ताज़गी का अहसास कराती ग़ज़लें


फ़िरदौस ख़ान
ग़ज़ल अरबी साहित्य की मशहूर काव्य विधा है. पहले ग़ज़ल अरबी से फ़ारसी में आई और फिर फ़ारसी से उर्दू में. वैसे, उर्दू के बाद यह विधा हिंदी में भी ख़ूब सराही जा रही है. ग़ज़ल में एक ही बहर और वज़न के कई शेअर होते हैं. इसके पहले शेअर को मत्तला कहते हैं. जिस शेअर में शायर अपना नाम रखता है, उसे मख़ता कहा जाता है. ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेअर को शाहे वैत कहते हैं. एक ग़ज़ल में पांच से लेकर 25 शेअर हो सकते हैं. ग़ज़लों के संग्रह को दीवान कहा जाता है. उर्दू का पहला दीवान शायर कुली क़ुतुबशाह है. इसके बाद तो अनगिनत दीवान आते रहे हैं और आते भी रहेंगे.

अमूमन अरबी और फ़ारसी ग़ज़लें रवायती हुआ करती थीं. इनमें इश्क़ और महबूब से वाबस्ता बातें होती थीं. शुरू में उर्दू ग़ज़ल भी माशूक़ और आशिक़ी तक ही सिमटी हुई थी, लेकिन जैसे-जैसे व़क्त गुज़रता रहा, इसमें बदलाव आता गया और ग़ज़ल में समाज और उसके मसले भी शामिल होने लगे. हिंदी ग़ज़ल ने सामाजिक विषयों को भी बख़ूबी पेश किया. हिंदी के अनेक रचनाकारों ने ग़ज़ल विधा को अपनाया. इन्हीं में से एक हैं कुलदीप सलिल. हाल में उनका ग़ज़ल संग्रह धूप के साये में आया है, जिसे प्रकाशित किया है हिन्द पॉकेट बुक्स ने. इस ग़ज़ल संग्रह की ख़ास बात यह है कि इसमें फ़ारसी लिपी और देवनागरी दोनों ही भाषाओं में ग़ज़लों को प्रकाशित किया गया है. इससे पहले उनके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें बीस साल का सफ़र, हवस के शहर में, जो कह न सके और आवाज़ का रिश्ता शामिल हैं. कुलदीप सलिल हिंदी के अलावा, अंग्रेज़ी में भी कविताएं लिखते हैं. उन्होंने ग़ालिब, इक़बाल, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अहमद फ़राज़ की रचनाओं का हिंदी अनुवाद भी किया है, जिसे साहित्य अकादमी और डीएवी ने पुरस्कृत किया. वे अर्थशास्त्र और अंग्रेज़ी में एमए हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवामुक्त हो चुके हैं.

उनकी शायरी में ज़िंदगी के तमाम रंग देखने को मिलते हैं. आज की भागदौड़ वाली ज़िंदगी और संचार क्रांति के दौर में भी इंसान कहीं न कहीं बेहद अकेला है. हालांकि संचार क्रांति ने दुनिया को एक दायरे में समेट दिया है, क्योंकि आप पल भर में सात समंदर पार बैठे व्यक्ति से कभी भी बात कर सकते हैं, लेकिन बावजूद इसके व्यक्ति तन्हा होता गया. तन्हाई के इसी रंग को शब्दों में पिरोते हुए वे कहते हैं-
हंसी हंसी में दर्द कितने, जिनको लोग छिपा लेते हैं
रात-बिरात में दीवारों को दिल का हाल सुना लेते हैं

दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. सादिक़ कहते हैं कि कुलदीप सलिल की ग़ज़लों का एक मिज़ाज है. उनकी ग़ज़लें हिंदी जगत में न केवल पसंद की गईं, बल्कि क़द्र की निगाहों से देखी भी गईं. बाल स्वरूप राही ने अपने एक लेख में हिंदी ग़ज़ल की तीन धाराओं का ज़िक्र किया है. इनमें पहली धारा उर्दू-परक, दूसरी आम-फ़हम और तीसरी हिंदी-निष्ठ बताई गई है. पहली में उर्दू शब्दों का ज़्यादा इस्तेमाल होता है. दूसरी में हिंदी-उर्दू मिश्रित ऐसे शब्दों का इस्तेमाल होता है, जो दोनों भाषाओं में सहर्ष स्वीकार्य हैं. तीसरी धारा में हिंदी संस्कृत के कठिन शब्दों का इस्तेमाल मिलता है. दरअसल, कुलदीप सलिल की भाषा आम फ़हम है, जिसे उर्दू और संस्कृत न जानने वाला हिंदी का आम पाठक बहुत ही आसानी से समझ लेता है. बानगी देखिए-
खेतियां जलती रहीं, झुलसा किए इंसां मगर
एक दरिया बे़खबर जाने किधर बहता रहा 

