हिन्दू शायर ने लिखा था पाक का क़ौमी तराना


फ़िरदौस ख़ान
पाकिस्तान में इन दिनों वहां के पहले क़ौमी तराने (राष्ट्रगान) बहस का मुद्दा बना हुआ है. पाक के अंग्रेजी अखबार ‘डान’ में सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका बीना सरवर ने इस बारे में लिखा है, ‘जिन्ना के विचारों से पीछा छुड़ाने की सोच के तहत ही आज़ाद की नज़्म को तुच्छ मान लिया गया था, लेकिन अपने प्रतीकों की वजह से वह नज़्म क़ाबिले-गौर है. इसे फिर से स्थापित किया जाए और कम से कम राष्ट्रीय गीत का दर्जा देकर सम्मान दिया जाए, ताकि हमारे बच्चे इससे सीख सकें. क्योंकि भारतीय बच्चे इक़बाल की कृति... सारे जहां से अच्छा... से सीख रहे हैं.’

ग़ौरतलब है कि 1950 में हाफ़िज़ जालंधरी की नज़्म को क़ौमी तराने का दर्जा देने से पहले जिस शायर को यह सम्मान दिया गया था उनका नाम था जगन्नाथ आज़ाद. पाकिस्तान के क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्नाह ने लाहौर में रहने वाले उर्दू के शायर तिलोक चंद के बेटे जगन्नाथ आज़ाद को 1947 में देश के रूप में अलग होने से कुछ ही दिनों पहले पाकिस्तान का राष्ट्रगान लिखने का ज़िम्मा सौंपा था.

नया देश बनने के साथ ही देश के लिए विभिन्न चिन्ह और प्रतीक चुनने का काम भी शुरू हुआ. देश का झंडा पहले ही तैयार हो चुका था, लेकिन क़ौमी तराना नहीं बना था. आज़ादी के वक़्त पाकिस्तान के पास कोई क़ौमी तराना नहीं था. इसलिए जब भी परचम फहराया जाता तो " पाकिस्तान ज़िन्दाबाद, आज़ादी पैन्दाबाद" के नारे लगते थे.

क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्नाह को यह मंज़ूर नही था. वे चाहते थे कि पाकिस्तान के क़ौमी तराने को रचने का काम जल्द से जल्द पूरा हो. उनके सलाहकारों ने उन्हें कई जानेमाने उर्दू शायरों के नामों पर गौर करने को कहा, लेकिन जो बेहतरीन क़ौमी तराना रच सकते थे, लेकिन जिन्नाह दुनिया के सामने पाकिस्तान की धर्मनिरपेक्ष छवि स्थापित करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने लाहौर के उर्दू शायर जगन्नाथ आज़ाद से कहा ''मैं आपको पांच दिन का ही वक़्त दे सकता हूं, आप पाकिस्तान के लिए क़ौमी तराना लिखें". हालांकि पाकिस्तान के कई नेताओं को इससे जिन्नाह का यह क़दम अच्छा नहीं लगा, लेकिन जिन्नाह की मर्ज़ी के सामने किसी का नहीं चली. वे बेबस थे.

आखिरकार जगन्नाथ आज़ाद ने पांच दिनों के अंदर क़ौमी तराना तैयार कर लिया जो जिन्नाह को बहुत पसंद आया. क़ौमी तराना के बोल थे-

ऐ सरज़मीं ए पाक ज़र्रे तेरे हैं आज सितारों से तबनक रोशन है कहकशां से कहीं आज तेरी खाक़...

जिन्नाह ने इसे क़ौमी तराने के रूप मे मान्यता दी और उनकी मौत तक यही गीत क़ौमी तराना बना रहा. सितंबर 1948 में जिन्ना की मौत के महज़ छह माह बाद ही इस क़ौमी तराने की मान्यता भी ख़त्म कर दी गई. किस्तान सरकार ने एक राष्ट्र-गीत कमेटी बनाई और जाने माने शायरों से क़ौमी तराने के नमूने मंगवाए, लेकिन कोई भी गीत क़ौमी तराने के लायक़ नहीं बन पा रहा था. आखिरकार पाकिस्तान सरकार ने 1950 मे अहमद चागला द्वारा रचित धुन को राष्ट्रीय धुन के तौर पर मान्यता दी. उसी वक़्त ईरान के शाह पाकिस्तान की यात्रा पर आए और उन्हें यह धुन बेहद पसंद आई. यह धुन पाश्चात्य ज़्यादा लगती थी, लेकिन राष्ट्र-गीत कमेटी का मानना था कि इसका यह स्वरूप पाश्चात्य समाज में ज़्यादा पसंद किया जाएगा.

सन 1954 में उर्दू के मशहूर शायर हाफ़िज़ जालंधरी ने इस धुन के आधार पर एक गीत की रचना की. यह गीत राष्ट्र-गीत कमेटी के सदस्यों को पसंद भी आया. और आखिरकार हाफ़िज़ जालंधरी का लिखा गीत पाकिस्तान का क़ौमी तराना बन गया. इस क़ौमी तराने के बोल हैं-

पाक सरज़मी शाद बाद, किश्वरे हसीँ शाद बाद, तु निशाने अज़्मे आलीशान अर्ज़े पाकिस्तान मर्कज़े हसीं शाद बाद...
हाफ़िज़ जालंधरी के इस क़ौमी तराने के बाद जगन्नाथ आज़ाद का गीत भुला दिया गया. बाद में जगन्नाथ आज़ाद बाद में भारत चले आए थे.

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हीरे की लौंग


ईद मिलादुन नबी और क्रिसमस साथ-साथ... ईद मिलादुन नबी हमारे लिए ज़ाती तौर पर भी बहुत ख़ास है... इस दिन उन्होंने हमें हीरे की लौंग दी थी... वो जानते हैं कि हमें लौंग बहुत पसंद है और हमारे पास बहुत-सी लौंगें रहती हैं... अगर लौंग गुम हो जाए, तो हम फ़ौरन दूसरी पहन लेते हैं... दो दिन पहले रात को उनकी दी हुई हीरे की लौंग हमसे खो गई... मन उदास हो गया... हम इसलिए उदास हुए हों कि वो लौंग हीरे की थी, क़ीमती थी, ऐसा नहीं था... सबसे बड़ी बात थी कि वो लौंग उन्होंने हमें दी थी... ख़ुदा का शुक्र है कि अगले दिन सुबह लौंग हमें मिल गई... उसे पाकर ऐसा लगा, न जाने हमने क्या पा लिया हो...
क्रिसमस तो है ही हमारा पसंदीदा त्यौहार... दोनों ही दिनों की ख़ास तैयारियां करनी हैं... क्रिसमस के दिन चर्च में बहुत से आशना मिल जाते हैं... बाज़ार में क्रिसमस की चीज़ों की रौनक़ है... आज बाज़ार भी जाना है...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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रिश्ते सर के बालों की तरह हुआ करते हैं


रिश्ते सर के बालों की तरह हुआ करते हैं... जब तक वो सर पर रहते हैं... आप उनकी देखभाल करते हैं, उन्हें सजाते-संवारते हैं... लेकिन जैसे ही वो सर से उतरे उनकी फ़िक्र भी ख़त्म हो जाती है... वो उड़कर कहां जाते हैं, कहां नहीं... आप उसके बारे में कभी सोचते तक नहीं...
क्या किसी ने कभी उन बालों के बारे में सोचा है, जो उसके सर से उतर चुके हों...?
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नींदें


नींदें
आंखों से
कोसों दूर
न जाने
किस वीराने में
भटकती फिरती हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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मौत के क़रीब...


फ़िरदौस ख़ान
हमने अपनी ज़िन्दगी में कई बार मौत को बहुत क़रीब से देखा है... उन लम्हों में ज़ेहन काम करना बंद कर देता था, क्योंकि सोचने का वक़्त भी नहीं होता था, लेकिन अगले ही लम्हे में हम ज़िन्दगी में होते थे... एक बार की बात है, हम दफ़्तर से लौट रहे थे... रात के क़रीब तीन बजे थे... ड्राइवर ने घबराते हुए हमें बताया कि कार के ब्रेक फ़ेल हो गए हैं और स्टेयरिंग भी काम नहीं कर रहा है... जिस वक़्त उसने ये बात बताई, उस वक़्त कार टी प्वाइंट के क़रीब थी... हमें दाहिने मुड़ना था... अब कार न तो मुड़ सकती थी और न ही रुक सकती थी... सिर्फ़ सामने की दीवार से टकरा कर चकनाचूर हो सकती थी... उसे भी इस बात का अहसास था और हमें भी... ड्राइवर ने आंखें बंद करते हुए कहा- मैम अब तो गए...
हमारी आंखों के सामने उस सर्द अंधेरी रात में स्ट्रीट लाइट की रौशनी में चमकती वो दीवार थी, जिससे गाड़ी को टकरा जाना था... अचानक आंखों के सामने धुंध छा गई... और गाड़ी एक ज़ोर के झटके के साथ रुक गई... हमने देखा कि कार हमारे घर के पास एक ख़ाली पड़े प्लॊट में लगे रेत के ढेर में घुस चुकी थी... हमने चिल्लाए- बच गए... ड्राइवर ने आंखें खोलीं... कड़ाके की ठंड के बावजूद वो पसीने से तरबतर था...
हम गाड़ी से उतरे... इतने में पापा भी आ गए और उन्होंने ड्राइवर को अंदर बुला लिया... हमने सारा वाक़िया सुनाया... अम्मी ने अल्लाह का शुक्र अदा किया...
ड्राइवर जब ज़रा संभल गया, तो उसने फ़ोन करके दूसरी गाड़ी मंगवाई... सुबह को मैकेनिक भी आ गया और उसने बताया कि गाड़ी के ब्रेक फ़ेल हैं और स्टेयरिंग भी काम नहीं कर रहा है... ड्राइवर के साथ-साथ मैकेनिक भी इस बात पर हैरान था कि कार रेत के ढेर तक कैसे पहुंची...?
हम आज तक ये नहीं समझ पाए कि जब स्टेयरिंग काम नहीं कर रहा था, तो वो कार घर तक कैसे पहुंची... क्योंकि घर तक तक आने के लिए गाड़ी को दो बार मुड़ना था.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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तारीख़ें


तारीख़ें... ये तारीख़ें ही तो हैं, जिन्हें हम याद रखना चाहते हैं... जिन्हें संजो लेना चाहते हैं, हमेशा के लिए... ये तारीख़ें, जो हमारे लिए बहुत ख़ास हैं... क्योंकि ये वही तारीख़ें हैं, जब हमारी ज़िन्दगी में कोई आया था... साल गुज़रते रहते हैं, साल-दर-साल... मगर ये तारीख़ें वही ठहरी रहती हैं, ये कभी नहीं बदलतीं... उन्हीं ख़ुशियों के साथ, जब इन्हें जिया गया था...
कुछ तारीख़ें, ऐसी भी हैं, जो आंसुओं से भीगी हैं... क्योंकि इनमें किसी अपने से बिछड़ने का दर्द समाया हुआ है... जिन्हें हम चाहकर भी बदल नहीं सकते... मिटा नहीं सकते...
ये तारीख़ें, जो कभी नहीं बदलेंगी... ये हमारी ख़ुशियों, हमारे ग़मों के साथ हमेशा वाबस्ता रहेंगी...
-फ़िरदौस ख़ान
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हम जिएंगे और मरेंगे, ऐ वतन तेरे लिए


हमारा हिन्दुस्तान एक ऐसा मुअज़िज़ मुल्क है, जहां हर शख़्स को अपनी अक़ीदत के मुताबिक़ इबादत करने की इजाज़त है... लोग अपने अक़ीदे के साथ मंदिर में पूजा कर सकते हैं, मस्जिद में नमाज़ पढ़ सकते हैं, चर्च में प्रार्थना कर सकते हैं, गुरुद्वारा में मथ्था टेक सकते हैं... यानी अपने-अपने अक़ीदे के हिसाब से ज़िन्दगी बसर कर सकते हैं... वो चाहें, तो अपना मज़हब  छोड़कर कोई और मज़हब अपना सकते हैं... या नास्तिक भी बने रह सकते हैं... किसी के साथ कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं... उनका आस्तिक होना या न होना, उनकी अपनी मर्ज़ी पर निर्भर करता है...
यहां मौत का डरावा देकर किसी को कोई ख़ास मज़हब मानने पर मजबूर नहीं किया जाता और न ही मज़हब छोड़ने पर उसका बेरहमी से क़त्ल किया जाता है...
हमारा हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे प्यारा मुल्क है... हमें अपने मुल्क पर नाज़ है... हमारी अक़ीदत इसी मुल्क की मिट्टी से वाबस्ता है, जो हमारा जन्मभूमि है... यहां की मिट्टी से हमारा वही रिश्ता है, जो एक बच्चे का अपनी मां के साथ होता है...
दिल दिया है जान भी देंगे, ऐ वतन तेरे लिए
हम जिएंगे और मरेंगे, ऐ वतन तेरे लिए...
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एक कप चाय...


बात उन दिनों की है, जब हम दसवीं में पढ़ रहे थे... इम्तिहान नज़दीक थे... इसलिए सुबह चार बजे उठकर पढ़ा करते थे... घर दो मंज़िला और काफ़ी बड़ा था... एक कमरा और एक रसोई किराये पर दे दी थी... किरायेदार एक विधवा महिला थीं... नाम था संतो देवी... उनके दो बच्चे उनके साथ रहते थे और एक बड़ा दस साल का बेटा उनके जेठ के पास रहता था... हम उन्हें आंटी कहा करते थे... वह किसी गांव में सरकारी स्कूल में चपरासी थीं... यह नौकरी उन्हें उनके पति की मौत के बाद मिली थी... पहले उनके पति इस पद पर कार्यरत थे... गांव काफ़ी दूर था... उन्हें बस से जाना होता था... इसलिए वह सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाया करती थीं और बच्चों के लिए दोपहर का खाना बनाकर रख दिया करती थीं...
उनके घर गौशाला से गाय का दूध आता था... आंटी हमें पढ़ते हुए देखतीं, तो एक कप चाय हमारी मेज़ पर रख जाया करती थीं... कहती कुछ नहीं थीं... क्योंकि वह कभी पढ़ते वक़्त हमें टोकती नहीं थीं... हमें गाय का दूध कभी अच्छा नहीं लगा... हालांकि गाय का दूध बहुत फ़ायदेमंद होता है... आंटी की चाय क्या होती थी, निरा दूध ही होता था चाय पत्ती डला हुआ... हम लिहाज़ में चाय पी लेते... सोचते कि वो इतने प्यार से लाई हैं, क्यों मना करके उनका दिल दुखाएं... रफ़्ता-रफ़्ता हमें गाय के दूध की चाय की आदत पड़ गई... यह सिलसिला काफ़ी वक़्त तक चला... बाद में हमने दूसरा घर ले लिया और आंटी भी कहीं और चली गईं... आज भी जब कभी चाय का ज़िक्र होता है, तो गाय के दूध की चाय याद आ जाती है... और आंटी का स्नेह भी... 
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हमारा ख़ुदा...


