करें, यही कामना है.  

पुस्तक : स्मृतियों में रूस
लेखिका : शिखा वार्ष्णेय
प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली
मूल्य : 300 रूपये

स्टार न्यूज़ एजेंसी 
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नये रास्तों की तलाश

फ़िरदौस ख़ान
राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित लावा सुप्रतिष्ठित ग़ज़लकार, पटकथाकार जावेद अख़्तर का दूसरा ग़ज़ल और नज़्म संग्रह है. उनका पहला ग़ज़ल संग्रह तरकश 1995 में प्रकाशित हुआ था. क़रीब डेढ़ दशक से ज़्यादा अरसे बाद दूसरा संग्रह आने पर जावेद कहते हैं, अगर मेरी सुस्ती और आलस्य को नज़र अंदाज़ कर दिया जाए, तो इस देर की एक वजह बताई जा सकती है कि मेरे ख़्याल में एक के बाद दूसरे संग्रहों का अंबार लगा देना अपने अंदर कोई कारनामा नहीं है. मैं समझता हूं कि अगर अंबार लगे तो नए-नए विचारों का. जिस विचार को रचना का रूप मिल चुका हो, जिस विचार को अभिव्यक्ति मिल चुकी हो, उसे अगर किसी कारण कहने की ज़रूरत महसूस भी हो रही हो, तो कम से कम कथन शैली में ही कोई नवीनता, कोई विशिष्टता हो, वरना पाठक और श्रोता को बिना वजह तकलीफ़ क्यों दी जाए. अगर नवीनता सिर्फ़ नयेपन के लिए है तो कोई लाख समझे कि उसकी शायरी में सुर्ख़ाब के पर लग गए हैं, मगर उन परों में उड़ने की ताक़त नहीं हो सकती. बात तो जब है कि अ़क्ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उसे तन्हा छोड़ दिया गया है. मैं जानता हूं कि इसमें असंगति है, मगर बेखु़दी-ओ-शायरी, सादगी-ओ-पुरकारी, ये सब एक साथ दरकार हैं. वह कहते हैं, दरअसल, शायरी बुद्धि और मन का मिश्रण, विचार और भावनाओं का समन्वय मांगती है. मैंने सच्चे दिल से यही कोशिश की है कि मैं शायरी की यह फ़रमाईश पूरी कर सकूं. शायद इसलिए देर लग गई. फिर भी कौन जाने यह फ़रमाईश किस हद तक पूरी हो सकी है.

लावा के बारे में यह कहना क़तई ग़लत नहीं होगा कि देर आयद, दुरुस्त आयद. बेशक जावेद साहब अपने चाहने वालों की फ़रमाईश पूरी करने में खरे उतरे हैं. अपनी शायरी के बारे में वह कहते हैं, मैं जो सोचता हूं, वही लिखता हूं-
जिधर जाते हैं सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ायदे इसमें, मगर अच्छा नहीं लगता
मुझे दुश्मन से भी खुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर, क़दमों में अच्छा नहीं लगता...

17 जनवरी, 1945 को ग्वालियर में जन्मे जावेद अख़्तर के पिता जांनिसार अख़्तर प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर थे. उनकी मां सफ़िया मशहूर उर्दू लेखिका एवं शिक्षिका थीं. जावेद मशहूर शायर असरारुल हक़ मजाज़ के भांजे हैं. उनके ससुर कै़फ़ी आज़मी भी मशहूर शायर थे. जावेद की शायरी में भी वही तेवर नज़र आते हैं, जो उनके पिता के कलाम की जान रहे हैं. वह कहते हैं-
खू़न से सींची है मैंने जो ज़मीं मर-मर के
वो ज़मीं, एक सितमगर ने कहा, उसकी है
उसने ही इसको उजाड़ा है, इसे लूटा है
ये ज़मीं उसकी अगर है भी तो क्या उसकी है?

उनकी पंद्रह अगस्त नामक नज़्म 15 अगस्त, 2007 को संसद भवन में उसी जगह सुनाई गई थी, जहां से 15 अगस्त, 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुल्क की आज़ादी का ऐलान किया था.
यही जगह थी, यही दिन था और यही लम्हात
यहीं तो देखा था इक ख़्वाब, सोची थी इक बात
मुसाफ़िरों के दिलों में ख़्याल आता है
हर इक ज़मीर के आगे सवाल आता है

जावेद अख़्तर इस बात पर खु़शी का इज़हार करते हैं कि आज के दौर में भी शायरी की समाज में बहुत अहमियत है, जबकि लोगों को अपने रिश्तेदारों से मिलने तक का व़क्त नहीं मिल पाता. अपनी भागदौड़ की ज़िंदगी में भी लोग शायरी और अदब के लिए वक़्त निकालते हैं.