कुलदीप सलिल खुद कहते हैं कि ग़ज़ल लिखना शायद सबसे आसान और सबसे मुश्किल काम है. आसान, अगर कवि का काम केवल क़ाफिया पैमाई करना है और मुश्किल अगर वह हर शेअर में कोई बात पैदा करना चाहता है. अगर वह चाहता है कि शेअर व्यक्ति और समाज, जीवन और जगत के किसी अन्चीन्हे पहलू को उजागर करे या कुछ नया न भी कहे, तो बात ऐसे कहे कि नई-सी लगे.
कहा बात कर तू ऐसा, कहा इस तरह से कर तू 
कि लगे नई-नई-सी, कोई छोड़े वो असर भी 

क्योंकि नई बातें दुनिया में बहुत कम हैं, इसलिए ग़ज़ल में कहने के ढंग के नयेपन, उसकी ताज़गी और कवि के अंदाज़-ए-बयां की ख़ास अहमियत है. विषय कुछ भी हो, शेअर ढला हुआ होना चाहिए. ग़ज़ल की ख़ास बात यह है कि इसका हर शेअर दिल-दिमाग़ को छूता हुआ, दो मिस्रों में पूरी बात कहता है.
इस क़दर कोई बड़ा हो, मुझे मंज़ूर नहीं 
कोई बंदों में ख़ुदा हो, मुझे मंज़ूर नहीं 
रोशनी छीन के घर-घर से चराग़ों की 
अगर चांद बस्ती में उगा हो, मुझे म़ंजूर नहीं 

दरअसल, ग़ज़ल के इतिहास में एक वक़्त ऐसा भी आया, जब यह धारणा आम होने लगी थी कि आज के जीवन की मुश्किलों से इंसा़फ करने के लिए ग़ज़ल बेहतर विधा नहीं है, लेकिन खास बात यह है कि न सिर्फ़ उर्दू में ग़ज़ल का वर्चस्व क़ायम रहा, बल्कि हिंदी, पंजाबी, गुजराती आदि भाषाओं में भी ग़ज़ल ख़ूब लोकप्रिय हो रही है. इसकी एक वजह यह है कि ग़ज़ल लोगों से सीधे बात करने में यक़ीन करती है. जनमानस के दुख-दर्द और उनकी भावनाओं को ग़ज़ल के ज़रिये पेश करने पर फ़ौरन प्रतिक्रिया मिलती है. ग़ज़ल का शेअर सीधा दिल में उतर जाता है. चंद शेअर देखिए-
कभी दीवार गिरी है, कभी दर होता है 
हर बरस ये मकां बारिश की नज़र होता है 

ज़ुबां कहने से जो डरती रही है 
क़लम ख़ामोश सब लिखती रही है 

कुलदीप सलिल, हिंदी के प्रसिद्ध ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार से काफ़ी मुतासिर हैं, तभी तो उनकी कई ग़ज़लें पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार याद आ जाते हैं, मिसाल के तौर पर कुलदीप सलिल की ग़ज़ल नहर कोई पत्थरों से अब निकलनी चाहिए, दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल हो गई है पीर पर्वत-सी अब पिघलनी चाहिए, की याद दिलाती है. बहरहाल, यह काव्य संग्रह हिंदी और उर्दू भाषी दोनों ही तरह के पाठकों को पसंद आएगा, क्योंकि इसके एक पेज पर देवनागरी में ग़ज़ल है, तो सामने वाले दूसरे पेज पर वही ग़ज़ल फ़ारसी लिपी में भी मौजूद है. किताब का जामुनी रंग का बेहद ख़ूबसूरत आवरण भी फूलों से सजा हुआ है, जो बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है. कुल मिलाकर यह एक बेहतर ग़ज़ल संग्रह है, जिसे पढ़कर ताज़गी का अहसास होता है. 