हम उस ख़ुदा को मानते हैं, जिसने ये कायनात बनाई है... जो सारे आलम का मालिक और पालनहार है... जो अपने बन्दों से लिंग, मज़हब या ज़ात की बुनियाद पर किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं करता... जिसके लिए मर्द और औरत दोनों बराबर हैं... जो मर्द को आला और औरत को कमतर नहीं मानता... जो मर्द को पाक और औरत को नापाक नहीं मानता... जो नेक कामों के लिए औरत को भी वही ईनाम देता है, जो मर्द को देता है... और बुरे कामों के लिए मर्दों को भी वही सज़ा देता है, जो औरतों को देता है...
ऐसा है हमारा ख़ुदा... 
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फ़िरदौस ! मैं आज भी तुम्हारी वो डांट भूला नहीं हूं


बात साल 2009 की है... लोकसभा चुनाव के लिए चुनावी मुहिम चल रही थी... उस वक़्त हमें एक
सियासी दल के प्रभावशाली शख़्स का फ़ोन आया... उन्होंने केंद्र में मंत्री रहे एक शख़्स का हवाला दिया और कहा कि उन्हें हमारी मदद चाहिए. काम मुश्किल नहीं था, उन्हें चुनाव के लिए तक़रीर चाहिए थी. बहरहाल, हमने उन्हें कई तक़रीरें दीं. उन्हें बहुत पसंद आईं. उन्होंने अपनी पार्टी ज्वॊइन करने का ऒफ़र दिया, एक बड़े पद के साथ... जो आज भी है...

बस एक बात बुरी थी. कभी भी फ़ोन आ जाता था. हमने कहा कि बराये-मेहरबानी देख लिया करें कि वक़्त क्या हुआ है. इतना ही नहीं, ये भी ख़्याल करें कि नमाज़ के वक़्त फ़ोन न किया करें. उस शख़्स ने माज़रत की और इस बात का ख़्याल भी रखा. एक बार सुबह साढ़े तीन बजे मोबाइल बज उठा. हम तहज्जुद की नमाज़ पढ़ रहे थे. और मोबाइल बार-बार बज रहा. हमने सलाम फेर कर मोबाइल बंद कर दिया. जब हम फ़ज्र की नमाज़ से फ़ारिग़ हो गए, तो हमने मोबाइल ऒन किया. कुछ ही लम्हे बीते थे कि फिर मोबाइल बज उठा. हमने कॊल रिसीव की और कहा-
आपने नमाज़ पढ़नी दुश्वार कर दी. हद होती है किसी को परेशान करने की भी. जब आपको मालूम है कि इस वक़्त हम इबादत कर रहे होते हैं, तो फिर क्यों फ़ोन किया. फ़ज्र तक का इंतज़ार नहीं कर सकते थे. हमने ग़ुस्से में और भी न जाने क्या-क्या कह दिया. अब तो याद भी नहीं...

ये बात भी इसलिए याद आ गई, क्योंकि कल सुबह उसी शख़्स का फ़ोन आया और कहने लगे-
फ़िरदौस ! मैं आज भी तुम्हारी वो डांट भूला नहीं हूं, लेकिन मुझे अच्छा लगा कि तुमने अपनी इबादत के सामने मेरी कोई परवाह नहीं की. हालांकि किसी आला अफ़सर की भी इतनी मजाल नहीं, जो मेरे सामने बोल जाए...
बात तो सही है, वो शख़्स है ही इतना प्रभावशाली. छह गनर तो हर वक़्त अपने साथ रखता है. आज हुकूमत में हैं.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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ज़िन्दगी कैसे जियें


हम चाहते हैं कि हम ऐसी ज़िन्दगी जियें कि हमारी मौत के बाद कोई ये न कह सके कि हमने जानबूझ कर उसे तकलीफ़ पहुंचाई थी या उसका दिल दुखाया था... हालांकि अनजाने में इंसान से ऐसी न जाने कितनी ग़लतियां हो जाती होंगी, जिससे दूसरों को दुख पहुंचता होगा...
दरअसल, हमारी मौत के बाद लोग हमें किस तरह याद रखेंगे... अगर हम ये सोच कर अपनी ज़िन्दगी गुज़ारें, तो शायद बेहतर ज़िन्दगी जी सकते हैं... 
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अपना काम


कहते हैं- दूसरे के सिंहासन से अपना मूढ़ा अच्छा... क्योंकि किसी की जी हुज़ूरी तो नहीं करनी पड़ती...
आज के युवा अपने स्वरोज़गार को तरजीह दे रहे हैं... वाक़ई यह अच्छी बात है... अपना ख़ुद का काम ही ज़्यादा अच्छा होता है, भले ही परचून की दुकान क्यों न हो...  नौकरी में लगी बंधी तनख़्वाह तो होती है, लेकिन इसकी अपनी परेशानियां हैं... नौकरी प्राइवेट हो, तो और भी मुसीबत... हमेशा एक ही बात याद रखनी होती है- बॊस इस ऒलवेज़ राइट... न जॊब की गारंटी होती है, न काम का वाजिब मेहनताना, न पर्याप्त छुट्टियां...
अपने काम में जो मज़ा है, वो किसी की नौकरी में कहां... स्वरोज़गार अपनाओ और ख़ुश रहो... :)
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मज़दूर


वो लड़की (खेतीहर मज़दूर) खेत में बीज बोती है... फ़सल उगाती है...
हम विचारों के बीज बोते हैं... शब्दों की फ़सल उगाते हैं...
हम भी तो उसी की तरह एक मज़दूर ही हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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अमृता की मुहब्बत


बार-बार एक ख़्याल आ रहा है... क्या मौत के बाद अमृता प्रीतम को उनकी मुहब्बत यानी साहिर लुधियानवी मिल गए होंगे...? क्या मौत के बाद दूसरी दुनिया में इंसान को उसका महबूब मिलता है...?
कुछ अरसे पहले हमें एक अल्लाह वाली मिली थीं... इस बारे में उनसे बहुत-सी बातें हुईं... उनका कहना था कि दूसरी दुनिया में इंसान को उसका महबूब मिलता है... जब हमने यह बात अपनी एक दोस्त को बताई, तो वो बहुत ख़ुश हुई... क्योंकि इस दुनिया में उसे उसका महबूब नहीं मिला... उसके वालदेन ने जबरन उसका निकाह अपनी रिश्तेदारी में कर दिया...
अब उसे लगता है कि जो उसे इस दुनिया में नहीं मिला, उस दुनिया में मिल जाएगा... 
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इमरोज़


हिन्दुस्तान का एक मशहूर शायर लड़की से कहता है-
तुम इतना अच्छा लिखती हो. अमृता प्रीतम की तरह मशहूर हो सकती हो. बस तुम्हें एक साहिर की ज़रूरत है.
लड़की सोचती है कि ये ख़ुद साहिर बनने की कोशिश कर रहा है. वह जवाब देती है-
मुझे साहिर नहीं, इमरोज़ चाहिए... क्योंकि साहिर ने अमृता को भटकाव के सिवा कुछ नहीं दिया, जबकि इमरोज़ ने उसे ठहराव दिया...
मैं भटकना नहीं चाहती...
लेकिन लड़की ये नहीं जानती थी कि इमरोज़ क़िस्मत से मिला करते हैं...  


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मुहब्बत की चमक



मेरे महबूब !
तुम्हारी आंखों में
मुहब्बत की
जो चमक है
उसी से तो
मेरी दुनिया रौशन है...
-फ़िरदौस ख़ान

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विज्ञापन गुमराह करते हैं

सोच रहे हैं, क्या ख़ाला ने ये ख़बर सुनी होगी... अगर सुनी होगी, तो उन्होंने ये ज़रूर सोचा होगा कि ठगी तो वह भी गई हैं, उन करोड़ों लोगों की तरह, जो विज्ञापनों के झूठे दावों पर भरोसा करके कुछ अच्छे की उम्मीद बांध लेते हैं...

ज़्यादातर विज्ञापन गुमराह करते हैं... फिर भी लोग विज्ञापनों के झूठे दावों के दांव में फंस जाते हैं... बचपन की बात है... हमारी रिश्ते की एक ख़ाला हैं... उनका रंग ज़्यादा सांवला है... वो फ़ेयरनेस क्रीम लगाती थीं, शायद उस वक़्त आठ हफ़्तों में गोरा होने का दावा किया जाता था... वो अपनी अम्मी से क्रीम छुपाकर रखती थीं, ताकि वो देख न लें... क्रीम लगाने की सख़्त मनाही थी... बस काजल या सुरमा लगाने की इजाज़त थी... बरसों उन्होंने क्रीम लगाई, लेकिन गोरी नहीं हुईं... चार साल पहले जयपुर में उनसे मुलाक़ात हुई... हमने उनसे पूछा कि क्या अब भी फ़ेयरनेस क्रीम लगाती हैं... वो मुस्करा कर रह गईं...
दिल्‍ली की ज़िला उपभोक्‍ता अदालत ने फ़ेयरनेस क्रीम बनाने वाली कंपनी इमामी पर 15 लाख रुपये का जुर्माना लगाया है. कोर्ट ने यह फ़ैसला निखिल जैन की याचिका पर सुनाया है. तीन साल पहले दायर अर्ज़ी में निखिल ने आरोप लगाया था कि इमामी ने प्रचार में जो दावा किया था, क्रीम के इस्‍तेमाल से सच में वैसा कोई नतीजा नहीं आया. इमामी स्किन क्रीम के इस्‍तेमाल के बाद ख़ुद को छला हुआ महसूस करने के बाद निखिल ने कंपनी के ख़िलाफ़ अनफ़ेयर ट्रेड प्रैक्टिसेस का आरोप लगाया था. उसने जो क्रीम ख़रीदा थी, उसके प्रचार में चार हफ़्ते में गोरापन लाने का वादा किया गया था. उन्‍हें प्रचार में शाहरुख़ ख़ान यह दावा करते दिखे थे.
अदालत में कंपनी ने कहा कि उसका उत्पाद त्‍वचा की सेहत और गुणवत्‍ता सुधारने के लिए है. इस पर अदालत ने विज्ञापन को भ्रामक बताते हुए ने कहा, ‘पहली बात तो विज्ञापन में गोरापन शब्‍द का इस्तेमाल किया गया है, जिसका मतलब है त्‍वचा का रंग साफ़ करना. दूसरी बात, इसमें वादा किया गया है कि चार हफ़्ते के इस्‍तेमाल के बाद गोरी त्‍वचा मिलेगी.’


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राम भला करे... अल्लाह भला करे...


हमारे घर (मायके में) कई फ़क़ीर आते हैं... कुछ रोज़ आती हैं... कुछ कभी-कभार आते हैं... और कुछ दिनों के हिसाब से आते हैं, जैसे हफ़्ते के दिन जो बाबा आते हैं, उनके हाथ में एक बर्तन और शनिदेव की मूरत होती है... पैसे बाबा के हाथ में दे दिए जाते हैं और सरसों का तेल बर्तन में डाल दिया जाता है... हफ़्ते के दिन कटोरी में सरसों का तेल और पैसे आंगन में ताक़ में रख दिए जाते हैं, ताकि बाबा को इंतज़ार न करना पड़े... अमूमन हमारे घर ताक़ में पैसे रखे रहते हैं, ताकि कोई आए, तो उसे वहां से उठाकर पैसे दे दिए जाएं...पिछले काफ़ी अरसे से ये काम हमारी नन्ही परी फ़लक कर रही है...
कई फ़क़ीर ऐसे होते हैं, जो भूख लगने पर खाना मांग लेते हैं, वरना बाक़ी आटा या पैसे लेकर चले जाते हैं...

एक बाबा रोज़ सुबह आते हैं... हमारे भाई अपनी बिटिया फ़लक को गोद में लेकर जाते हैं और उसी से उन्हें पैसे दिलवाते हैं... बाबा बिटिया के सर पर हाथ रखते और आशीष देते... पहले बाबा कहा करते थे- राम भला करे, राम ख़ुश रखे, राम लंबी उम्र दे, वग़ैरह-वग़ैरह... यानी उनके सारे आशीष रामजी को लेकर होते... पिछ्ले दिनों हम घर गए, तो देखा कि बाबा अब भी बिटिया को आशीष देते हुए कहते हैं- अल्लाह भला करे, अल्लाह ख़ुश रखे, अल्लाह लंबी उम्र दे, वग़ैरह-वग़ैरह...
आशीष तो आशीष हुआ करता है... भले ही लफ़्ज़ कुछ भी हों...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)


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पलायन


एक बादशाह था. उसके दो बेटे थे, जो अपने वालिद से बहुत प्यार करते थे. बादशाह का बर्ताव अपने दोनों के बेटों के साथ बहुत अलग था. बड़े बेटे को हर तरह की आज़ादी थी, उसके लिए ऐशो-इशरत का हर सामान था. वह जहां चाहे, वहां घूमता. बादशाह की सल्तनत बहुत बड़ी थी, उसमें हरी घास के बड़े-बड़े मैदान थे, घने जंगल थे, अनाज और सब्ज़ियों के खेत थे, फलों-मेवों के बाग़ थे, रंग-बिरंगे फूलों से महकते चमन थे, नदियां थीं, झरने थे और दूर-दूर तक फैला समन्दर था. बड़े बेटे की ज़िन्दगी बहुत ख़ुशहाल थी.
छोटे बेटे को महल से बाहर जाने तक की सख़्त मनाही थी. कभी वह महल की छत पर चला जाता या झरोखे से बाहर झांक भी लेता, तो उसे इसके लिए सज़ा दी जाती थी. छोटे बेटे की ज़िन्दगी अज़ाब बन चुकी थी. वह भी अपने बड़े भाई की तरह महल से बाहर की दुनिया देखना चाहता था, लेकिन वो एक क़ैदी था, महल का क़ैदी. एक दिन ऐलान हुआ कि बादशाह की मौत के बाद बड़े बेटे को बादशाह बना दिया जाएगा और छोटे बेटे को क़ैदख़ाने में डलवा दिया जाएगा.
छोटे बेटे ने ये बात सुनी, तो उसकी रूह कांप गई. वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे किस बात की सज़ा मिल रही है. एक दिन उसने महल की एक बूढ़ी औरत से इस बारे में पूछा, तो उसने बताया कि बादशाह का यही उसूल है. बड़े बेटे को शाही ज़िन्दगी दी जाती है और छोटे बेटे को क़ैदी वाली ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ती है. छोटे बेटे ने कहा कि यह तो सरासर नाइंसाफ़ी है. वह इस बारे में बादशाह से बात करेगा. बूढ़ी औरत ने कहा कि ऐसा कभी मत करना, क्योंकि अगर तुमने ऐसा क्या तो तुम्हें बाग़ी माना जाएगा और फिर मौत की सज़ा दे दी जाएगी. बादशाह की हर बात सही होती है, उसके ख़िलाफ़ जाने वाले को अपनी ज़िन्दगी से भी हाथ धोना पड़ता है.
छोटा बेटा बहुत परेशान था. वह सोचने लगा कि जब उसके वालिद को छोटे बेटे के साथ ऐसा ही बर्ताव करना था, जो उसे पैदा ही न करते. अपनी ही औलाद से इतनी नफ़रत. अब उसके पास एक ही रास्ता था कि वह ये सल्तनत छोड़ कर चला जाए. ऐसी सल्तनत में क्या रहना, जहां वह चैन का एक पल भी न गुज़ार सके.
-फ़िरदौस ख़ान
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जाड़ो की दस्तक


अल सुबह से ठंडी हवाएं चल रही हैं... गोया जाड़ो ने हौले से दस्तक दी हो और गर्मियों के मौसम से चुपके से कहा हो-
गर्मी के मौसम ! अब विदा लो और कुछ देर हमें भी ठहरने दो... तुम फिर आ जाना, वैसे भी तुम ही ज़्यादा डेरा डाले रहते हो... बरसात के मौसम में भी तुम्हारा ही जलवा क़ायम रहता है... मगर अब हम आ गए हैं, दिवाली की रौनक़ लेकर, क्रिसमस के तोहफ़े लेकर और नये साल की सौग़ात लेकर...
विदा गर्मियो के प्यारे मौसम ! अगले साल फिर मिलेंगे... उदास मत होना, बस कुछ ही माह की बात है, फ़रवरी तक का ही तो इंतज़ार है... मार्च में फिर तुम्हारे साथ होंगे..
-फ़िरदौस ख़ान
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ईमान...


