पूरे चांद की रात...
फ़िरदौस ख़ान
आज भी पूरे चांद की रात है... हमेशा की तरह ख़ूबसूरत... इठलाती हुई... अंगनाई में लगी चमेली में खिले सफ़ेद फूल अपनी भीनी-भीनी महक से माहौल को और रूमानी बना रहे हैं... नींद आंखों से कोसों दूर है... कल से वह दिल्ली से बाहर हैं... आज रात भी शायद नींद न आए... चांद अब भी आसमान में मुस्करा रहा है... उसकी दूधिया चांदनी अंगनाई में बिखरी हुई है... चमेली की शाख़ें हवा से झूम रही हैं... मौसम बदल रहा है... हवा में ख़ुनकी है... सोचती हूं कोई किताब ही पढ़ ली जाए... मेज़ पर कृष्ण चंदर की कहानियों की उर्दू की एक किताब रखी है, जिसे कई बार पढ़ चुके हैं...
हमें कृष्ण चंदर की किताबें पढ़ना बहुत अच्छा लगता है... यह कृष्ण चंदर के लेखन की ख़ासियत रही कि उन्होंने जितनी शिद्दत से ज़िंदगी की दुश्वारियों को पेश किया, उतनी ही नफ़ासत के साथ मुहब्बत के रेशमी जज़्बे को भी अपनी रचनाओं में इस तरह पेश किया कि पढ़ने वाला उसी में खोकर रह गया. उनके उपन्यास मिट्टी के सनम में एक नौजवान की बचपन यादें हैं, जिसका बचपन कश्मीर की हसीन वादियों में बीता. इसे प़ढकर बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं. इसी तरह उनकी कहानी पूरे चांद की रात तो दिलो-दिमाग़ में ऐसे रच-बस जाती है कि उसे कभी भुलाया ही नहीं जा सकता है. बानगी देखिए:-
अप्रैल का महीना था. बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बहार की लताफ़त आ गई थी. बुलंद व बाला तिनकों के नीचे मख़मली दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सफ़ेद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे. अगले माह तक ये सफ़ेद फूल इसी दूब में जज़्ब हो जाएंगे और दूब का रंग हरा सब्ज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएंगे नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा. लेकिन अभी अप्रैल का महीना था. अभी पत्तियां नहीं फूटी थीं. अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था. अभी पगडंडियों का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूंजा न था. अभी समल की झील पर कंवल के चिराग़ रौशन न हुए थे. झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था, जो बहार की आमद पर यकायक उसकी सतह पर एक मासूम और बेलोस हंसी की तरह खिल जाएंगे. पुल के किनारे-किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शिगूफ़े चमकने लगे थे. अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार की नक़ीब बनकर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं. फूलों के नन्हे-नन्हे शिकारे सतह आब पर रक्सा व लरज़ा बहार की आमद के मुंतज़िर हैं.
और अब मैं अड़तालीस बरस के बाद लौट के आया हूं. मेरे बेटे मेरे साथ हैं. मेरी बीवी मर चुकी है, लेकिन मेरे बेटों की बेटियां और उनके बच्चे मेरे साथ हैं और हम लोग सैर करते-करते समल झील के किनारे आ निकले हैं और अप्रैल का महीना है और दोपहर से शाम हो गई है और मैं देर तक पुल के किनारे खड़ा बादामों के पेड़ों की क़तारें देखता जाता हूं और ख़ुनक हवा में सफ़ेद शगू़फों के गुच्छे लहराते जाते हैं और पगडंडी की ख़ाक पर से किसी के जाने पहचाने क़दमों की आवाज़ सुनाई नहीं देती. एक हसीन दोशीज़ा लड़की हाथों में एक छोटी सी पोटली दबाए पुल पर से भागती हुई गुज़र जाती है और मेरा दिल धक से रह जाता है. दूर बस्ती में कोई बीवी अपने ख़ाविंद को आवाज़ दे रही है. वह उसे खाने पर बुला रही है. कहीं से एक दरवाज़ा बुलंद होने की आवाज़ आती है और एक रोता हुआ बच्चा यकायक चुप हो जाता है. छतों से धुआं निकल रहा है और परिंदे शोर मचाते हुए एकदम दरख्तों की घनी शाख़ों में अपने पर फड़फड़ाते हैं और फिर एकदम चुप हो जाते हैं. ज़रूर कोई गा रहा है और उसकी आवाज़ गूंजती गूंजती उफ़क़ के उस पार गुम होती जा रही है. मैं पुल को पार करके आगे बढ़ता हूं. मेरे बेटे और उनकी बीवियां और बच्चे मेरे पीछे आ रहे हैं. वे अलग-अलग टोलियों में बटे हुए हैं. यहां पर बादाम के पेड़ों की क़तार ख़त्म हो गई. तल्ला भी ख़त्म हो गया. झील का किनारा है. यह ख़ूबानी का दरख्त है, लेकिन कितना बड़ा हो गया है. मगर किश्ती, यह किश्ती है. मगर क्या यह वही किश्ती है. सामने वह घर है. मेरी पहली बहार का घर. मेरी पूरे चांद की रात की मुहब्बत.