इंसान में सच कहने के साथ ही सच को क़ुबूल करने की भी क़ूवत होनी चाहिए. यह जज़्बा जावेद की शायरी में नज़र आता है. उनकी नज़्म एतेराफ़ यानी स्वीकारोक्ति इसी जज़्बे को बयां करती है-
सच तो ये है क़ुसूर अपना है
चांद को छूने की तमन्ना की
आसमां को ज़मीन पर मांगा
फूल चाहा कि पत्थरों पे खिले
कांटों में की तलाश खु़शबू की
आग से मांगते रहे ठंडक
ख़्वाब जो देखा
चाहा सच हो जाए
इसकी हमको सज़ा तो मिलनी थी...

उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने बीती 26 फ़रवरी को दिल्ली के इंडिया हेबिटेट सेंटर में लावा का लोकार्पण किया. बक़ौल अंसारी, जावेद अख़्तर की ग़ज़लें और नज़्में लावा शब्द के अर्थों पर पूरी तरह मुकम्मल उतरती हैं. साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष गोपीचंद नारंग का कहना था कि जावेद की ज़िंदगी की जद्दोजहद ही लावा की शायरी में बदल कर आ गई है. इस मौक़े पर शबाना आज़मी, ज़ोया अख़्तर और फ़रहान अख़्तर भी मौजूद थे.

जावेद अख़्तर ने यह किताब अपने एक दोस्त को समर्पित की है. उन्होंने लिखा, यह किताब उन तस्वीरों, गीतों और यादों के नाम, जिन्हें मेरा दोस्त फ़रहान मुजीब अपने पीछे छोड़ गया है. किताब में पहले एक नज़्म, उसके बाद एक ग़ज़ल दी गई है. ग़ज़ल के बाद ख़ाली जगह में एक शेअर दिया गया है. यह किताब उम्दा नज़्मों और ग़ज़लों का एक ऐसा संग्रह है, जिसे बार-बार पढ़ने को जी चाहेगा.
हमको तो बस तलाश नए रास्तों की है
हम हैं मुसाफ़िर ऐसे, जो मंज़िल से आए हैं

वासना आदि नकारात्मक भावों से मुक्त कर देते हैं तो आपके हृदय के भीतर सच्चे प्रेम के अंकुर विकसित होते हैं. जब आप इन भावों को मिटा देते हैं तो आपके भीतर ब्रह्मांड के सकारात्मक प्रवाह को समा लेने का स्थान बन जाता है. यह अच्छे कर्मों और क्षमादान के अभ्यास से ही संभव है. प्रेम की शक्ति अपने साथ सत्यता, सौंदर्य, ऊर्जा, ज्ञान, स्वतंत्रता, अच्छाई और प्रसन्नता का वरदान लाती है. जब चारों ओर प्रेम होता है तो नकारात्मक प्रभाव भी क्षीण हो जाते हैं. प्रेम की सकारात्मक तरंगें नकारात्मकता को मिटा देती हैं. जब आप तुलना छोड़कर स्वयं को सृजन चक्र से जोड़ देते हैं तो आपके हृदय में बसी प्रेम की शक्ति में निखार आता है. मदर टेरेसा ने कहा था, हम इसी उद्देश्य के लिए जन्मे हैं, प्रेम करने और पाने के लिए.