-फ़िरदौस ख़ान
हमारी एक आशनाई हैं... उन्हें बात-बात पर क़सम खाने की आदत है... हर बात पर कहती हैं कि अगर वे झूठ बोलें, तो उन्हें मरते वक़्त ईमान नसीब न हो... ’ईमान से’ तो उनका तकिया कलाम है...
हमने उनसे कई बार कहा कि इस तरह बात-बात पर क़सम न खाया करें... जिसे आपकी बात पर यक़ीन करना होगा, वो बिना क़सम के भी कर लेगा और जिसे यक़ीन नहीं करना होगा, वो यक़ीन नहीं करेगा, भले ही आप कितनी ही क़सम क्यों न खाएं... लेकिन उन्होंने अपनी आदत नहीं छोड़ी...
कुछ रोज़ पहले जब वह हमसे बात करते हुए क़सम खाने लगीं, तो हमने उनसे पूछा कि ईमान क्या है?
वह सकपका गईं और कहने लगीं कि ईमान, ईमान होता है... और क्या होता है...
हमने कहा कि ये बात तो हम भी जानते हैं कि ईमान, ईमान होता है, जैसे सूरज, सूरज होता है, पर आख़िर ईमान होता क्या है?
अब उन्हें ग़ुस्सा आ गया और कहने लगीं कि उन्हें नहीं पता कि ईमान क्या होता है... बस उन्होंने बचपन से सुना है कि ईमान होता है...
हमने कहा कि जब आपको ये ही नहीं पता कि ईमान होता क्या है, तो आप यूं ही ईमान की क़सम खाती रहती हैं...
हमने यही सवाल एक और शख़्स से किया तो, उन्होंने जवाब दिया कि जिसका ईमान कमज़ोर होता है, वही ऐसे सवाल करता है...

बहरहाल, जब तक इंसान को ये ही नहीं पता होगा कि ईमान आख़िर है क्या, तो वो ईमान की क्या ख़ाक हिफ़ाज़त करेगा...

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ततैया...


-फ़िरदौस ख़ान
उन्सियत किसी से भी हो सकती है, एक ततैये से भी... हम परिन्दों के लिए मिट्टी के कूंडे में पानी रखते हैं... सुबह कूंडे में पाने डालने के लिए आंगन में जाते, तो देखते कि एक ततैया कूंडे के किनारे पर बैठा पानी पी रहा है... हम उसे देखकर पीछे हट जाते कि कहीं वह हमें देखकर उड़ न जाए, कहीं प्यासा न रह जाए... आए-दिन ऐसा होता है...
एक सुबह हम पानी डालने के लिए गए, तो देखा कि कूंडे के पास एक ततैया पड़ा है... हमने उसे छुआ तो, मालूम हुआ कि वह मर चुका है... उसे देखकर दुख हुआ... हमने उसे गमले की मिट्टी में दबा दिया... उस दिन न जाने क्यूं दिल उदास रहा... पूरा दिन काम में दिल नहीं लगा... शाम को चिड़ियों के लिए दाना डालने गए, तो देखा कि एक ततैया कूंडे के किनारे बैठा पानी पी रहा है... उसे देख कर इतनी ख़ुशी हुई, मानो बरसों की कोई मुराद पूरी हो गई हो... हमारी उदासी अब ख़ुशी में बदल चुकी थी...
अब कई ततैये पानी पीने आते हैं, उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगता है... हम कभी ततैयों को उड़ाते नहीं हैं. उन्होंने कभी हमें नुक़सान नहीं पहुंचाया... शायद वे भी हमसे उन्सियत रखते हैं...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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इतना सुंदर समय ना खोओ...


ज़िंदगी भी कैसे-कैसे मोड़ लेती है... माहौल कब, कैसे बदल जाए, पता ही नहीं चलता... हमारे घर सब सुबह जल्दी उठते हैं... मम्मा तो तहज्जुद की नमाज़ के लिए रात में दो बजे ही उठ जाती हैं और फिर नमाज़ के बाद क़ुरआन की सूरतें पढ़ती है... और इस तरह फ़ज्र की नमाज़ पढ़कर ही जानमाज़ से उठती हैं...
लेकिन यहां दिल्ली का माहौल अलग है... रात के दो बजे बच्चे छत पर खेल रहे होते हैं...लोग दस-ग्यारह बजे सोकर उठते हैं... बारह बजे के आसपास नाश्ता होता है... दोपहर का खाना  तीन बजे के बाद होता है... और इसी तरह रात का खाना ग्यारह बजे के बाद होता है... यानी लोग आधा दिन सोकर गुज़ारते हैं... सुबह की फ़िज़ा कैसी होती है, ये लोग जानते ही नहीं... लेकिन हमारी आज भी वही आदत है सुबह जल्दी उठने की...
अपना घर बहुत याद आता है... और बचपन के दिन भी... गर्मियों में सुबह सवा छह बजे स्कूल शुरू होता था... जाड़ो में पौने आठ बजे... इसलिए बचपन से सुबह जल्दी उठने की आदत है... सुबह-सुबह परिंदों के लिए दाना डालते थे, और कूंडे का पानी भी बदलते थे... तबीयत ख़राब होने पर कभी सुबह उठने में देर हो जाती, तो चिड़ियां चीं-चीं करती हुई कमरे तक आ जातीं... कितनी प्यारा लगता था, सुबह-सुबह चहकती चिड़ियों को देखकर, उनकी चहचहाहट सुनकर... वाक़ई सुबह बेहद ख़ुशनुमा हो जाया करती थी...
सुबह जल्दी उठना बहुत अच्छा लगता है... सुबह की ताज़ा हवा, चिड़ियों की चहचहाहट से जहां दिन की शुरुआत अच्छी होती है, वहीं जल्दी उठने से सेहत भी अच्छी रहती है...
उत्तर प्रदेश में बच्चों के कोर्स की किताब में सोहनलाल द्विवेदी की कविता हुआ करती थी (शायद अब भी हो), जिसे ख़ूब पढ़ा करते थे-
उठो लाल अब आंखें खोलो
पानी लाई हूं मुंह धो लो
बीती रात कमल-दल फूले
उनके ऊपर भौंरे झूले
चिड़ियां चहक उठीं पेड़ों पर
बहने लगी हवा अति सुंदर
नभ में न्यारी लाली छाई 
धरती ने प्यारी छवि पाई 
भोर हुआ सूरज उग आया
जल में पड़ी सुनहरी छाया
नन्‍हीं नन्‍हीं किरणें आईं
फूल खिले कलियां मुस्काईं
इतना सुंदर समय ना खोओ
मेरे प्‍यारे अब मत सोओ...

काश ! बचपन वापस लौटकर आ सकता...

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रौशनी


लोग अपने घरों में ख़ूब रौशनी करते हैं, लेकिन अपने ज़ेहन को रौशन नहीं करते... अपने घरों को बड़ा करते हैं, लेकिन अपने दिल को वसीह नहीं करते...
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रूहानी तोहफ़ा


किसी अपने को देने के लिए रूहानी तोहफ़ा सबसे अच्छा होता है, क्योंकि इसमें इबादत शामिल हुआ करती है, अक़ीदत शामिल होती है, रफ़ाक़त शामिल होती है... उन्हें हमेशा ऐसा ही तोहफ़ा देना चाहते हैं, जो दुआओंं से लबरेज़ हुआ करता है...

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इल्मे-सीना


इल्म दो तरह के हैं... पहला क़ुरआन है, जिसे इल्मे-सफ़ीना (किताबी इल्म) कहा गया है, जो सभी आमो-ख़ास के लिए है... और दूसरा इल्मे-सीना (छुपा इल्म) है, जो सूफ़ियों के लिए है... उनका यह इल्म पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, ख़लीफ़ा अबू बक़्र, हज़रत अली, हज़रत बिलाल और पैग़म्बर के अन्य चार क़रीबी साथियों के ज़रिये एक सिलसिले में चला आ रहा है, जो मुर्शिद से मुरीद को मिलता है... हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इल्म का शहर और हज़रत अली को इल्म का दरवाज़ा कहा जाता है...
इल्मे-सीना किताबों में नहीं मिलता... हम इल्मे-सीना के तालिबे-इल्म हैं... कुछ अरसा पहले हमने इल्मे-सीना से मुताल्लिक़ फ़ेसबुक पर एक पूछा था, लेकिन किसी ने उस सवाल का जवाब नहीं दिया... जो लोग ख़ुद को बड़ा आलिम मानते हैं, उनसे भी हमने इनबॊक्स में पूछा, तो उन्होंने कहा कि उन्हें इस बारे में कोई इल्म नहीं है...
हमें अपनी ग़लती का अहसास हुआ कि हमने सवाल पोस्ट करके ग़लत किया... हमने फ़ौरन वो पोस्ट डिलीट कर दी...
 हमारी डायरी से
  • हवा, पानी और खाना जिस्म की ग़िज़ा है, किताबें और इल्म ज़ेहन की ग़िज़ा है, मुहब्बत और इबादत रूह की ग़िज़ा है...
  • सबसे आसान होता है, दूसरों के बनाए रास्तों पर चलना... लेकिन अपनी मंज़िल को पाने के लिए अपनी राह भी ख़ुद ही बनानी होगी... रूह एक मालूम मंज़िल की चाह में नामालूम सफ़र पर है... अंजाम ख़ुदा जाने क्या होगा...



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उसने ख़त में फूल भेजा है...

नज़्म
उसने ख़त में फूल भेजा है
मुहब्बत से लबरेज़ ख़त के
एक-एक लफ़्ज़ में
उन गरम सांसों की
दिलनवाज़ खुशबू है

आज फिर मेरी रूह
मुहब्बत से मुअत्तर है
ज़िन्दगी के आंगन में
चांदनी बिखरी है...

मगर बेक़रार दिल
ये कहता है
इन ख़ुशगवार लम्हों में
काश वो ख़ुद आ जाता...
-फ़िरदौस ख़ान
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यक़ीन...


यक़ीन एक ऐसी चीज़ है, अगर डाकू पर कर लिया जाए, तो वो भी मुहाफ़िज़ नज़र आता है... और यक़ीन न हो, तो मुहाफ़िज़ पर भी शुबा होता है...
बच्चे को हवा में उछालो, तो वो चीख़ने-चिल्लाने की बजाय खिलखिलाकर हंसता है, क्योंकि उसे यक़ीन होता है कि उसे उछालने वाला उसे गिरने नहीं देगा, उसे थाम लेगा...
इंसान की बातें यक़ीन पैदा करती हैं, और यक़ीन को ख़त्म भी कर देती हैं... किसी के दिल में अपने लिए यक़ीन पैदा करना बड़ी बात है...
(हमारी एक कहानी से)

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बेघर


बहुत ख़ुशनसीब हैं वो लोग, जिनके घर हुआ करते हैं... दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनके घर नहीं है... और करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो खुले आसमान के नीचे ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं...
इनके लिए कोई मौसम सुहावना नहीं होता... कभी गर्मी की शिद्दत से बेहाल ये लोग अपने लिए छांव तलाशते फिरते हैं, तो कभी जाड़ो में ख़ून जमा देने वाली सर्द हवाओं के क़हर से बचने के लिए दीवाल-कौलों का सहारा लेते हैं... बारिश के मौसम में ख़ुद को बचाने के लिए इन्हें एक अदद छत की तलाश रहती है...कभी किसी पेड़ के नीचे, तो कभी किसी छज्जे के नीचे ये लोग सिमट कर बैठ जाते हैं...
कल World homelessness day है... अपना घर हरेक का ख़्वाब है, हरेक का हक़ है... उनका ये ख़्वाब पूरा हो, उन्हें उनका घर मिले... बस, यही दुआ है हमारी उन सबके लिए, जिनके अपने घर नहीं हैं...
-फ़िरदौस ख़ान


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क्रांतिकारी लेखक थे मुंशी प्रेमचंद


फ़िरदौस ख़ान
मुंशी प्रेमचंद क्रांतिकारी रचनाकर थे. वह समाज सुधारक और विचारक भी थे. उनके लेखन का मक़सद सिर्फ़ मनोरंजन कराना ही नहीं, बल्कि सामाजिक कुरीतियों की ओर ध्यान आकर्षित कराना भी था. वह सामाजिक क्रांति में विश्वास करते थे. वह कहते थे कि समाज में ज़िंदा रहने में जितनी मुश्किलों का सामना लोग करेंगे, उतना ही वहां गुनाह होगा. अगर समाज में लोग खु़शहाल होंगे, तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा. मुंशी प्रेमचंद ने शोषित वर्ग के लोगों को उठाने की हर मुमकिन कोशिश की. उन्होंने आवाज़ लगाई- ऐ लोगों, जब तुम्हें संसार में रहना है, तो ज़िंदा लोगों की तरह रहो, मुर्दों की तरह रहने से क्या फ़ायदा.

मुंशी प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था. उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के गांव लमही में हुआ था. उनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल और माता का नाम आनंदी देवी था. उनका बचपन गांव में बीता. उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा हासिल की. 1818 में उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी. वह एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापन का कार्य करने लगे और कई पदोन्नतियों के बाद वह डिप्टी इंस्पेक्टर बन गए. उच्च शिक्षा उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की. उन्होंने अंग्रेज़ी सहित फ़ारसी और इतिहास विषयों में स्नातक किया था. बाद में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में योगदान देते हुए उन्होंने अंग्रेज़ सरकार की नौकरी छोड़ दी.

प्रेमचंद ने पारिवारिक जीवन में कई दुख झेले. उनकी मां के निधन के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह किया. लेकिन उन्हें अपनी विमाता से मां की ममता नहीं मिली. इसलिए उन्होंने हमेशा मां की कमी महसूस की. उनके वैवाहिक जीवन में भी अनेक कड़वाहटें आईं. उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ था. यह विवाह उनके सौतेले नाना ने तय किया था. उनके लिए यह विवाह दुखदाई रहा और आख़िर टूट गया. इसके बाद उन्होंने फ़ैसला किया कि वह दूसरा विवाह किसी विधवा से ही करेंगे. 1905 में उन्होंने बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह कर लिया. शिवरानी के पिता ज़मींदार थे और बेटी का पुनर्विवाह करना चाहते थे.  उस वक़्त एक पिता के लिए यह बात सोचना एक क्रांतिकारी क़दम था. यह विवाह उनके लिए सुखदायी रहा और उनकी माली हालत भी सुधर गई. वह लेखन पर ध्यान देने लगे. उनका कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ, जिसे ख़ासा सराहा गया.