घर में रौशनी है. बच्चों की सदाएं हैं. कोई भारी आवाज़ में गाने लगता है. कोई बुढ़िया चीख़कर उसे चुप करा देती है. मैं सोचता हूं, आधी सदी हो गई. मैंने उस घर को नहीं देखा. देख लेने में क्या हर्ज है. मुझे घर के अंदर घुसते देखकर मेरे घर के सदस्य भी अंदर चले आए थे. बच्चे एक दूसरे से बहुत जल्द मिलजुल गए. हम दोनों आहिस्ता-आहिस्ता बाहर चले आए. आहिस्ता-आहिस्ता झील के किनारे चलते गए. मैंने कहा-मैं आया था. मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापस चला गया था. वह बोली-अरे वह तो मेरा सगा भाई था. वह फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी. वह मुझसे मिलने आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे. वह वापस जा रहा था. मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिलके जाए. तुम फिर आए ही नहीं. वह एकदम संजीदा हो गई. छह बरस मैंने तुम्हारा इंतज़ार किया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे ख़ुदा ने एक बेटा दिया. तुम्हारा बेटा. मगर एक साल बाद वह भी मर गया. चार साल और मैंने तुम्हारी राह देखी, मगर तुम नहीं आए. फिर मैंने शादी कर ली.
हम दोनों चुप हो गए. बच्चे खेलते-खेलते हमारे पास आ गए. उसने मेरी पोती को उठा लिया, मैंने उसके पोते को. और हम ख़ुशी से एक दूसरे को देखने लगे. उसकी पुतलियों में चांद चमक रहा था और वह चांद हैरत और मुसर्रत से कह रहा था- इंसान मर जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी नहीं मरती. बहार ख़त्म हो जाती है, लेकिन फिर दूसरी बहार आ जाती है. छोटी-छोटी मुहब्बतें भी ख़त्म हो जाती हैं, लेकिन ज़िंदगी की बड़ी और अज़ीम सच्ची मुहब्बतें हमेशा क़ायम रहती हैं. तुम दोनों पिछले बहार में न थे. यह बहार तुमने देखी. उससे अगली बहार में तुम न होगे. लेकिन ज़िंदगी फिर भी होगी और जवानी भी होगी और ख़ूबसूरती और रानाई और मासूमियत भी. बच्चे हमारी गोद से उतर पड़े, क्योंकि वे अलग से खेलना चाहते थे. वे भागते हुए ख़ूबानी के दरख्त के क़रीब चले गए. जहां किश्ती बंधी थी. मैंने पूछा-यह वही दरख़्त है. उसने मुस्कराकर कहा- नहीं यह दूसरा दरख़्त है.
24 जुलाई 2013 को 12:21 pm बजे
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (25-07-2013) को "ब्लॉग प्रसारण- 66,सावन के बहारों के साथ" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
25 जुलाई 2013 को 10:07 am बजे
सुन्दर ,सटीक और सार्थक . बधाई
सादर मदन .कभी यहाँ पर भी पधारें .
http://saxenamadanmohan.blogspot.in/
25 जुलाई 2013 को 1:22 pm बजे
behtreen post....
27 जुलाई 2013 को 5:47 am बजे
सुंदर कहानी । जिंदगी किसी के लिये रुकती है ?