तुमको जब भी क़रीब पाती हूं

तुमको जब भी क़रीब पाती हूं
दर्दो-ग़म सारे भूल जाती हूं
निज़्द जाकर तेरे ख़्यालों के
मैं ख़ुदा को भी भूल जाती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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14 Response to "तुमको जब भी क़रीब पाती हूं"

  1. seema gupta says:
    31 अक्टूबर 2008 को 10:34 am बजे

    तुमको जब भी क़रीब पाती हूं
    दर्दो-ग़म सारे भूल जाती हूं
    निज़्द जाकर तेरे ख्यालों के
    मैं ख़ुदा को भी भूल जाती हूं
    "kmal kee abeevyktee..."

    Regards

  2. बेनामी Says:
    31 अक्टूबर 2008 को 10:44 am बजे

    तुमको जब भी क़रीब पाती हूं
    दर्दो-ग़म सारे भूल जाती हूं
    निज़्द जाकर तेरे ख्यालों के
    मैं ख़ुदा को भी भूल जाती हूं

    बहुत ख़ूब...सही कहा है आपने...

    मुहब्बत का रिश्ता जिस्म से नहीं होता...बल्कि यह तो वो जज़्बा है जो रूह की गहराइयों में उतर जाता है...इसलिए जिस्म का होना या न होना लाज़िम नहीं है...

  3. adil farsi says:
    31 अक्टूबर 2008 को 10:59 am बजे

    य़ाद रखने लायक गजल के शेर हैं...मुबारक हो

  4. subhash Bhadauria says:
    31 अक्टूबर 2008 को 11:57 am बजे

    फ़िरदौसजी जब आप कविता के धरातल पर बात करती हैं तब लगता है आप पाकीज़ा खयालों की मलिका हैं फ़रिश्तों का दिल भी आपको सज़्दा करने को मचलता होगा.
    हमारी गिनती तो अहमकों ने शैतानो में कर रक्खी है.आपने अपने ब्लॉग पर हमारा लिंक देकर जो एज़ाज़ दिया है उसके लिए हम आपके मश्कूर हैं.
    ज़्यादातर पत्रिकारिता आप पर हावी रहती है जिससे आपके लेखन में घात प्रतिघात देखने को मिलते हैं.
    शायरी जोड़ने का काम करती है.शायर किसी क़ौम का नहीं होता.
    2-मुहब्बत रुहानी ही होती है जिस्मानी हो भी नहीं सकती.
    शायरी की दुनियाँ के वर्णित महबूब या महबूबा का इस दुनियां में मिलना मुश्किल है अपने तज़्रबात से कह रहा हूँ. मैंने अपनी ग़जलों में जिस महबूब की इबादत या तलब की है वो इस दुनियां के नहीं हैं, तसव्वरात के हैं ये राज़ हम आप पर अयाँ करते हैं.

    आप भी भी अपनी ग़जल में उसी का इशारा कर रहीं है.
    तुमको जब भी करीब पाती हूँ.
    दर्दोग़म सारे भूल जाती हूँ.
    निज़्द जाकर तिरे ख़यालों के,
    मैं ख़ुदा को भी भूल जाती हूँ.
    यहाँ ग़ज़ल के मतले में आपने पाती जाती का क़ाफ़िया और हूँ की रदीफ़ रक्खी है.
    दूसरे शेर के सानी मिसरे (दूसरी पंक्ति में) फिर जाती का काफिया इस्तेमाल किया जो जाइज़ नही माना जा सकता.
    यहाँ इस मिसरे को अगर इस तरह कर लें-
    मैं ख़ुदा से नज़र चुराती हूँ.(काफिया के पुनरावर्तन से बच सकती हैं.) आगे आप की मर्ज़ी.
    इस से अर्थ में कोई फर्क नही पड़ेगा.आप ने इस ग़ज़ल के आग के शेर लिखे होते तो आगे बात हो सकती थी.
    अब रही खयालों के बात तो-
    आप पर बुत परस्ती का इल्ज़ाम लग जायेगा मोहतरमा.
    आपकी काफ़िरों में शुमार होने लगेगी ऐसे अशआर कहने के ख़तरे आप को मालूम ही होंगे.

    आपकी ग़ज़ल बहरे ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून महज़ूफ़ में हैं जिसका वज़्न इस प्रकार है- तक्तीअ इस प्रकार होगी-

    फाइलातुन - मफाइलुन- फेलुन
    तुमको जब भी - करीब पा - ती हूँ.
    दर्दोग़म सा ---रि भूलजा -ती हूँ.
    निज़्द जाकर- तिरे ख़या - लों में,
    मैं ख़ुदा को- भि भूल जा -ती हूँ.
    ये उर्दू की बहुत ही मश्हूर बहर है. उस्ताद शायरों ने इस का खूब प्रयोग किया है-
    जैसे-
    दिल-ए-नांदा तुझे हुआ क्या है.
    आखिर इस दर्द की दवा क्या है.(ग़ालिब)

    मीर उन नीमबाज़ आँखों में,
    सारी मस्ती शराब की सी है.(मीर तक़ी मीर)

    तुम मेरे पास होते हो गोया,
    जब कोई दूसरा नहीं होता. (मोमिन)
    रात भी नींद भी कहानी भी.(फ़िराक गोरखपुरी)
    हाय क्या चीज़ है जवानी भी.

    तू किसी रेल सी गुज़रती है,
    मैं किसी पुलसा थरथराता हूँ.(दुश्यन्त कुमार)
    इस बहर की मौसिकी ग़ज़ब की है बहुत ज़ल्द ज़बान पर चढ़ती है.
    आप इल्मदां हैं हमारी बात समझेंगी.बाकी ग़ज़ल के नाम पर जो खेल ब्लॉग की दुनियां में चल रहे हैं आप उनसे वाक़िफ़ हैं.
    अब कहीं लड़ मत बैठना.आमीन.