समीक्ष्य कृति : धूप के साये में
कृतिकार : कुलदीप सलिल
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
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अल्लाह की राह में...


एक लड़की ने कई माह पहले एक बेहद ग़रीब परिवार को उनकी ज़रूरत के वक़्त दो लाख रुपये उधार दिए... उसने सोचा कि बैंक में भी पैसे पड़े हुए हैं... अगर इन पैसों से किसी की ज़रूरत पूरी हो जाए तो अच्छा है... उस परिवार के लोगों का न तो अपना घर है और न ही इतनी आमदनी कि वो पैसे लौटा सकें... उस परिवार के कमाने वाले लड़के का कहना है कि वो हर माह पांच सौ रुपये उस लड़की के बैंक खाते में डालने की कोशिश करेगा... पहली बात उस लड़के की इतनी भी हैसियत नहीं है कि वो हर माह इतने पैसे भी लौटा सके... दूसरी बात अगर वो ये पैसे इस हिसाब से लौटाएगा, तो रक़म पूरी होने में बरसों लग जाएंगे... ऐसी हालत में पैसे लेने न लेने बराबर हैं...

लड़की चाहती है कि वो अल्लाह के नाम पर ये पैसे मुआफ़ कर दे और इसका सवाब उसके मरहूम वालिद को मिले... क्या ऐसा हो सकता है...? इसका सही तरीक़ा किया है...? इस बारे में आपको जानकारी हो तो बराये-मेहरबानी रहनुमाई कीजिएगा...
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नारी की संपूर्णता प्रेम में निहित है...


फ़िरदौस ख़ान
समय बदला, हालात बदले लेकिन नहीं बदली तो नारी की नियति. नारी सदैव प्रेम के नाम पर छली गई. उसने पुरुष से प्रेम किया, मन से, विचारों से और तन से. मगर बदले में उसे क्या मिला धोखा और स़िर्फ धोखा. पुरुष शायद प्रेम के महत्व को जानता ही नहीं, तभी तो वह नारी के साथ प्रेम में रहकर भी प्रेम से वंचित रह जाता है, जबकि नारी प्रेम में पूर्णता प्राप्त कर लेती है. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित डॉ. प्रतिभा रॉय की पुस्तक महामोह अहल्या की जीवनी में नारी जीवन के संघर्ष की इसी कथा-व्यथा को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है. डॉ. प्रतिभा रॉय कहती हैं कि अहल्या एक पात्र नहीं, एक प्रतीक है. जब प्रतीक व्याख्यायित होता है, तब एक पात्र बन जाता है. जब पात्र विमोचित होता है, तब दिखने लगता है प्रतीक में छिपा अंतर्निहित तत्व. अहल्या सौंदर्य का प्रतीक है, इंद्र भोग का, गौतम अहं का प्रतीक है, तो राम त्याग एवं भाव का प्रतीक है. महामोह की अहल्या वैदिक नहीं है, पौराणिक नहीं है, ब्रह्मा की मानसपुत्री नहीं है, वह ईश्वर की कलाकृति हैं, चिरंतन मानवी हैं. वैदिक से लेकर अनंतकाल तक है उनकी यात्रा. वे अतीत में थीं, वर्तमान में हैं, भविष्य में रहेंगी. मोक्ष अहल्या की नियति नहीं, संघर्ष ही है उनकी नियति. अहल्या के माथे से कलंक का टीका नहीं मिटता. अत: अहल्या देवी नहीं है, अहल्या है मानवीय क्रांति. अहल्या का संघर्ष केवल नारी का संघर्ष नहीं है, न्याय के अधिकार के लिए मनुष्य का संघर्ष है.