उन्होंने जब कहानी लिखनी शुरू की, तो अपना नाम नवाब राय धनपत रख लिया. जब सरकार ने उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन ज़ब्त किया. तब उन्होंने अपना नाम नवाब राय से बदलकर प्रेमचंद कर लिया और उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से ही प्रकाशित हुआ.  कथा लेखन के साथ उन्होंने उपन्यास पढ़ने शुरू कर दिए. उस समय उनके पिता गोरखपुर में डाक मुंशी के तौर पर काम कर रहे थे. गोरखपुर में ही प्रेमचंद ने अपनी सबसे पहली साहित्यिक कृति रची, जो उनके एक अविवाहित मामा से संबंधित थी. मामा को एक छोटी जाति की महिला से प्यार हो गया था. उनके मामा उन्हें बहुत डांटते थे. अपनी प्रेम कथा को नाटक के रूप में देखकर वह आगबबूला हो गए और उन्होंने पांडुलिपि को जला दिया. इसके बाद हिंदी में शेख़ सादी पर एक किताब लिखी. टॊल्सटॊय की कई कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया. उन्होंने प्रेम पचीसी की भी कई कहानियों को हिंदी में रूपांतरित किया, जो सप्त-सरोज शीर्षक से 1917 में प्रकाशित हुईं. इनमें बड़े घर की बेटी, सौत, सज्जनता का दंड, पंच परमेश्वर, नमक का दरोग़ा, उपदेश, परीक्षा शामिल हैं. प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इनकी गणना होती है. उनके उपन्यासों में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, वरदान, निर्मला, ग़बन, कर्मभूमि, कृष्णा, प्रतिज्ञा, प्रतापचंद्र, श्यामा और गोदान शामिल है. गोदान उनकी कालजयी रचना मानी जाती है. बीमारी के दौरान ही उन्होंने एक उपन्यास मंगलसूत्र लिखना शुरू किया, लेकिन उनकी मौत की वजह से वह अधूरा ही रह गया. उनकी कई रचनाएं उनकी स्मृतियों पर भी आधारित हैं. उनकी कहानी कज़ाकी उनके बचपन की स्मृतियों से जुड़ी है. कज़ाकी नामक व्यक्ति डाक विभाग का हरकारा था और लंबी यात्राओं पर दूर-दूर जाता था. वापसी में वह प्रेमचंद के लिए कुछ न कुछ लाता था. कहानी ढपोरशंख में वह एक कपटी साहित्यकार द्वारा ठगे जाने का मार्मिक वर्णन करते हैं.

उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में ज़िंदगी की हक़ीक़त को पेश किया. गांवों को अपने लेखन का प्रमुख केंद्रबिंदु रखते हुए उन्हें चित्रित किया. उनके उपन्यासों में देहात के निम्न-मध्यम वर्ग की समस्याओं का वर्णन मिलता है. उन्होंने सांप्रदायिक सदभाव पर भी ख़ास ज़ोर दिया. प्रेमचंद को उर्दू लघुकथाओं का जनक कहा जाता है. उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख और संस्मरण आदि विधाओं में साहित्य की रचना की, लेकिन प्रसिद्ध हुए कहानीकार के रूप में. उन्हें अपनी ज़िंदगी में ही उपन्यास सम्राट की पदवी मिल गई. उन्होंने 15 उपन्यास, तीन सौ से ज़्यादा कहानियां, तीन नाटक और सात बाल पुस्तकें लिखीं. इसके अलावा लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र लिखे और अनुवाद किए. उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया. उनकी कहानियों में अंधेर, अनाथ लड़की, अपनी करनी, अमृत, अलग्योझा, आख़िरी तोहफ़ा, आख़िरी मंज़िल, आत्म-संगीत, आत्माराम, आधार, आल्हा, इज़्ज़त का ख़ून, इस्तीफ़ा, ईदगाह, ईश्वरीय न्याय, उद्धार, एक आंच की कसर, एक्ट्रेस, कप्तान साहब, कफ़न, कर्मों का फल, कवच, क़ातिल, काशी में आगमन, कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो, कौशल, क्रिकेट मैच, ख़ुदी, ख़ुदाई फ़ौजदार, ग़ैरत की कटार, गुल्ली डंडा, घमंड का पुतला, घरजमाई, जुर्माना, जुलूस, जेल, ज्योति,झांकी, ठाकुर का कुआं, डिप्टी श्यामचरण, तांगेवाले की बड़, तिरसूल तेंतर, त्रिया चरित्र, दिल की रानी, दुनिया का सबसे अनमोल रतन, दुर्गा का मंदिर, दूसरी शादी, दो बैलों की कथा, नबी का नीति-निर्वाह, नरक का मार्ग, नशा, नसीहतों का दफ़्तर, नाग पूजा, नादान दोस्त, निर्वासन, नेउर, नेकी, नैराश्य लीला, पंच परमेश्वर, पत्नी से पति, परीक्षा, पर्वत-यात्रा, पुत्र- प्रेम, पूस की रात, प्रतिशोध, प्रायश्चित, प्रेम-सूत्र, प्रेम का स्वप्न, बड़े घर की बेटी,  बड़े बाबू, बड़े भाई साहब,  बंद दरवाज़ा, बांका ज़मींदार, बूढ़ी काकी, बेटों वाली विधवा, बैंक का दिवाला, बोहनी, मंत्र, मंदिर और मस्जिद, मतवाली योगिनी, मनावन, मनोवृति, ममता, मां, माता का हृदय, माधवी, मिलाप, मिस पद्मा, मुबारक बीमारी, मैकू, मोटेराम जी शास्त्री, राजहठ, राजा हरदैल, रामलीला, राष्ट्र का सेवक, स्वर्ग की देवी, लेखक, लैला, वफ़ा का ख़ंजर, वरदान, वासना की कड़ियां, विक्रमादित्य का तेगा, विजय, विदाई, विदुषी वृजरानी, विश्वास, वैराग्य, शंखनाद, शतरंज के खिलाड़ी, शराब की दुकान, शांति, शादी की वजह, शूद्र, शेख़ मख़गूर, शोक का पुरस्कार, सभ्यता का रहस्य, समर यात्रा, समस्या, सांसारिक प्रेम और देशप्रेम, सिर्फ़ एक आवाज़, सैलानी,  बंदर, सोहाग का शव, सौत, स्त्री और पुरुष, स्वर्ग की देवी, स्वांग, स्वामिनी, हिंसा परमो धर्म और होली की छुट्टी आदि शामिल हैं. साल 1936 में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधित किया था. उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन का घोषणा-पत्र का आधार बना. प्रेमचंद अपनी महान रचनाओं की रूपरेखा पहले अंग्रेज़ी में लिखते थे. इसके बाद उन्हें उर्दू या हिंदी में अनुदित कर विस्तारित करते थे.

प्रेमचंद सिनेमा के सबसे ज़्यादा लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं. उनकी मौत के दो साल बाद के सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई. प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं, जैसे सत्यजीत राय की फ़िल्म शतरंज के खिलाड़ी. प्रेमचंद ने मज़दूर फ़िल्म के लिए संवाद लिखे थे. फ़िल्म में एक देशप्रेमी मिल मालिक की कहानी थी, लेकिन सेंसर बोर्ड को यह पसंद नहीं आई. हालांकि दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब में यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई. फ़िल्म का मज़दूरों पर ऐसा असर पड़ा कि पुलिस बुलानी पड़ गई. आख़िर में फ़िल्म के प्रदर्शन पर सरकार ने रोक लगा दी. इस फ़िल्म में प्रेमचंद को भी दिखाया गया था. वह मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में पंच की भूमिका में थे. 1977  में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई, जिसे सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय प्रुरस्कार मिला. 1963 में गोदान और  1966 में ग़बन उपन्यास पर फ़िल्में बनीं, जिन्हें ख़ूब पसंद किया गया. 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था.

8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर रोग से मुंशी प्रेमचंद की मौत हो गई. उनकी स्मृति में भारतीय डाक विभाग ने 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के मौक़े पर  30 पैसे मूल्य का डाक टिकट जारी किया. इसके अलावा गोरखपुर के जिस स्कूल में वह शिक्षक थे, वहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई. यहां उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है. प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी. उनके बेटे अमृत राय ने भी क़लम का सिपाही नाम से उनकी जीवनी लिखी.


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कल चौदहवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा...


फ़िरदौस ख़ान
उर्दू के मशहूर शायर और व्यंग्यकार इब्ने इंशा का असली नाम शेर मुहम्मद ख़ान था. उनका जन्म 15 जून, 1927 को पंजाब के जालंधर ज़िले के फिल्लौर में हुआ था. उनकी शुरुआती शिक्षा लुधियाना में हुई. उन्होंने 1946 में पंजाब यूनिवर्सिटी से बीए किया, लेकिन आज़ादी के बाद 1949 में उनका परिवार पाकिस्तान चला गया. उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए 1953 में कराची यूनिवर्सिटी से एमए की डिग्री हासिल की. उन्होंने रेडियो में भी काम किया. बाद में वह क़ौमी किताब घर के निदेशक बने. इब्ने इंशा इंग्लैंड स्थित पाकिस्तान दूतावास में सांस्कृतिक मंत्री और फिर पाकिस्तान में यूनेस्को के प्रतिनिधि रहे.

इब्ने इंशा ने बहुत कम उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था. वह अपने असली नाम की बजाय इब्ने इंशा नाम से लिखते थे और इसी नाम से उन्हें ख्याति मिली. वह उर्दू की रचनाओं में हिंदी शब्दों का ख़ासा इस्तेमाल करते थे. उन्हें यात्रा लेखक और स्तंभकार के तौर पर भी जाना जाता है. उनकी रचनाओं के कई संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें कविता संग्रह-इस बस्ती के इक कूचे में, चांद नगर, दिले-वहशी, यात्रा वृतांत-आवारा गार्ड की डायरी, दुनिया गोल है, इब्ने बबूता के ताक़ुब, चलते हों तो चीन को चलिए, नगरी-नगरी फिरा मुसा़फिर और हास्य व्यंग्य कुमार-ए-गंदम, ख़त इंशा जी के शामिल हैं. उनकी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ. कैंसर से जूझते हुए 11 जनवरी, 1978 को लंदन में उनका निधन हो गया. उनका शव पाकिस्तान लाया गया और कराची में उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया. इब्ने इंशा की किताब-उर्दू की आख़िरी किताब की व्यंग्य कथाएं बहुत मशहूर हुईं.

हमारा मुल्क
ईरान में कौन रहता है?
ईरान में ईरानी क़ौम रहती है.
इंगलिस्तान में कौन रहता है?
इंगलिस्तान में अंग्रेजी क़ौम रहती है.
फ्रांस में कौन रहता है?
फ्रांस में फ्रांसीसी क़ौम रहती है.
ये कौन सा मुल्क है?
ये पाकिस्तान है.
इसमें पाकिस्तानी क़ौम रहती होगी?
नहीं, इसमें पाकिस्तानी क़ौम नहीं रहती. इसमें सिंधी क़ौम रहती है, इसमें पंजाबी क़ौम रहती है, इसमें बंगाली क़ौम रहती है, इसमें यह क़ौम रहती है, इसमें वह क़ौम रहती है. लेकिन पंजाबी तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं, सिंधी तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं, फिर यह अलग मुल्क क्यों बनाया?
ग़लती हुई, माफ़ कीजिए, आइंदा नहीं बनाएंगे.

भारत
यह भारत है. गांधी जी यहीं पैदा हुए थे, यहां उनकी बड़ी इज़्ज़त होती थी, उन्हें महात्मा कहते थे. चुनांचे मारकर उन्हें यहीं दफ़न कर दिया और समाधि बना दी. दूसरे मुल्कों के बड़े लोग आते हैं तो इस पर फूल चढ़ाते हैं. अगर गांधी जी नहीं मारे जाते तो पूरे हिंदुस्तान के श्रद्धालुओं के लिए फूल चढ़ाने के लिए कोई जगह ही न थी. यह मसला हमारे यानी पाकिस्तान वालों के लिए भी था. हमें क़ायदे आज़म जिन्ना साहब का एहसानमंद होना चाहिए कि वह ख़ुद ही मर गए और टूरिस्टों के लिए फूल चढ़ाने की एक जगह पैदा कर दी, वरना शायद हमें भी उनको मारना ही पड़ता. भारत का पवित्र जानवर गाय है. भारतीय उसी का दूध पीते हैं, उसी के गोबर से लीपा करते हैं, लेकिन आदमी को भारत में पवित्र जानवर नहीं माना जाता.

कछुआ और ख़रगोश
एक था कछुआ, एक था ख़रगोश. दोनों ने आपस में शर्त लगाई. कोई कछुए से पूछे कि तूने शर्त क्यों लगाई, क्या सोचकर लगाई? बहरहाल, तय यह हुआ कि जो पहले नीम वाले टीले पर पहुंचेगा, उसे हक़ होगा कि दूसरे के कान काट ले. दौड़ शुरू हुई तो कछुआ रह गया और ख़रगोश तो यह जा कि वह जा. कछुआ अपनी परंपरागत रफ्तार से चलता रहा. कुछ देर चला तो ख्याल आया कि थोड़ा आराम कर लिया जाए, बहुत चल लिए. आराम करते-करते नींद आ गई. न जाने कितना ज़माना सोते रहे. आंख खुली तो सुस्ती बाक़ी थी. बोले, अभी क्या जल्दी है. इस ख़रगोश के बच्चे की क्या औक़ात कि मुझसे जीत सके. वाह भाई वाह, मेरे क्या कहने. काफ़ी ज़माना सुस्ता लिए तो फिर मंज़िल की तरफ़ चल पड़े. वहां पहुंचे तो देखा ख़रगोश न था. बेहद ख़ुश हुए. अपनी मुस्तैदी की दाद देने लगे. इतने में उनकी नज़र ख़रगोश के एक पिल्ले पर पड़ी. उससे ख़रगोश के बारे में पूछने लगे. ख़रगोश का बच्चा बोला, जनाब वह मेरे वालिद साहब थे और मुद्दतों आपका इंतज़ार करने के बाद मर गए और वसीयत कर गए कि कछुए मियां यहां आ जाएं तो उनके कान काट लेना. लिहाज़ा लाइए इधर कान…
कछुए ने फ़ौरन कान और अपना सिर खोल के अंदर कर लिया और आज तक छिपाए फिरता है.

इब्ने इंशा ने गद्य ही नहीं, पद्य में भी अच्छी खासी लोकप्रियता हासिल की. उनकी एक रचना:-
कल चौदहवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चांद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा
हम भी वहीं मौजूद थे, हमसे भी सब पूछा किए
हम हंस दिए, हम चुप रहे, मंज़ूर था पर्दा तेरा
इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटी महफ़िलें
हर शख्स तेरा नाम ले, हर शख्स दीवाना तेरा
कूचे को तेरे छोड़कर, जोगी ही बन जाएं मग़र
जंगल तेरे, पर्वत तेरे, बस्ती तेरी, सहरा तेरा
तू बे वफ़ा, तू मेहरबां, हम और तुझसे बदगुमां
हमने तो पूछा था ज़रा, ये वक़्त क्यूं ठहरा तेरा
हां, हां तेरी सूरत हसीं, लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इस शख्स के अशआर से, शोहरा हुआ क्या-क्या तेरा
बेशक उसी का दोष है, कहता नहीं ख़ामोश है
तू आप कर ऐसी दवा, बीमार हो अच्छा तेरा
बेदर्द सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तेरा, रुसवा तेरा, शायर तेरा, इंशा तेरा...(स्टार न्यूज़ एजेंसी) 
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शर्म या फ़ख़्र की बात...


