मौत के क़रीब...
फ़िरदौस ख़ान
हमने अपनी ज़िन्दगी में कई बार मौत को बहुत क़रीब से देखा है... उन लम्हों में ज़ेहन काम करना बंद कर देता था, क्योंकि सोचने का वक़्त भी नहीं होता था, लेकिन अगले ही लम्हे में हम ज़िन्दगी में होते थे... एक बार की बात है, हम दफ़्तर से लौट रहे थे... रात के क़रीब तीन बजे थे... ड्राइवर ने घबराते हुए हमें बताया कि कार के ब्रेक फ़ेल हो गए हैं और स्टेयरिंग भी काम नहीं कर रहा है... जिस वक़्त उसने ये बात बताई, उस वक़्त कार टी प्वाइंट के क़रीब थी... हमें दाहिने मुड़ना था... अब कार न तो मुड़ सकती थी और न ही रुक सकती थी... सिर्फ़ सामने की दीवार से टकरा कर चकनाचूर हो सकती थी... उसे भी इस बात का अहसास था और हमें भी... ड्राइवर ने आंखें बंद करते हुए कहा- मैम अब तो गए...
हमारी आंखों के सामने उस सर्द अंधेरी रात में स्ट्रीट लाइट की रौशनी में चमकती वो दीवार थी, जिससे गाड़ी को टकरा जाना था... अचानक आंखों के सामने धुंध छा गई... और गाड़ी एक ज़ोर के झटके के साथ रुक गई... हमने देखा कि कार हमारे घर के पास एक ख़ाली पड़े प्लॊट में लगे रेत के ढेर में घुस चुकी थी... हमने चिल्लाए- बच गए... ड्राइवर ने आंखें खोलीं... कड़ाके की ठंड के बावजूद वो पसीने से तरबतर था...
हम गाड़ी से उतरे... इतने में पापा भी आ गए और उन्होंने ड्राइवर को अंदर बुला लिया... हमने सारा वाक़िया सुनाया... अम्मी ने अल्लाह का शुक्र अदा किया...
ड्राइवर जब ज़रा संभल गया, तो उसने फ़ोन करके दूसरी गाड़ी मंगवाई... सुबह को मैकेनिक भी आ गया और उसने बताया कि गाड़ी के ब्रेक फ़ेल हैं और स्टेयरिंग भी काम नहीं कर रहा है... ड्राइवर के साथ-साथ मैकेनिक भी इस बात पर हैरान था कि कार रेत के ढेर तक कैसे पहुंची...?
हम आज तक ये नहीं समझ पाए कि जब स्टेयरिंग काम नहीं कर रहा था, तो वो कार घर तक कैसे पहुंची... क्योंकि घर तक तक आने के लिए गाड़ी को दो बार मुड़ना था.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
18 दिसंबर 2015 को 1:36 pm बजे
कुदरत का करिश्मा शायद इसी को कहते हैं..