किताबें...
फ़िरदौस ख़ान
बचपन से ही हमें किताबें पढ़ने का शौक़ रहा है. घर में अम्मी को किताबें पढ़ते हुए देखते थे. उनकी देखादेखी हमें भी किताबें पढ़ने का शौक़ हो गया. पहले कॊमिक्स और कहानियों की किताबें पढ़ा करते थे. लोककथाएं हमें बहुत पसंद थीं, आज भी हैं. किताबों से हमें बहुत मुहब्बत है. अपने दोस्तों को भी उनकी सालगिरह पर किताबें ही देते हैं, लेकिन जिनका किताबों से कोई सरोकार नहीं यानी उन्हें किताबें पसंद नहीं, तो उनके लिए कोई दूसरा तोहफ़ा ख़रीदने में हमें काफ़ी सोचना पड़ता है... ख़ैर पसंद अपनी-अपनी.
दूरदर्शन में हमारे साथ एक बंगाली प्रोड्यूसर भी थे. उनसे बंगाली तहज़ीब को क़रीब से जानने का मौक़ा मिला. वैसे भी हम बांग्ला साहित्य पढ़ते रहे हैं. वहां के लोगों की एक बात हमें बेहद पसंद है और उनके इस जज़्बे की हम दिल से क़द्र करते हैं. बंगाल में लोग शादी-ब्याह में भी तोहफ़े के तौर पर किताबें भी देते हैं.
जब भी प्रगति मैदान में लगे मेले में जाने का मौक़ा मिलता है, तो हम उर्दू, अरबी, पंजाबी और हिन्दी की बहुत-सी किताबें ख़रीदते हैं. यह देखकर अच्छा लगता है कि किताबों के क़द्रदानों की आज भी कोई कमी नहीं है. जब भी घर जाना होता है, तो हमारी यही कोशिश रहती है कि अम्मी और बहन-भाइयों के लिए उनकी पसंद की कोई न कोई किताब लेकर जाएं. अम्मी को उर्दू और अरबी की किताबें पसंद हैं. भाई को पत्रकारिता, पशु-पक्षियों और बाग़वानी की. हमारे घर पर एक अच्छी-ख़ासी लाइब्रेरी है. यहां भी हमारे पास किताबों का एक ज़ख़ीरा है.
किताबों की अपनी ही एक दुनिया है. कहते हैं किताबों से अच्छा कोई दोस्त नहीं होता. कॉलेज के वक़्त हर महीने आठ से दस किताबें पढ़ लेते थे. लाइब्रेरी में उर्दू और पंजाबी की किताबें पढ़ने वाले हम अकेले थे. उर्दू या पंजाबी का कोई बुज़ुर्ग पाठक कभी साल-दो-साल में ही वहां आता था. कई बार लाइब्रेरी के लोग किताबों को तरतीब से लगाने के लिए हमारी मदद लेते थे, तो कभी फटी-पुरानी या कभी-कभी नई किताबों के नाम, लेखक और प्रकाशक के नाम हिन्दी में लिखने में. हमें यह सब काम करना बहुत अच्छा लगता था.
किताबों से मुताल्लिक़ एक ख़ास बात. कुछ लोगों की आदत में शुमार होता है कि वो अच्छी किताब देखते ही आपसे मांग लेंगे. आपने एक बार किताब दे दी तो फिर मजाल है कि वो आपको वापस मिल जाए. किताबों के पन्ने मोड़ने, पैन से लाइनें खींचकर किताबों की अच्छी सूरत को बिगाड़ने में भी लोगों को बहुत मज़ा आता है. हमारे पास नामी कहानीकारों की कहानियों का एक संग्रह था. एक रोज़ हम उसे अपने साथ दफ़्तर ले गए. एक लड़की ने हमसे मांग लिया. कई महीने गुज़र गए, लेकिन उसने वापस नहीं किया. हमने पूछा तो कहने लगी-वक़्त ही नहीं मिला. ख़ैर क़रीब दो साल बाद हमारा उसके घर जाना हुआ, तो उसने उसे लौटा दिया. लेकिन उसे वापस पाकर हमें बेहद दुख हुआ. तक़रीबन हर सफ़े पर पैन से लाइनें खींची हुईं थीं. कवर पेज भी बेहद अजनबी लगा. जब भी उस किताब को देखते, तो बुरा लगता. छोटे भाई ने हमारी सालगिरह पर नई किताब लाकर दी और उस किताब को अलमारी से हटा दिया. ऐसे कितने ही क़िस्से हैं अपनी प्यारी किताबों से जुदा होने के...
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की जद्दोजहद में लोग किताबें पढ़ने के शौक़ को क़ायम नहीं रख पाते. जो लोग किताबें पढ़ने के शौक़ीन हैं, उनसे यही गुज़ारिश है कि वो इसे पूरा ज़रूर करें. ख़ैर, हमारा काम तो किताबों से ही जुड़ा है. किताबों की समीक्षा लिखते हैं, इस वजह से भी आए दिन कोई न कोई किताब मिलती ही रहती है और वक़्त निकालकर उसे पढ़ना भी होता है...
अलबत्ता, जांनिसार अख़्तर साहब का एक शेअर याद आता है-
ये इल्म का सौदा, ये रिसालें, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं...
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