बाज़ दफ़ा लोग इसलिए भी अच्छे करने से दूर रहते हैं कि लोग क्या सोचेंगे ? जब कभी हम रिक्शे में जा रहे हों और ढलान आ जाए, तो रिक्शे से उतर जाते हैं... रिक्शे वाला मना करता है, लेकिन दिल नहीं मानता कि हम बैठे रहें और वो रिक्शे से उतर कर रिक्शा खींचे... कुछ लोग घूरते भी हैं, लेकिन हम परवाह नहीं करते, क्योंकि हमें ख़ुदा की परवाह करनी है, न कि लोगों की...

दिल्ली के कई बाज़ारों में सामान की ढुलाई होती है... मज़दूर ठेलों पर माल ढोते हैं... कई जगह चढ़ाई भी होती है... जब मज़दूर चढ़ाई पर मुश्किल से ठेला खींच रहा होता है, तो अकसर कई लोग उसकी मदद कर देते हैं... ट्रैफ़िक पुलिसकर्मियों को भी हमने इस तरह की मदद करते हुए देखा है.
इसी तरह रिक्शे वालों के पहिये के पास कुछ स्कूटर या बाइक सवार अपना पैर लगा देते हैं, जिससे उससे चढ़ाई में आसानी हो जाती है... अच्छा लगता है, ये सब देखकर... वाक़ई इंसानियत अभी ज़िन्दा है...
किसी की मदद करना शर्म की नहीं, बल्कि फ़ख़्र की बात है... 
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शुक्रिया


कभी किसी को बुरा नहीं कहना चाहिए... क्योंकि कई नास्तिक ख़ुदा के बंदों के लिए वो महान काम कर गए हैं, जो आस्तिक भी न कर पाए...
आज हमारी ज़िन्दगी बहुत आसान है... बिजली है, बिजली और तेल से चलने वाली तमाम सहूलियात की चीज़ें हमें मयस्सर हैं...
ज़रा सोचो, जब ये सब चीज़ें न थीं, तब इंसान की ज़िन्दगी कितनी मुश्किलात भरी रही होगी...
हम उन सभी लोगों के शुक्रगुज़ार हैं, जिनकी वजह से आज हम आराम की ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं और ये पोस्ट भी लिख पा रहे हैं...
आप जहां भी हों, आपको हमारा सलाम...
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पूरे चांद की रात...


फ़िरदौस ख़ान
आज भी पूरे चांद की रात है... हमेशा की तरह ख़ूबसूरत... इठलाती हुई... अंगनाई में लगी चमेली में खिले सफ़ेद फूल अपनी भीनी-भीनी महक से माहौल को और रूमानी बना रहे हैं... नींद आंखों से कोसों दूर है... कल से वह दिल्ली से बाहर हैं... आज रात भी शायद नींद न आए... चांद अब भी आसमान में मुस्करा रहा है... उसकी दूधिया चांदनी अंगनाई में बिखरी हुई है... चमेली की शाख़ें हवा से झूम रही हैं... मौसम बदल रहा है... हवा में ख़ुनकी है... सोचती हूं कोई किताब ही पढ़ ली जाए... मेज़ पर कृष्ण चंदर की कहानियों की उर्दू की एक किताब रखी है, जिसे कई बार पढ़ चुके हैं...

हमें कृष्ण चंदर की किताबें पढ़ना बहुत अच्छा लगता है... यह कृष्ण चंदर के लेखन की ख़ासियत रही कि उन्होंने जितनी शिद्दत से ज़िंदगी की दुश्वारियों को पेश किया, उतनी ही नफ़ासत के साथ मुहब्बत के रेशमी जज़्बे को भी अपनी रचनाओं में इस तरह पेश किया कि पढ़ने वाला उसी में खोकर रह गया. उनके उपन्यास मिट्टी के सनम में एक नौजवान की बचपन यादें हैं, जिसका बचपन कश्मीर की हसीन वादियों में बीता. इसे प़ढकर बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं. इसी तरह उनकी कहानी पूरे चांद की रात तो दिलो-दिमाग़ में ऐसे रच-बस जाती है कि उसे कभी भुलाया ही नहीं जा सकता है. बानगी देखिए:-

अप्रैल का महीना था. बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बहार की लताफ़त आ गई थी. बुलंद व बाला तिनकों के नीचे मख़मली दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सफ़ेद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे. अगले माह तक ये सफ़ेद फूल इसी दूब में जज़्ब हो जाएंगे और दूब का रंग हरा सब्ज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएंगे नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा. लेकिन अभी अप्रैल का महीना था. अभी पत्तियां नहीं फूटी थीं. अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था. अभी पगडंडियों का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूंजा न था. अभी समल की झील पर कंवल के चिराग़ रौशन न हुए थे. झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था, जो बहार की आमद पर यकायक उसकी सतह पर एक मासूम और बेलोस हंसी की तरह खिल जाएंगे. पुल के किनारे-किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शिगूफ़े चमकने लगे थे. अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार की नक़ीब बनकर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं. फूलों के नन्हे-नन्हे शिकारे सतह आब पर रक्सा व लरज़ा बहार की आमद के मुंतज़िर हैं.

और अब मैं अड़तालीस बरस के बाद लौट के आया हूं. मेरे बेटे मेरे साथ हैं. मेरी बीवी मर चुकी है, लेकिन मेरे बेटों की बेटियां और उनके बच्चे मेरे साथ हैं और हम लोग सैर करते-करते समल झील के किनारे आ निकले हैं और अप्रैल का महीना है और दोपहर से शाम हो गई है और मैं देर तक पुल के किनारे खड़ा बादामों के पेड़ों की क़तारें देखता जाता हूं और ख़ुनक हवा में सफ़ेद शगू़फों के गुच्छे लहराते जाते हैं और पगडंडी की ख़ाक पर से किसी के जाने पहचाने क़दमों की आवाज़ सुनाई नहीं देती. एक हसीन दोशीज़ा लड़की हाथों में एक छोटी सी पोटली दबाए पुल पर से भागती हुई गुज़र जाती है और मेरा दिल धक से रह जाता है. दूर बस्ती में कोई बीवी अपने ख़ाविंद को आवाज़ दे रही है. वह उसे खाने पर बुला रही है. कहीं से एक दरवाज़ा बुलंद होने की आवाज़ आती है और एक रोता हुआ बच्चा यकायक चुप हो जाता है. छतों से धुआं निकल रहा है और परिंदे शोर मचाते हुए एकदम दरख्तों की घनी शाख़ों में अपने पर फड़फड़ाते हैं और फिर एकदम चुप हो जाते हैं. ज़रूर कोई गा रहा है और उसकी आवाज़ गूंजती गूंजती उफ़क़ के उस पार गुम होती जा रही है. मैं पुल को पार करके आगे बढ़ता हूं. मेरे बेटे और उनकी बीवियां और बच्चे मेरे पीछे आ रहे हैं. वे अलग-अलग टोलियों में बटे हुए हैं. यहां पर बादाम के पेड़ों की क़तार ख़त्म हो गई. तल्ला भी ख़त्म हो गया. झील का किनारा है. यह ख़ूबानी का दरख्त है, लेकिन कितना बड़ा हो गया है. मगर किश्ती, यह किश्ती है. मगर क्या यह वही किश्ती है. सामने वह घर है. मेरी पहली बहार का घर. मेरी पूरे चांद की रात की मुहब्बत.

घर में रौशनी है. बच्चों की सदाएं हैं. कोई भारी आवाज़ में गाने लगता है. कोई बुढ़िया चीख़कर उसे चुप करा देती है. मैं सोचता हूं, आधी सदी हो गई. मैंने उस घर को नहीं देखा. देख लेने में क्या हर्ज है. मुझे घर के अंदर घुसते देखकर मेरे घर के सदस्य भी अंदर चले आए थे. बच्चे एक दूसरे से बहुत जल्द मिलजुल गए. हम दोनों आहिस्ता-आहिस्ता बाहर चले आए. आहिस्ता-आहिस्ता झील के किनारे चलते गए. मैंने कहा-मैं आया था. मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापस चला गया था. वह बोली-अरे वह तो मेरा सगा भाई था. वह फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी. वह मुझसे मिलने आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे. वह वापस जा रहा था. मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिलके जाए. तुम फिर आए ही नहीं. वह एकदम संजीदा हो गई. छह बरस मैंने तुम्हारा इंतज़ार किया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे ख़ुदा ने एक बेटा दिया. तुम्हारा बेटा. मगर एक साल बाद वह भी मर गया. चार साल और मैंने तुम्हारी राह देखी, मगर तुम नहीं आए. फिर मैंने शादी कर ली.

हम दोनों चुप हो गए. बच्चे खेलते-खेलते हमारे पास आ गए. उसने मेरी पोती को उठा लिया, मैंने उसके पोते को. और हम ख़ुशी से एक दूसरे को देखने लगे. उसकी पुतलियों में चांद चमक रहा था और वह चांद हैरत और मुसर्रत से कह रहा था- इंसान मर जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी नहीं मरती. बहार ख़त्म हो जाती है, लेकिन फिर दूसरी बहार आ जाती है. छोटी-छोटी मुहब्बतें भी ख़त्म हो जाती हैं, लेकिन ज़िंदगी की बड़ी और अज़ीम सच्ची मुहब्बतें हमेशा क़ायम रहती हैं. तुम दोनों पिछले बहार में न थे. यह बहार तुमने देखी. उससे अगली बहार में तुम न होगे. लेकिन ज़िंदगी फिर भी होगी और जवानी भी होगी और ख़ूबसूरती और रानाई और मासूमियत भी. बच्चे हमारी गोद से उतर पड़े, क्योंकि वे अलग से खेलना चाहते थे. वे भागते हुए ख़ूबानी के दरख्त के क़रीब चले गए. जहां किश्ती बंधी थी. मैंने पूछा-यह वही दरख़्त है. उसने मुस्कराकर कहा- नहीं यह दूसरा दरख़्त है.
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राहे-हक़


एक बुज़ुर्ग थे. एक रोज़ रात में उन्होंने देखा कि एक फ़रिश्ता हाथ में सुनहरी किताब लिए टहल रहा है. उन्होंने फ़रिश्ते से उस किताब के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि इस किताब में उन लोगों के नाम दर्ज हैं, जो ख़ुदा से मुहब्बत करते हैं.
उन्होंने पूछा कि क्या इस किताब में मेरा नाम है?
फ़रिश्ते ने कहा कि इस किताब में आपका नाम नहीं है.
फिर दूसरे रोज़ रात में बुज़ुर्ग को वही फ़रिश्ता नज़र आया. उसके हाथ में इस बार भी एक सुनहरी किताब थी.
उन्होंने किताब के बारे में सवाल किया, तो फ़रिश्ते ने बताया कि इस किताब में उन लोगों के नाम दर्ज हैं, जो ख़ुदा के बंदों से मुहब्बत करते हैं.
उन्होंने पूछा कि क्या इस किताब में मेरा भी नाम है.
फ़रिश्ते ने बताया कि इस किताब में सबसे ऊपर आपका नाम है.
..............
हमने एक बलॊग राहे-हक़ बनाया है, जिसमें रूहानियत है, ख़ल्के-ख़िदमत का जज़्बा है... ये बलॊग हमने अपने पापा मरहूम सत्तार अहमद को समर्पित किया है...
आपसे ग़ुज़ारिश है कि इसे ज़रूर देखें, और हमें मशविरा दें कि हम इसे और बेहतर कैसे बना सकते हैं... बलॊग के लिए आपके सुझाव और रूहानियत, इबादत से जुड़ी तहरीरें आमंत्रित हैं.
http://raahe-haq.blogspot.in/
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जो बीत गए फिर वो ज़माने नहीं आते...


होंठों पे मुहब्बत के तराने नहीं आते
जो बीत गए फिर वो ज़माने नहीं आते

हल कोई जुदाई का निकालो मेरे हमदम
अब ख़्वाब भी नींदों में सताने नहीं आते

बादल तो गरजते हैं, मगर ये भी हक़ीक़त
आंगन में घटा बनके वो छाने नहीं आते

क़दमों में बहारें तो बहुत रहती हैं लेकिन
'फ़िरदौस' को ये रास ख़ज़ाने नहीं आते
-फ़िरदौस ख़ान
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उसने कहा था...


वो ख़्वाब था
या हक़ीक़त
ज़ेहन में नहीं
बस इतना याद है
उसने कहा था-
मैं आऊंगा
मेरा इंतज़ार करना...
-फ़िरदौस ख़ान


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उम्रभर की ख़िज़ां...


वो चाहता है
मैं कोई गीत लिखूं
मुहब्बत के मौसम का
लेकिन
उसको कैसे बताऊं
क़ातिबे-तक़दीर ने
 मेरे मुक़द्दर में
लिख डाली है
उम्रभर की ख़िज़ां...
-फ़िरदौस ख़ान

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तेरी ख़ामोश निगाहों मे अया होता है...



तेरी ख़ामोश निगाहों मे अया होता है
मुझको मालूम है उल्फ़त का नशा होता है

मुझसे मिलता है वो जब भी मेरे हमदम की तरह
उसकी पलकों पे कोई ख़्वाब सजा होता है

चैन कब पाया है मैंने ये न पूछो मुझसे
मैं करूं शिकवा तो नाराज़ ख़ुदा होता है

हाथ भी रहते हैं साये में मेरे आंचल के
जब हथेली पे तेरा नाम लिखा होता है
-फ़िरदौस ख़ान
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किताबे-इश्क़ की पाक आयतें


मेरे महबूब
मुझे आज भी याद हैं
वो लम्हे
जब तुमने कहा था-
तुम्हारी नज़्में
महज़ नज़्में नहीं हैं
ये तो किताबे-इश्क़ की
पाक आयतें हैं...
जिन्हें मैंने हिफ़्ज़ कर लिया है
और
मैं सोचने लगी-
मेरे लिए तो
तुम्हारा हर लफ़्ज़ ही
कलामे-पाक की मानिंद है
जिसे मैं कलमे की तरह
हमेशा पढ़ते रहना चाहती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान

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स्मिता पाटिल : कलात्मक फ़िल्मों की जान


फ़िरदौस ख़ान
हिंदी सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री स्मिता पाटिल को उनकी जीवंत और यादगार भूमिकाओं के लिए जाना जाता है. उन्होंने पहली ही फ़िल्म से अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था, लेकिन ज़िंदगी ने उन्हें ज़्यादा वक़्त नहीं दिया. स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर, 1955 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था. उनके पिता शिवाजीराव पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे. उनकी माता सामाजिक कार्यकर्ता थीं. उनकी शुरुआती शिक्षा मराठी माध्यम के एक स्कूल से हुई थी. कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह मराठी टेलीविजन में बतौर समाचार वाचिका काम करने लगीं. ख़ूबसूरत आंखों वाली सांवली सलोनी स्मिता पाटिल का हिंदी सिनेमा में आने का वाक़िया बेहद रोचक है. एक दिन प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल ने उन्हें टीवी पर समाचार पढ़ते हुए देखा. वह स्मिता के नैसर्गिक सौंदर्य और समाचार वाचन से प्रभावित हुए बिना न रह सके. उन दिनों वह अपनी फ़िल्म चरणदास चोर बनाने की तैयारी कर रहे थे. स्मिता पाटिल में उन्हें एक उभरती अभिनेत्री दिखाई दी. उन्होंने स्मिता पाटिल से मुलाक़ात कर उन्हें अपनी फ़िल्म में एक छोटा-सा किरदार निभाने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने क़ुबूल कर लिया. हालांकि यह एक बाल फ़िल्म थी. फ़िल्म में न केवल स्मिता पाटिल के अभिनय की बेहद सराहना हुई, बल्कि इस फ़िल्म ने समानांतर सिनेमा को स्मिता के रूप में एक नया सितारा दे दिया. और फिर यहीं से उनका अभिनय का सफ़र शुरू हो गया, जो उनकी मौत तक जारी रहा. श्याम बेनेगल ने एक बार कहा था, मैंने पहली नज़र में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में ग़ज़ब की स्क्रीन उपस्थिति है और जिसका इस्तेमाल रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है.