प्रेम रचनात्मक विचारों के प्रति केंद्रित होने में सहायक होता है, हमें अपने लक्ष्यों पर भरोसा बनाए रखने में सहायक होता है, हमारी कल्पना एवं आंतरिक शक्ति में वृद्धि करता है. यह एक रचनात्मक और निरंतर बनी रहने वाली ऊर्जा है और आकाश के तारों की तरह अनंत है. प्रेम में चुंबकीय और चमत्कारी शक्तियां हैं और ये पदार्थ और ऊर्जा से परे हैं. एक बेहद रोचक कहानी है. एक निर्धन लड़का अपनी शिक्षा का खर्च चलाने के लिए घर-घर जाकर वस्त्र बेचता था. एक दिन उसे एहसास हुआ कि उसकी जेब में केवल दस सेंट बचे हैं. वह भूखा था, उसने तय किया कि वह अगले घर से थोड़ा भोजन मांगेगा. जब उसने एक ़खूबसूरत युवती को घर का दरवाज़ा खोलते देखा तो उसकी भूख मर गई. वह भोजन की बजाय एक गिलास पानी मांग बैठा. युवती ने उसे पानी की बजाय दूध ला दिया. लड़के ने दूध पीने के बाद पूछा, इसके लिए कितना देना होगा? जवाब मिला, तुम्हें कुछ नहीं देना होगा, मेरी मां ने सिखाया है कि किसी की भलाई करने के बाद उससे अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. लड़का बोला, मैं आपको दिल से धन्यवाद देता हूं. कई वर्षों बाद वह महिला बीमार हो गई. स्थानीय डॉक्टरों ने उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया, ताकि वहां के विशेषज्ञ उसकी खोई सेहत लौटा सकें. वहां डॉ. हावर्ड कैली कंसल्टेट थे. जब उन्होंने महिला के शहर का नाम सुना तो स्वयं वहां पहुंच गए. उन्होंने झट से उस दयालु महिला को पहचान लिया और उसकी प्राण रक्षा का संकल्प लिया. वह पहले दिन से ही उस मामले पर विशेष ध्यान देने लगे और वह महिला स्वस्थ हो गई. उन्होंने निर्देश दे रखे थे कि महिला का बिल उन्हें ही दिया जाए. उन्होंने बिल देखा और उसके कोने पर कुछ लिखकर महिला के कमरे में भेज दिया. महिला को लगा कि उसे आजीवन वह भारी बिल अदा करना होगा, पर बिल के कोने में लिखा था, एक गिलास दूध के बदले में दिया गया: डॉ. हावर्ड कैली.

दरअसल, प्रेम आपके भीतर विनय भाव पैदा करता है. क्षमा करना आत्मा का सौंदर्य है, जिसे प्राय: नकार दिया जाता है. हो सकता है कि कई बार दूसरे आपके कष्ट का कारण बनें. आप स्वयं को आहत और क्रोधित पाएंगे. ऐसे में आपको इसे भूलना सीखना होगा. किसी को क्षमा करते ही आपके मन को भी चैन आ जाएगा. आप भी अतीत के घावों से मुक्त होंगे और समय सारे कष्ट सोख लेगा. यहां आपका मा़फ करने और भुला देने का निर्णय अधिक महत्व रखता है. बक़ौल मैक्स लुकाडो, क्षमा देने का अर्थ है, किसी को मुक्त करने के लिए द्वार खोलना और स्वयं को एक मनुष्य के रूप में एहसास दिलाना.जब आप स्वयं तथा दूसरों से सच्चा प्रेम करते हैं तो पाएंगे कि पूरा संसार आपसे प्रेम करने लगा है. लोग धीरे-धीरे आपको चाहने लगेंगे. यदि लोग परस्पर ईमानदारी और प्रेम से बात करें तो सभी संघर्षों का समाधान हो सकता है. जब आप प्रत्येक समस्या का सामना प्रेम से करेंगे तो आपका कोई शत्रु नहीं होगा. लोग आपको एक नई नज़र से देखेंगे, क्योंकि उनके विचार अलग होंगे और वे आपके बारे में पहले से एक प्रभाव बना चुके होंगे. बक़ौल गोथे फॉस्ट, एक मनुष्य संसार में वही देखता है, जो उसके हृदय में होता है. एक सदी पहले तक लोग बिना किसी पासपोर्ट या वीजा, बिना किसी पाबंदी के पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकते थे. राष्ट्रीय सीमाओं का पता तक नहीं था. दो विश्व युद्धों के बाद कई राष्ट्र स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे, पहचान का संकट उभरा और कई संकीर्ण राष्ट्रवादी भावनाएं सामने आ गईं. ये भावनाएं इतनी मज़बूत थीं कि बच्चों को अपने ही देश की सभ्यता और परंपरा पर गर्व करना सिखाया जाने लगा और देशभक्ति का विचार पनपा. इसने पूरी दुनिया के धनी और निर्धनों की खाई को गहरा कर दिया. बक़ौल मोकीची ओकादा, यदि आप संसार से प्रेम करेंगे और लोगों की सहायता करेंगे तो आप जहां भी जाएंगे, ईश्वर आपकी सहायता करेंगे. किताब बताती है कि इंसान के अंदर ही वह शक्ति छिपी हुई है, जिसे पहचान कर वह अपने जीवन में बेहतरीन बदलाव ला सकता है.
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