  5. फ़िरदौस ख़ान says:
    31 अक्टूबर 2008 को 12:43 pm बजे

    सुभाष जी, हमारे ये शेअर ग़ज़ल में एक जगह नहीं हैं...इसलिए काफ़िये में कोई लफ्ज़ दोबारा आ भी जाए तो बुरा क्या है...? ख़ास तौर पर उस वक़्त जब आप अपने महबूब (भले ही वो काल्पनिक हो) से मुखातिब हों...

    मैं शेअर कहती नहीं, बल्कि उन्हें जीती हूं...शायद इसलिए पढ़ने वालों को हमारी शायरी में कशिश महसूस होती है...

    जन्नत की ख्वाहिश हमें क़तई नहीं है...जन्नत हों या दोज़ख़...दोनों ही उस अल्लाह की सृष्टि का हिस्सा हैं...फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है... जब हम इस दुनिया की तकलीफ़ों के लिए उससे कोई शिकवा-शिकायत नहीं करते तो...उस दुनिया में क्या करेंगे...उम्रभर का एक बनवास इस दुनिया में गुज़ार रहे हैं...एक वहां भी गुज़ार लेंगे...

  6. रंजू भाटिया says:
    31 अक्टूबर 2008 को 2:20 pm बजे

    इश्क़ से बड़ी कोई इबादत नहीं..सबसे अच्छी बात यही है ..जो बात दिल को छू ले वही गीत है वही गजल ..

  7. manvinder bhimber says:
    31 अक्टूबर 2008 को 3:28 pm बजे

    तुमको जब भी क़रीब पाती हूं
    दर्दो-ग़म सारे भूल जाती हूं
    निज़्द जाकर तेरे ख्यालों के
    मैं ख़ुदा को भी भूल जाती हूं
    बहुत ख़ूब...सही कहा है ........मुबारक हो

  8. Shubhashish Pandey says:
    31 अक्टूबर 2008 को 5:24 pm बजे

    achha laga

  9. Udan Tashtari says:
    31 अक्टूबर 2008 को 9:52 pm बजे

    बहुत खूब कहा है!! बधाई!!

  10. Dr. Ashok Kumar Mishra says:
    31 अक्टूबर 2008 को 11:20 pm बजे

    behtarin

  11. ज़ाकिर हुसैन says:
    1 नवंबर 2008 को 2:22 pm बजे

    तुमको जब भी क़रीब पाती हूं
    दर्दो-ग़म सारे भूल जाती हूं
    निज़्द जाकर तेरे ख्यालों के
    मैं ख़ुदा को भी भूल जाती हूं
    शानदार!!!

  12. sarfaraz saifi says:
    2 नवंबर 2008 को 12:56 pm बजे

    मोहतरमा जी आपने बिल्कुल ठीक लिखा है....लेकिन इस भाग दौड़ भरी जिन्दगी में करीब आने का वक्त बहुत कम लोगो का मिल पाता है.....

  13. sarfaraz saifi says:
    2 नवंबर 2008 को 12:56 pm बजे

    मोहतरमा जी आपने बिल्कुल ठीक लिखा है....लेकिन इस भाग दौड़ भरी जिन्दगी में करीब आने का वक्त बहुत कम लोगो का मिल पाता है.....

  14. Unknown says:
    3 नवंबर 2008 को 5:09 pm बजे

    सुभाष जी ने जो भी सलाह दी है वो त'आलीम के हिसाब से दुरुस्त है मगर जब बात जज्बे की हो, अहसासों की रवानी की हो दर्द की गहराई की हो तो अक्सर ऐसी बातो की तरफ़ हम नही देख पाते. वैसे काफिया का अगले शेअर में इस्तेमाल भले ही जायज न हो मगर खुदा को भूलने और खुदा से नज़रें चुराने में बेइंतिहा फर्क है.
    खुदा को भुलाना गैर इरादतन है it is not at all an conscious act but an state of heigher consciousness लेकिन महबूब के ख्यालों ने ऐसी हालत कर दी है की सही और ग़लत, जायज और नाजायज़ के फर्क का भी इल्म नही है मगर नज़रे चुराने वाला पूरे होशो हवास में है और उसे इस बात का पूरा पूरा इल्म है की उसकी यह हरक़त मज़हब के, रिवाजों के खिलाफ है नतीजतन वो खुदा से नज़रे चुरा रहा है क्योकि उसके दिल में कही न कही गुनाह का ख्याल है.
    afterall he is feeling guilty conscious and due to this feeling which has arisen out of the social customs he is not able to attain that stae of mind which is just natural in the first situation. here the person is aware with this material world.
    इसलिए दोनों बातो में ज़मीन आसमान का फर्क है. एक में इश्क इस हद का है की गुनाह, दोज़ख, रवायत,हश्र सब बेमानी हो गए है मगर दूसरे में होश-ओ-हवास दुरुस्त है.
    इसलिए मेरे ख्याल में खुदा को भूल जाने की बात को बदलने की ज़रूरत नही.

    मैं शेअर कहती नहीं, बल्कि उन्हें जीती हूं...शायद इसलिए पढ़ने वालों को हमारी शायरी में कशिश महसूस होती है...
    जन्नत की ख्वाहिश हमें क़तई नहीं है...जन्नत हों या दोज़ख़...दोनों ही उस अल्लाह की सृष्टि का हिस्सा हैं...फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है...
    दुरुस्त फ़रमाया है आपकी शायरी की कशिश बेजोड़ है क्योकि आप जिस दर्द को बयां करती है वो शायद हकीकत है.....?

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