1975 स्मिता ने श्याम बेनेगल की फ़िल्म निशांत में काम किया. इसके बाद 1977 में उनकी भूमिका और मंथन जैसी कामयाब फ़िल्में प्रदर्शित हुईं. 1978 में उन्हें फ़िल्म भूमिका में सशक्त अभिनय करने के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इस फ़िल्म में उन्होंने 30-40 के दशक में मराठी रंगमच से जुड़ी अभिनेत्री हंसा वाडेकर की निजी ज़िंदगी को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसी साल यानी 1978 में ही उन्हें मराठी फ़िल्म जॅत रे जॅत के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 1981 में उन्हें फ़िल्म चक्र के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर और नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड दिया गया. 1980 में प्रदर्शित इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल ने झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला का किरदार निभाया था. स्मिता पाटिल ने समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यवसायिक सिनेमा में भी अपनी अभिनय प्रतिभा के जलवे बिखेरे. जहां उनकी बाज़ार, भीगी पलकें, अर्थ, अर्ध सत्य और मंडी जैसी कलात्मक फ़िल्में सराही गईं, वहीं दर्द का रिश्ता, आख़िर क्यों, ग़ुलामी, अमृत और नज़राना, नमक हलाल और शक्ति जैसी व्यवसायिक फ़िल्में भी लोकप्रिय हुईं. 1985 में आई उनकी फ़िल्म मिर्च-मसाला ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई. सौराष्ट्र की आज़ादी से पहले की पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म उस दौर की सामंतवादी व्यवस्था के बीच पिसती एक महिला के संघर्ष को दर्शाती है. दुग्ध क्रांति पर बनी उनकी फ़िल्म मंथन के कुछ दृश्य आज भी टेलीविजन पर देखने को मिल जाते हैं.  इस फ़िल्म के निर्माण के लिए गुजरात के तक़रीबन पांच लाख किसानों ने अपनी मज़दूरी में से दो-दो रुपये फ़िल्म निर्माताओं को दिए थे. स्मिता पाटिल की दूसरी फ़िल्मों की तरह यह भी कामयाब साबित हुई. स्मिता पाटिल ने महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे के साथ भी काम किया. उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेली़फ़िल्म सद्‌गति में दमदार अभिनय कर इसे ऐतिहासिक बना दिया. स्मिता पाटिल को भारतीय सिनेमा में उनके  योगदान के लिए 1985 में पदमश्री से सम्मानित किया गया.

उन्होंने शादीशुदा अभिनेता राज बब्बर से प्रेम विवाह किया. उनके लिए राज बब्बर ने अपनी पत्नी नादिरा ज़हीर को छोड़ दिया था. स्मिता पाटिल अपनी नई ज़िंदगी से बहुत ख़ुश थीं, लेकिन क़िस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था. बहुत कम उम्र में वह इस दुनिया को छोड़ गईं. बेटे प्रतीक को जन्म देने के कुछ दिनों बाद 13 दिसंबर, 1986 को उनकी मौत हो गई. उनकी मौत के बाद 1988 में फ़िल्म वारिस प्रदर्शित हुई, जो उनकी यादगार फ़िल्मों में से एक है. अभिनेत्री रेखा ने इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल के लिए डबिंग की थी.

हिंदी सिनेमा में स्मिता पाटिल की प्रतिद्वंद्विता शबाना आज़मी से थी. स्मिता पाटिल की तरह शबाना आज़मी भी श्याम बेनेगल की ही खोज थीं. स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी के बीच मुक़ाबले की बातें काफ़ी चर्चित हुईं. फ़िल्म अर्थ और मंडी में दोनों अभिनेत्रियों ने साथ-साथ काम किया. दोनों फ़िल्मों की समीक्षकों ने ज़्यादा सराहना की. स्मिता पाटिल का मानना था कि उनकी भूमिका में काफ़ी बदलाव किया गया था. इसके बाद ही उन्होंने व्यवसायिक फ़िल्मों का रुख़ कर लिया. शुरू में उन्हें काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने ख़ुद को वक़्त के हिसाब से ढाल लिया. नतीजतन, उनकी व्यवसायिक फ़िल्में भी बेहद कामयाब रहीं. स्मिता पाटिल के साथ शक्ति और नमक हलाल जैसी फ़िल्मों में करने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन का कहना है कि स्मिता जी कमर्शियल फ़िल्में करने से हिचकिचाती थीं. वह नाचने-गाने में असहज महसूस करती थीं. जब भी वह इस तरह की कोई फ़िल्म करती थीं ख़ुद को पूरी तरह से निर्देशक के हाथों में सौप देती थीं. अमिताभ बच्चन उनकी महानता और सादगी के भी क़ायल रहे हैं. बक़ौल अमिताभ बच्चन, शक्ति की शूटिंग के दौरान हम फ़िल्म के कुछ हिस्से चेन्नई में फ़िल्मा रहे थे. स्मिता जी मेरे पास आईं और बोलीं, नमक हलाल करने के बाद लोग मुझे पहचानने लगे हैं. मुझे लगता है कि यह स्मिता जी की महानता थी, जो वह यह बात कह रही थीं, क्योंकि वह तो हिंदी सिनेमा का एक जाना माना नाम थीं.

स्मिता पाटिल की सादगी ही उन्हें ख़ास बनाती थी. स्मिता पाटिल के साथ फ़िल्म गमन में काम करने वाले नाना पाटेकर कहते हैं कि मैं और स्मिता एक दूसरे से काफ़ी हंसी-मज़ाक़ किया करते थे. मैं उसे काली-कलूटी कहकर चिड़ाता था, तो वह मुझे कहती थी कि ये काला रंग ही तो उसकी ख़ासियत है, तभी तो लोग उसे प्यार करते हैं. फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट स्मिता पाटिल का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि स्मिता पाटिल सुंदर और साहसी थीं. उनके ललाट पर ही शायद दुर्भाग्य लिखा था. मैं इसे खुलेआम स्वीकार करना चाहता हूं कि उनके आकस्मिक निधन से मैं कभी उबर नहीं पाया. नियति का खेल देखें कि वह मां बनीं. उन्होंने एक शिशु को जन्म दिया. एक जीवन देने के साथ ही वह मौत की आग़ोश में चली गईं. ग़म और कुछ नहीं के बीच मैं ग़म को अपनाना चाहूंगी, स्मिता पाटिल ने मेरी आत्मकथात्मक फ़िल्म अर्थ की कहानी सुनने के बाद मुझे यह नोट भेजा था. उसमें उन्हें एक पागल अभिनेत्री की भूमिका निभानी थी. तमाम विकल्पों के बीच उन्होंने उस फ़िल्म के लिए हां की थी. उसकी एक ही वजह थी कि उस किरदार से उन्हें सहानुभूति हुई थी. सहानुभूति की वजह यही हो सकती है कि उन दिनों वह स्वयं शादीशुदा राज बब्बर के साथ ख़तरनाक रिश्ते को जी रही थीं. अपने पास प्रेमी को रखने की चाह और एक घर तो़ड़ने के अपराध की भावना के बीच वह झूल रही थीं. इस भूमिका में इतना विषाद है कि इसे निभाने से मुझे राहत मिलेगी, अर्थ का पहला दृश्य करने के बाद उन्होंने कहा था. हम लोग एक पंचसितारा होटल के कमरे में उस दृश्य की शूटिंग कर रहे थे. इस दृश्य में वह अपने दुर्भाग्य और अवैध संबंध का रोना रो रही थीं. अर्थ का सेट उनके लिए आईना था, जिसमें वह अपने दर्दनाक वर्तमान की झलक देख रही थीं. वह हर दिन सुबह खेल के मैदान में जा रहे बच्चे के उत्साह के साथ सेट पर आती थीं और पिछले दिन अपने प्रेमी के साथ गुज़रे अनुभव और पीड़ा को कैमरे के सामने उतार देती थीं. प्रकृति ने उन्हें अकेलेपन का क़ीमती उपहार दिया था. इस अकेलेपन ने ही उनकी कला को जन्म दिया था. वह प्राय: कहा करती थीं, इस इंडस्ट्री में हर व्यक्ति अकेला है. एक रात मैं थोड़ी देर से घर लौटा तो मेरी बीवी ने बताया कि लिविंग रूम में कोई मेरा इंतज़ार कर रहा है. कमरे में दाख़िल होने के बाद मैंने देखा कि स्मिता पाटिल मेरी तरफ़ पीठ किए खड़ी थीं और बड़े ग़ौर से अपनी हथेली निहार रही थीं. वह रो रही थीं. उन्होंने अपनी हथेली मेरी तरफ़ ब़ढाते हुए कहा, क्या आपने मेरी हथेली में जीवनरेखा देखी है? यह बहुत छोटी है. मैं ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहूंगी. उसके बाद उन्होंने जो बात कहीं, वह मैं अपनी अंतिम सांस तक नहीं भूल सकता. उन्होंने आगे कहा कि महेश, मरने का डर सबसे बड़ा डर नहीं होता. जीने का डर मरने से बड़ा होता है. वह मेरे सामने रात भर पत्तों की तरह कांपती रहीं. शायद अपनी मौत के बारे में सोच कर वह घबरा रही थीं. सुबह होने पर वह अपने घर लौटीं. सुबह की नीम रोशनी में पूरी तरह से टूटी हुई, लड़खड़ाते क़दमों से अपनी कार की तरफ़ जाती उनकी छवि आज भी मेरे दिमाग़ में कौंधती है. वह बहुत सुंदर दिख रही थीं. मुझे यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं है कि अर्थ में जो भावनात्मक उबाल मैं दिखा पाया था, वह स्मिता की निजी ज़िंदगी के ईंधन के बिना मुमकिन नहीं होता.

हिंदी के अलावा मराठी, गुजराती, तेलुगू, बांग्ला, कन्ऩड और मलयालम फ़िल्मों में भी काम किया. उनकी हिंदी फ़िल्मों में चरणदास चोर, निशांत, मंथन, कोंद्रा, भूमिका, गमन, द नक्सलिटाइस, आक्रोश, सद्‌गति, अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है, चक्र, तजुर्बा, भीगी पलकें, बाज़ार, दिल-ए-नादान, नमक हलाल, बदले की आग, शक्ति, सुबह, मंडी, अर्थ, चटपटी, घुंघरू, दर्द का रिश्ता, हादसा, क़यामत, अर्धसत्य, पेट प्यार और पाप, शपथ, क़ानून मेरी मुट्ठी में, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, गिद्ध, तरंग, फ़रिश्ता, शराबी, आनंद और आनंद, आज की आवाज़, रावण, क़सम पैदा करने वाले की, जवाब,  आख़िर क्यों, हम दो हमारे दो, ग़ुलामी,  मेरा घर मेरे बच्चे, अंगारे, कांच की दीवार, दिलवाला, आपके साथ, अमृत, तीसरा किनारा, अनोखा रिश्ता, दहलीज़, सूत्रधार, नज़राना, शेर शिवाजी, देवशिशु, इंसानियत के दुश्मन, मिर्च मसाला, डांस डांस, राही, अवाम, ठिकाना, आकर्षण, हम फ़रिश्ते नहीं, वारिस, गलियों का बादशाह और सितम आदि शामिल हैं.

भले ही आज स्मिता पाटिल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी फ़िल्मों के ज़रिये वह हमेशा अपने प्रशंसकों के बीच रहेंगी. बहरहाल, इस साल के शुरू में अभिनेता और कांग्रेस सांसद राज बब्बर ने कहा था कि अब वह ए बुक ऑफ पैन नामक किताब लिखने वाले हैं, जिसमें वह अपने और स्मिता पाटिल के प्रेम के बारे में भी लिखेंगे. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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सांवली सलोनी रामेश्वरी


फ़िरदौस ख़ान
ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए शायद क़िस्मत का साथ होना भी ज़रूरी होता है. सांवली सलोनी अभिनेत्री रामेश्वरी को देखकर यही बात ज़ेहन में आती है. आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा में जन्मी तल्लुरी रामेश्वरी को हिंदी सिनेमा में रामेश्वरी  के नाम से जाना जाता है. वह अपनी पहली ही फ़िल्म दुल्हन वही जो पिया मन भाये से लोकप्रिय हो गई थीं. 1977 में बनी राजश्री प्रोडक्शन की इस फ़िल्म में रामेश्वरी ने कम्मो का किरदार निभाया था. देश भर के सिनेमाघरों में इस फ़िल्म ने सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली मनाई. इसी के साथ रामेश्वरी रातोरात स्टार बन गईं. इस फ़िल्म की कहानी घरेलू थी, जो जनमानस के बेहद क़रीब थी. कहानी के पात्र भी आम लोगों के बीच से लिए गए लगते थे. फ़िल्म में मदन पुरी, प्रेम किशन, इफ्त़िखार, शशि कला, श्यामली, शिवराज, सुंदर, लीला मिश्रा, सविता बजाज, पिलू वाडिया, विजू खोटे और जगदीप ने भी अभिनय किया. फ़िल्म का गीत-संगीत भी मधुर और कर्णप्रिय था. इसका संगीत रवींद्र जैन ने दिया था. गीत ले तो आये हो हमें सपनों के गांव में प्यार की छांव में बिठाए रखना सजना ओ सजना, श्यामा ओ श्यामा, अचरा में फुलवा लईके आए रे हम तोहरे द्वार आदि आज भी ख़ासे पसंद किए जाते हैं. उनकी फ़िल्म सुनयना भी ख़ासी पसंद की गई. इसमें उन्होंने एक नेत्रहीन लड़की का किरदार निभाया था. इस फ़िल्म के गीत भी बेहद लोकप्रिय हुए.
सुनयना सुनयना सुनयना सुनयना 
आज इन नज़ारों को तुम देखो 
और मैं तुम्हें देखते हुए देखूं 
मैं बस तुम्हें देखते हुए देखूं ...

यूं तो शुरू से ही हिंदी सिनेमा में गोरी लड़की को अभिनेत्री के लिए अच्छा माना जाता रहा है, लेकिन इसके बावजूद सांवली लड़कियों ने अपनी अभिनय प्रतिभा के दम पर बेहद लोकप्रियता हासिल की है. 70 के दशक में भी सांवले रंग की लड़कियों को स्टार मैटेरियल नहीं माना जाता था. हालांकि जया भादु़डी ने छोटा क़द और सांवला रंग होने के बाद भी कामयाबी हासिल की. रामेश्वरी ने जब हिंदी सिनेमा में करियर शुरू किया, तब जया भादु़डी अमिताभ बच्चन से विवाह करके श्रीमती बच्चन बन चुकी थीं. जया बच्चन ने फ़िल्मों से दूरी बना ली थी, क्योंकि अब वह सिर्फ़ गृहिणी बनकर ही रहना चाहती थीं. ऐसे में सांवली सलोनी रामेश्वरी में लोगों को जया बच्चन की छवि नज़र आने लगी. रामेश्वरी ने एकदम भारतीय सुसंस्कृत महिला की छवि को अपनाया. दर्शकों को उनमें आदर्श बेटी, आदर्श पत्नी और आदर्श बहू की छवि दिखने लगी, जिसने उनकी लोकप्रियता में चार चांद लगा दिए.

लेकिन क़िस्मत ने उनका साथ ज़्यादा दिनों तक नहीं दिया. 1979 में बनी फ़िल्म सुनयना की शूटिंग के दौरान उनकी आंख में चोट लग गई. इसकी वजह से उनकी एक आंख छोटी हो गई. इस हादसे ने उनके करियर पर ग्रहण लगा दिया. उन्हें फ़िल्में मिलना बंद हो गईं. उन्हें जो किरदार मिले वह सह अभिनेत्री के थे. उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था. रामेश्वरी ने हालात से समझौता कर सह अभिनेत्री के किरदार निभाने शुरू कर दिए. फ़िल्म आशा के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री के अवॉर्ड के लिए नामांकित किया गया. उनके करियर का एक दूसरा पहलू यह भी रहा कि उन्हें किसी नामी अभिनेता के साथ काम करने का मौक़ा नहीं मिला, जैसे दक्षिण भारत की अन्य अभिनेत्रियों वैजयंती माला, वहीदा रहमान और हेमा मालिनी को मिला. उनके बाद दक्षिण भारत से हिंदी सिनेमा में आईं जया प्रदा और श्रीदेवी ने बड़े अभिनेताओं के साथ काम किया, जिससे उनके करियर को बहुत फ़ायदा हुआ. रामेश्वरी ने फ़िल्म दुल्हन वही जो पिया मन भाये में प्रेम किशन के साथ काम किया. इसी तरह फ़िल्म मान अभिमान, साजन मेरे मैं साजन की और वक़्त वक़्त की बात में राज किरण, फ़िल्म मुझे क़सम है में मुकेश खन्ना के साथ काम किया. हालांकि फ़िल्म सुनयना में उनके नायक नसीरुद्दीन शाह थे. ख़ास बात यह है कि नसीरुद्दीन शाह कलात्मक फ़िल्मों के लिए तो ठीक हैं, लेकिन कमर्शियल फ़िल्मों के लिए उन्हें सही नहीं माना जाता है. इसी फ़िल्म के दौरान उनके साथ हादसा भी हुआ, जिसने उनके करियर का रुख़ बदल दिया. रामेश्वरी को फ़िल्म अग्नि परीक्षा में अमोल पालेकर, शारदा और आशा में जितेंद्र, कालका में शत्रुघ्न सिन्हा के साथ काम करने का मौक़ा ज़रूर मिला, लेकिन इन फ़िल्मों में वह मुख्य भूमिका में नहीं थीं. फ़िल्म वक़्त वक़्त की बात में राकेश रोशन, मेरा रक्षक, आदत से मजबूर फ़िल्मों में मिठुन चक्रवर्ती सहनायक थे, लेकिन इनमें रामेश्वरी के अलावा अन्य अभिनेत्रियां भी थीं. इतना ही नहीं उन्हें अव्वल दर्जे के निर्देशकों के साथ काम करने का मौक़ा नहीं मिल पाया, जो उनकी अभिनय प्रतिभा को पहचान कर उन्हें ऐसे किरदार दे पाते जो उनके करियर को कामयाबी की बुलंदियों तक ले जाते. अरुणा ईरानी जैसी सह अभिनेत्रियों ने भी अपनी अभिनय क्षमता के बूते हिंदी सिनेमा में अपनी एक विशेष पहचान बनाई है. रामेश्वरी का हिंदी सिनेमा से मोह भंग हो गया. उन्होंने दक्षिण की राह ली और तेलुगू फ़िल्मों में अभिनय करना शुरू कर दिया. तेलुगु फ़िल्मों के प्रतिष्ठित फ़िल्मकार के विश्वनाथ की 1978 में बनी फ़िल्म सीतामालक्ष्मी उनके करियर की क्लासिक फ़िल्म मानी जाती है. इसके अलावा उन्होंने तेलुगू फ़िल्म चिन्नोडु पेड्डोडु (1988), निजाम (2003) और नंनदनावनम में भी अपनी प्रतिभा के जलवे बिखेरे. फ़िल्म चिन्नोडु पेड्डोडु के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री के नंदी सम्मान से नवाज़ा गया. लेकिन यहां भी उन्हें ज़्यादा काम नहीं मिला और उन्होंने छोटे परदे को अपना लिया. उन्होंने टेलीविजन धारावाहिक कैरी, मितवा फूल कमाल के, जब लव हुआ, बाबुल का आंगन छूटे न, प़डौसी और चमत्कार में अभिनय किया. उनकी प्रमुख हिंदी फ़िल्मों में दुल्हन वहीं जो पिया मन भाये (1977), मेरा रक्षक (1978), सुनयना (1979), आशा (1980), मान अभिमान (1980), शारदा (1981), अग्नि परीक्षा (1981), आदत से मजबूर (1981), कालका (1983), एक नया इतिहास, मान मर्यादा (1984), मुझे क़सम है (1985), भाई का दुश्मन भाई, प्यारी भाभी (1986), हम फ़रिश्ते नहीं (1987), कुछ तुम कहो कुछ हम कहें (2002), बंटी और बबली (2005), फ़ालतू (2011) आदि शामिल हैं. रामेश्वरी ने हिंदी और तेलुगू के अलावा मलयालम, कन्नड़, बंगाली, उड़िया  और भोजपुरी फ़िल्मों में भी काम किया.

रामेश्वरी ने पुणे फ़िल्म एंड टीवी इंस्टीट्यूट से 1975 में अभिनय में स्नातक की डिग्री हासिल की. इंस्टीट्यूट के सहपाठी और पंजाबी फ़िल्मों के अभिनेता-निर्माता दीपक सेठ से शादी की. उनके दो बेटे भास्कर प्रताप और सूर्य प्रेम हैं. रामेश्वरी ने अपने पति के साथ मिलकर 1988 में हिंदी फ़िल्म हम फ़रिश्ते नहीं का निर्माण किया. इस फ़िल्म में उन्होंने अभिनय भी किया है. उन्होंने 2007 में शेक्सपीयर के नाटक द कॉमेडी ऑफ़ एरर्स पर आधारित पंजाबी फ़िल्म भी बनाई.

फ़िल्मों से दूरी बना लेने के बारे में रामेश्वरी का कहना है, मैंने फ़िल्मों से संन्यास नहीं लिया है. फ़िल्मों में काम करने की ख्वाहिश होती है, लेकिन ऐसा लगता है फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मुझे भूल गए हैं. प्रशिक्षित अभिनेत्री होने के बावजूद वह मानती हैं कि कामयाबी और बेहतरीन अभिनय के लिए किसी तरह के औपचारिक प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं होती.

बेशक प्रतिभा तो जन्मजात होती है. प्रशिक्षण किसी की प्रतिभा को निखार सकता है, उसे पैदा नहीं कर सकता. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)



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फ़िरदौसी का शाहकार शाहनामा


न मीरम अज़इन, पस की मन ज़िन्देअम
कि तु़ख्मे सु़ख्न रा कराकन्दे अम

अपने इस शेअर में फ़ारसी के मशहूर शायर फ़िरदौसी कहते हैं कि मैं कभी मरूंगा नहीं, क्योंकि मैंने फ़ारसी शायरी के जो बीज बिखेरे हैं, वे दुनिया के रहने तक लहलहाते रहेंगे और मैं उनकी वजह से हमेशा ज़िंदा रहूंगा. बेशक, फ़िरदौसी ने अपने शेअर रूपी शब्द तहज़ीब की धरती पर बिखेर दिए और तब से शाहनामा की शक्ल में वे आज भी फ़िरदौसी को ज़िंदा रखे हुए हैं और रहती दुनिया तक उनके कलाम की रौशनी तहज़ीब की राहों को रौशन करती रहेगी.
शाहनामा के लिए फ़िरदौसी दुनिया भर में जाने जाते हैं. उनका जन्म 940 में ईरान के ख़ुरासान के तूस क़स्बे में हुआ था. उनका पूरा नाम अबू अल क़ासिम हसन बिन अली तूस है. उन्होंने अपनी कालजयी कृति शाहनामा में ईरान के उन बादशाहों के बारे में लिखा है, जिनसे वह मुतासिर रहे. शाहनामा में 60 हज़ार शेअर हैं. इसे पूरा करने में उन्हें 30 साल लग गए. उन्होंने 25 फ़रवरी, 1010 को इसे मुकम्मल किया. यह महान कृति उन्होंने सुल्तान महमूद ग़ज़नवी को समर्पित की, जिसने 999 में ख़ुरासान पर फ़तह हासिल की थी. कहा जाता है कि महमूद ग़ज़नवी ने फ़िरदौसी से वादा किया था कि वह शाहनामा के हर शेअर केलिए उन्हें सोने की एक दीनार देंगे. बरसों की मेहनत के बाद जब शाहनामा तैयार हो गया और फ़िरदौसी इसे लेकर महमूद ग़ज़नबी के दरबार में गए तो उन्हें हर शेअर के लिए एक दीनार नहीं, बल्कि एक दिरहम देने को कहा गया. इस पर नाराज़ होकर फ़िरदौसी लौट आए और उन्होंने एक दिरहम भी नहीं लिया. इस वादाख़िलाफ़ी से ग़ुस्साये फ़िरदौसी ने महमूद ग़ज़नबी के ख़िलाफ़ हज्व (निंदा कविता) लिखी, जिसके शेअर पूरी सल्तनत में आग की तरह फैल गए. सुल्तान की बदनामी होने लगी. महमूद ग़ज़नवी से उसके विश्वासपात्र मंत्रियों ने आग्रह किया कि फ़िरदौसी को उसी रक़म का भुगतान कर दिया जाए, जो तय हुई थी, क्योंकि इससे जहां उनकी बदनामी रुक जाएगी, वहीं इस अमर कृति के लिए सुल्तान का इक़बाल भी बुलंद होगा. सुल्तान को यह बात पसंद आई और उसने साठ हज़ार सोने की दीनारें ऊंटों पर लदवाकर फ़िरदौसी के पास भेज दीं. जिस वक़्त ये दीनारें फ़िरदौसी के घर पहुंचीं, उस वक़्त घर से उनका जनाज़ा निकल रहा था. पूरी उम्र मुफ़लिसी में काटने के बाद फ़िरदौसी की ज़िंदगी ख़त्म हो चुकी थी. यह रक़म फ़िरदौसी की इकलौती बेटी को देने की पेशकश की गई, लेकिन उसने इसे लेने से इंकार कर दिया. इस तरह सुल्तान हमेशा फ़िरदौसी का क़र्ज़दार रहा.
हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब फ़िरदौसी में प्रस्तुतकर्ता नासिरा शर्मा ने शाहनामा की कई रचनाओं को पेश किया है. इसके साथ ही उन्होंने शाहनामा की विशेषताओं पर भी रौशनी डाली है. फ़िरदौसी को शाहनामा लिखने का ख्याल क्यों आया, इस बारे में वह लिखती हैं-वह ईरान के प्रसिद्ध कवि दकीक़ी का ज़िक्र करना नहीं भूलते हैं, जिन्होंने शाहनामा को गशतासब नामा के नाम से लिखना शुरू किया था. मगर अपने ही ग़ुलाम के हाथों क़त्ल हो जाने की वजह से यह काम अधूरा छूट गया. उसको जब फ़िरदौसी ने पढ़ा, तो उस काम को पूरा करने का प्रण किया. इसके बाद अबू मंखूर बिन मोहम्मद और सुल्तान महमूद के प्रशंसा गान के बाद वास्तव में शाहनामा की शुरुआत हुई. इसकी शुरुआत ईरान के पहले बादशाह क्यूमर्स से होकर सासानी दौर के पतन पर ख़त्म होती है. इसमें मुहब्बत, बग़ावत, बहादुरी, जंग, इंसानित और हैवानियत के कई क़िस्से मिलते हैं. इसे तीनों हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला वह जो लोक साहित्य पर आधारित है, दूसरा वह जो काल्पनिक कथाओं पर है और तीसरा वह जो ईरान का इतिहास है. इस महाकाव्य में फ़िरदौसी को अमर बनाने वाली कालजयी रचनाएं हैं, जो बार-बार पढ़ी और गाई जाती हैं, मसलन दास्तान-ए-बीज़न व मनीज़ा, सियावुश व सुदाबे, रुदाबे व जालज़र, रुस्तम व सोहराब, शतरंज की पैदाइश, शाह बहराम के क़िस्से, सिकंदर व क़ैद, जहाक़ व कावेह आहंगर आदि शामिल हैं.
दरअसल, अरबों की सत्ता का ध्वज जब ईरान पर फहराने लगा, तो ईरानी बुद्धिजीवियों के सामने भारी संकट खड़ा हुआ कि आख़िर  इस विदेशी सत्ता के साथ वे कैसा बर्ताव करें. इसी मुद्दे पर ईरानी बुद्धिजीवी वर्ग दो हिस्सों में विभाजित हो गया. एक वर्ग वह था, जो अरबी भाषा के बढ़ते सरोकार को पूर्णतया दरबार, धार्मिक स्थलों और जनसमुदाय में पनपता देख रहा था और सोच रहा था कि इस तरह से ईरानी भाषा और साहित्य का कोई नामलेवा नहीं बचेगा. शायद ईरानी विचार की भी गुंजाइश बाक़ी नहीं बचेगी और अरबी भाषा के साथ अरब विचार भी ईरानी दिल और दिमाग़ पर छा जाएंगे. इसलिए ज़रूरी है कि भाषा के झग़डे में न प़डकर ईरानी सोच को जीवित रखा जाए. इस वर्ग के ईरानी लेखक बड़ी संख्या में अरबी भाषा में उतना लेखन कार्य करने लगे और दरबार एवं विभिन्न स्थलों पर महत्वपूर्ण पद पाने लगे. दूसरा वर्ग पूर्ण रूप से अरब सत्ता से बेज़ार था. उसकी तरफ़ पीठ घुमाकर अपनी भाषा साहित्य को बचाने और संजोने की तीव्र इच्छा उसमें मचल उठी. सत्ता के विरोध में वह तलवार लेकर खड़ा तो नहीं हो सकता था, मगर वर्तमान को नकारते हुए भविष्य के लिए ज़रूर कुछ रच सकता था. इसी श्रेणी के बुद्धिजीवियों में सबसे पहला नाम फ़िरदौसी का है, जिसमें उन्होंने ख़ुद स्वीकार किया है-
बसी रंज में बुर्दम दर इन साल सी
अजम ज़िन्दा करदम बेदिन पारसी
यानी तीस साल की कोशिशों से मैंने यह महाकाव्य रचा है और फ़ारसी ने अजम (गूंगा) को अमर बना दिया. यहां अजम शब्द की व्याख्या करना ज़रूरी हो जाता है. अरबी भाषा का उच्चारण चूंकि हलक़ पर ज़ोर देकर होता है, तो उसकी ध्वनि में एक तेज़ी और भारीपन होता है, जबकि फ़ारसी भाषा में उच्चारण करते हुए ज़्यादातर जीभ के बीच के हिस्से और नोक का इस्तेमाल होता है, जिससे शब्द मुलायम और सुरीली ध्वनि लिए निकलते हैं. इतनी मद्धिम ध्वनि सुनने की आदत चूंकि अरबों को नहीं थी, इसलिए उन्होंने उपेक्षा भाव से ईरानियों को गूंगा कहना शुरू कर दिया था.
शाहनामा का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. सबसे पहला अनुवाद अरबी भाषा में छठी सदी में हुआ था. कवाम उद्दीन अबुल़फतेह ईसा बिन अली इब्ने मोहम्मद इसफाहनी ने यह अनुवाद अयूब अल फ़ातेह ईसाबिन मुल्क अब्दुल अबूबकर के नाम किया था. इसके बाद 914 हिजरी में तातार अली टुनदी ने संपूर्ण शाहनामा का अनुवाद तुर्की भाषा में किया था. तुर्की भाषा गद्य में अनुवाद का काम मेहंदी साहिब मनसबान उस्मान के दरबार में पूरा हुआ. यह अनुवाद उस्मान को 1030 हिजरी में भेंट किया गया. कुछ साल बाद 1043 हिजरी में दाराशिकोह के बेटे हुमायूं के वक़्त लाहौर में उसके दरबार के तवक्कुल बक ने शमशीर खां की फ़रमाइश पर शाहनामा के कुछ हिस्सों का गद्य और पद्य में अनुवाद मुनर्ताखिब उल तवारी़ख नाम से फ़ारसी में किया गया. पश्चिमी देशों में शाहनामा का अनुवाद सबसे पहले लंदन में 1774 में डब्ल्यू योन्स ने किया, लेकिन पूरी कृति का अनुवाद करने वाले पहले स्वदेशी जोज़फ़ शामप्यून, जो कलकत्ता में 1785 में छपा था. इसके बाद लुडोल्फ़, हैगरमैन, पेरिस में 1802 में जॉन ओहसॉन के अनुवाद सामने आए. ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1811 में शाहनामा का अनुवाद फोर्ट विलियम कॉलेज में अरबी फ़ारसी के प्रोफ़ेसर लुम्सडेन से कराया. इसके अनुवादों की फ़ेहरिस्त ख़ासी लंबी है. 

ख़ुरासान प्रांत की राजधानी मशहद से कुछ दूरी पर नीशापुर में फ़िरदौसी की क़ब्र है. यहां एक बड़ा ख़ूबसूरत बाग़ है, जिसमें फ़िरदौसी की संगमरमर की मूर्ति है. फ़िरदौसी की क़ब्र के पास की दीवारों पर उनके शेअर लिखे हुए हैं. कहा जाता है कि सदियों पहले फ़िरदौसी को दफ़नाने के लिए जब किसी क़ब्रिस्तान में जगह नहीं मिली तो उन्हें इसी बाग़ में दफ़ना दिया गया. अब यह बाग़ फ़ारसी भाषा और साहित्य प्रेमियों के लिए एक दर्शनीय स्थल के तौर पर मशहूर हो चुका है. साहित्य प्रेमी अपने महबूब शायर को याद करते हुए यहां आते हैं. शाहनामा ईरान का इतिहास ही नहीं, बल्कि ईरानी अस्मिता की पहचान है. इस महाकाव्य की तुलना होमर के इलियड और महर्षि वेदव्यास के महाभारत से की जा सकती है. 
बहरहाल, यह किताब साहित्य प्रेमियों को बेहद पसंद आएगी, क्योंकि इसमें शाहनामा के बारे में संक्षिप्त मगर महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है. इसके साथ ही इसमें शाहनामा की कई रचनाओं का हिन्दी  अनुवाद भी पेश किया गया है. 
समीक्ष्य कृति : फ़िरदौसी
प्रस्तुति : नासिरा शर्मा
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 135 रुपये
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चमकते ख़्वाब...


जब
ज़िन्दगी
किसी ख़मोश लम्हे की तरह
चुपके से
मेरे सिरहाने
आकर खड़ी हो जाती है
तब
मैं सोना चाहती हूं
अपनी पलकों की छांव में
किसी उजले दिन की तरह
चमकते ख़्वाबों को लिए हुए...
-फ़िरदौस ख़ान

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ग़ालिब की डायरी है दस्तंबू


फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तान के बेहतरीन शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने उर्दू शायरी को नई ऊंचाई दी. उनके ज़माने में उर्दू शायरी इश्क़, मुहब्बत, विसाल, हिज्र और हुस्न की तारी़फों तक ही सिमटी हुई थी, लेकिन ग़ालिब ने अपनी शायरी में ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को शामिल किया. उनकी शायरी में हक़ीक़त के रंग हैं, तो फ़लसफ़े की रोशनीभी है. हालांकि उस व़क्त कुछ लोगों ने उनका मज़ाक़ भी उ़डाया, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की. यहां तक कि ब्रिटिश हुकूमत को भी उन्होंने काफ़ी सराहा. उन्होंने 1857 के आंदोलन के दौरान रूदाद लिखी. फ़ारसी में लिखी इस रूदाद को दस्तंबू नाम से प्रकाशित कराया गया फ़ारसी में दस्तंबू का मतलब है फूलों का गुलदस्ता.

हाल में राजकमल ने दस्तंबू का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है. फ़ारसी से इसका हिंदी अनुवाद डॉ. सैयद ऐनुल हसन और संपादन अब्दुल बिस्मिल्लाह ने किया है. मिर्ज़ा ग़ालिब दस्तंबू के ज़रिए अंग्रेजों से कुछ आर्थिक सहायता हासिल करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मुंशी हरगोपाल तफ्त को कई लंबे-लंबे ख़त लिखकर किताब को जल्द प्रकाशित कराने का अनुरोध किया. इन ख़तों को भी इस किताब में प्रकाशित किया गया है. इसके साथ ही किताब के आख़िर में क्वीन विक्टोरिया की शान में लिखा क़सीदा भी है, जिससे अंग्रेज़ों के प्रति ग़ालिब की निष्ठा को समझा जा सकता है, भले ही वह उनकी मजबूरी ही क्यों न हो!

दरअसल, मिर्ज़ा ग़ालिब की इस डायरी में 1857 के हालात को पेश किया गया है. अंग्रेज़ों के दमन से परेशान होकर जब हिंदुस्तान के जांबाज़ों ने 31 मई, 1857 को सामूहिक विद्रोह करने का फ़ैसला किया, तब सैनिक मंगल पांडे ने 29 मार्च, 1857 को चर्बी लगे कारतूसों का इस्तेमाल करने से इंकार करके इस आंदोलन की शुरुआत की. नतीजतन, मंगल पांडे को गिरफ्तार कर लिया गया और 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें अंतत: फांसी दे दी गई. इस पर भारतीय सैनिकों ने बग़ावत करते हुए 10 मई, 1857 को ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया. आंदोलन की आग सबसे पहले मेरठ में भड़की. इसके बाद सैनिक दिल्ली आ गए और कर्नल रिप्ले को मार दिया. आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने भी सख्ती बरती और नरसंहार शुरू हो गया. उस वक़्त ग़ालिब पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाक़े में रहते थे. उन्होंने क़त्लेआम अपनी आंखों से देखा था. उनके कई दोस्त मारे जा चुके थे और कई दोस्त दिल्ली छो़डकर चले गए थे. ग़ालिब अकेले अपने घर में मुसीबत से भरी ज़िंदगी जी रहे थे. दस्तंबू में उन्होंने अपने तल्ख़ अनुभवों को मार्मिकता से पेश किया है. इसमें उन्होंने 11 मई, 1857 की हालत का काव्यात्मक वर्णन भी किया है. ख़ास बात यह है कि उन्होंने अंग्रेजों की प्रशंसा करते हुए बाग़ियों को ख़ूब खरी-खोटी सुनाई है.

किताब की शुरुआत हम्द यानी ईश प्रार्थना से हुई है और इसके बाद ग़ालिब ने अपनी रूदाद लिखी है. वह लिखते हैं-
मैं इस किताब में जिन शब्दों के मोती बिखेर रहा हूं, पाठकगण उनसे अनुमान लगा सकते हैं कि मैं बचपन से ही अंग्रेज़ों का नमक खाता चला आ रहा हूं. दूसरे शब्दों में कहना चाहिए कि जिस दिन से मेरे दांत निकले हैं, तब से आज तक इन विश्वविजेताओं ने ही मेरे मुंह तक रोटी पहुंचाई है. ज़ाहिर है कि ग़ालिब ने जिस अंग्रेज़ सरकार का नमक खाया था, वह उनकी नज़र में बेहद इंसाफ़  पसंद और मासूम सरकार थी. हालांकि ग़ालिब का रिश्ता मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र से भी था और ज़फ़र की शायरी के वह  उस्ताद थे. शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद्दौला के ख़िताब से नवाज़ा. बाद में उन्हें मिर्ज़ा नोशा के ख़िताब से भी सम्मानित किया गया. वह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में महत्वपूर्ण दरबारी थे. उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र के ब़डे बेटे फ़क़रुद्दीन मिर्ज़ा का शिक्षक तैनात किया गया. इसके अलावा वह म़ुगल दरबार के शाही इतिहासकार भी रहे. इसके बावजूद वह बादशाह से मुतमईन नहीं थे. वे लिखते हैं-
मैं हफ्ते में दो बार बादशाह के महल में जाता था और अगर उसकी इच्छा होती, तो कुछ समय वहां बैठता था, अन्यथा बादशाह के व्यस्त होने की वजह से थोड़ी देर में ही दीवान-ए-ख़ास से उठकर अपने घर की ओर चल देता था. इस बीच जांची हुई रचनाओं को या तो ख़ुद वहां पहुंचा देता या बादशाह के दूतों को दे देता था, ताकि वे बादशाह तक पहुंचा दें. बस, मेरा इतना ही काम था और दरबार से मेरा इतना ही नाता था. हालांकि यह छोटा-सा सम्मान, मानसिक और शारीरिक दृष्टि से आरामदायक और दरबारी झगड़ों से दूर था, लेकिन आर्थिक दृष्टि से सुखप्रद नहीं था. उस पर भी ग्रहों का चक्कर मेरे इस छोटे-से सम्मान को मिट्टी में मिला देने पर तुला हुआ था.

अंग्रज़ों से ग़ालिब को आर्थिक संरक्षण भी मिला और सम्मान भी. लिहाज़ा वह उनके प्रशंसक हो गए. अंग्रेजों और भारतीयों की तुलना करते हुए वह लिखते हैं-
एक वह आदमी, जो नामवर और सुविख्यात था, उसकी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल गई थी. दूसरा वह, जिसके पास न इज्ज़त थी और न ही दौलत, उसने अपना पांव चादर से बाहर फैला दिया.

दरअसल, ग़ालिब शासक को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे, इसलिए उनकी नज़र में राजद्रोह का मतलब देशद्रोह था. वह ख़ुद कहते हैं-
ख़ुदा जिसे शासन प्रदान करता है, निश्चय ही उसे धरती को जीतने की शक्ति भी प्रदान करता है. इसलिए जो व्यक्ति शासकों के विरुद्ध कार्य करता है, वह इसी लायक़ है कि उसे सिर पर जूते पड़ें. शासित का शासक से लड़ना अपने आपको मिटाना है.

ग़ालिब पहले शायर नहीं थे, जिन्होंने राज दरबार के प्रति अपनी निष्ठा ज़ाहिर की, बल्कि उस दौर के अनेक साहित्यकारों ने ब्रिटिश हुकूमत का साथ दिया. भारतेन्दु हरिश्चंद्र पर भी इस तरह के आरोप लगे, लेकिन ग़ालिब का अपना अंदाज़ था. हालांकि भारतेन्दु ने अंग्रेज़ी शासन की आलोचना भी की. भले ही ग़ालिब ने दस्तंबू में अंग्रेज़ी हुकूमत की सराहना की है, लेकिन शायरी के लिहाज़ से यह किताब लाजवाब है. अंग्रेज़ों की मौत का ज़िक्र करते हुए वे लिखते हैं-
दुख होता है उन रूपवती, कोमल, चंद्रमुखी और चांदी जैसे बदन वाली अंग़्रेज महिलाओं की मौत पर. उदास हो जाता है मन, उन अंग्रेज़ बालकों के असामयिक अंत पर, जो अभी संसार को भली-भांति देख भी नहीं पाए थे. स्वयं वे फूलों की भांति थे और फूलों को देखकर हंस पड़ते थे.
उन्होंने विद्रोह के दौरान दिल्ली के बाशिंदों की बदहाली का भी बेहद मार्मिक वर्णन किया है. वह लिखते हैं-
15 सितंबर से हर घर बंद प़डा हुआ है. न तो कोई सौदा बेचने वाला है और न ही कोई ख़रीदने वाला. गेहूं बेचने वाले कहां हैं कि उनसे गेहूं ख़रीदकर आटा पिसवा सकूं. धोबी कहां, जो कपड़ों की बदबू दूर हो. नाई कहां, जो बाल काटे. भंगी कहां, जो घर का कूड़ा साफ़ करे.
जब दिल्ली में क़त्लेआम हो रहा था, तब ग़ालिब अपने घर में बंद थे. वह लिखते हैं-ऐसे वातावरण में मुझे कोई भय नहीं था. ऐसे में मैंने ख़ुद से कहा कि मैं क्यों किसी से भयभीत रहूं. मैंने तो कोई पाप किया नहीं है, इसलिए मैं सज़ा का पात्र नहीं हूं. न तो अंग्रेज़ बेगुनाह को मारते हैं, और न ही नगर की हवा मेरे प्रतिकूल है. मुझे क्या पड़ी है कि ख़ुद को हलकान करूं. मैं एक कोने में, अपने घर में ही बैठा अपनी क़लम से बातें करूं और क़लम की नोक से आंसू बहाऊं. यही मेरे लिए अच्छा है.
मेरी खोली ख़ाली है
मेरे आशा-तरु के पत्ते झ़ड चुके हैं
या ख़ुदा ! मैं कब तक इस बात से ख़ुश होता रहूं
कि मेरी शायरी हीरा है
और ये हीरे मेरी ही खान के ख़ज़ाने हैं
ग़ालिब क़िस्मत पर बहुत यक़ीन करते थे, तभी तो वह लिखते हैं-
जन्म से जो भाग्य में लिखा है, उसे बदला नहीं जा सकता. हर जन्मी का भाग्य एक अदृश्य फ़रमान में बंद है, जिसमें न कोई आरंभ है और न कोई अंत. सभी को वही मिला है, जो उस फ़रमान में लिखा हुआ है. हमारे सुख और दुख उसी से संचालित हैं. इसलिए हमें बुज़दिल और डरपोक नहीं होना चाहिए, बल्कि छोटे बच्चों की भांति वक़्त के रंगों का हंसी-ख़ुशी तमाशा देखना चाहिए.

बहरहाल, इस किताब के ज़रिये राजकमल प्रकाशन ने हिंदी पाठकों को मिर्ज़ा ग़ालिब की दस्तंबू से रूबरू होने का मौक़ा दिया है, जो सराहनीय है. दरअसल, अनुवाद के ज़रिए हिंदी पाठक उर्दू, फ़ारसी और अन्य भाषाओं की महान कृतियों को पढ़ पाते हैं. किताब के आख़िर  में मुश्किल शब्दों का अर्थ दिया गया है, जिससे पाठकों को इसे समझने में आसानी होगी. कुल मिलाकर यह एक बेहतरीन किताब है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी) 

समीक्ष्य कृति : दस्तंबू 
लेखक : मिर्ज़ा ग़ालिब
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
क़ीमत : 200 रुपये

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