अहल्या अपने द्वार पर आए इंद्र से पूछती है-क्या वरदान चाहिए प्रभु?
मैं हाथ जो़डे ख़डी थी. अपने मनोरम हाथ ब़ढाकर उन्होंने मेरी हथेली को स्पर्थ किया. स्पर्श के अहसास से ज़ड में भी जान आ जाती है. यह कैसा मधुकंपन होने लगा मेरे भीतर? अनुभूत सुख ढूंढते-ढूंढते मानो मैं परमानंद प्राप्त करने का जा रही थी. अपने हाथ का स्पर्श देने से अधिक भला मैं और क्या कर सकती थी? एक स्पर्श में ही अथाह शक्ति होती है? मेरा लौहबंधन तार-तार हो गया स्पर्श की शक्ति से. महाकाल के वक्ष पर वे अभिलाषा पूर्ण घड़ियां थीं नि:शर्त. वहां लाभ-हानि, यश-अपयश, अतीत-भविष्य, स्वर्ग-नर्क, वरदान-अभिशाप का द्वंद्व नहीं था, जबकि प्रतिश्रुति, वरदान और प्रतिदान की कठोर शय्या पर पैर रखकर उतर आई थीं वे घड़ियां देह से मनोभूमि में.

मुझे यह अनुभूति हुई कि सारी सीमाएं अनुशासित होते हुए भी मेरे भीतर ऐसा कोई नहीं था, जिसने मुझे अगम्य स्थान की ओर उड़ जाने को प्रेरित किया. उस शक्ति ने सारे बंधन और बेड़ियां तोड़ डालीं. बेड़ियां तोड़ना मनुष्य का सहज स्वभाव है. रिश्ते जब बेड़ियां बन जाते हैं, तभी वे रिश्ते टूटते हैं, बंधन टूटते हैं. बंधन टूटने के विषाद और मुक्ति के उद्‌घोष एवं विषाद-प्रफुल्लित भावावेग से वे घड़ियां थीं मधुर पी़ड़ादायी. वह घड़ी, निष्कपट समर्पण की घड़ी है. स्वयं को दूसरे के लिए उडेल देने की घड़ी. वह घड़ी थी प्रेम की घड़ी, जिस प्रेम में दूसरा पक्ष नहीं होता. लेन-देन का हिसाब नहीं होता. उस घड़ी का आकर्षण दुर्दम्य होता है कि वहां पाम-पुण्य, नीति-नियम अंधे और बहरे हो जाते हैं. उस घड़ी मेरे भीतर छल-कपट नहीं था. वह घड़ी निष्कपट, विशुद्ध प्रेम की घड़ी थी. उस समय मैं विभाजित नहीं थी. री की पूरी इंद्र की थी. वह घड़ी भ्रांति की घड़ी नहीं थी, क्रांति की घड़ी थी. उस घड़ी ने प्रलय को स्तब्ध कर दिया था.

मैं नहीं जानती, प्रेम की वह घड़ी इंद्र के लिए नि:शर्त और निष्कपट थी या नहीं, किंतु नारी के लिए प्रेम नि:शर्त होता है. देह भोग की वासना उस प्रेम की शर्त नहीं होती, किंतु क्या पुरुष के लिए देह भोग प्रेम की शर्त है? अत: प्रेम की उपलब्धि से इंद्र की अपूर्णता पूर्ण हुई या नहीं, मैं नहीं जानती. किंतु मैं पूर्ण, परिपूर्ण हो गई थी. मैं इंद्रलुब्धा नहीं थी-मैं थी इंद्रमुग्धा. मैं इंद्र से होकर उत्तरण के सोपानों पर चढ़ती जा रही थी, पृथ्वी की अतल में, आकाश से होते हुए आकाश से भी ऊंची. इंद्रिय आनंद से इंद्रानंद में-परमानंद की उपलब्धि में. इंद्रानंद सोमरस पान की तरह अपार्थिव है.

आत्म मुक्ति या जगत की मुक्ति? इस प्रश्न का उत्तर इंद्र पा चुके थे. आत्म मुक्ति के द्वार पर इंद्र सदैव बाधा उत्पन्न करते हैं. क्या गौतम के यक्ष का लक्ष्य आत्म मुक्ति था? अपरिपक्व, ज्ञान, साधना और अनुभूति के बिना उत्तरण, मुक्ति और अमरत्व की कामना करना विडंबना है. देवतागण मनुष्य की इस बुरी आकांक्षा का विरोध करते हैं. संभवत: इसलिए इंद्र ने गौतम का विरोध किया और मुझे प्रदान की सत्य की अंतरंग अनुभूतियां. स्वाहा है यक्ष की आत्मा. यक्ष के मंत्र का अंतिम और श्रेष्ठ भाग है स्वाहा. सु-आहुति स्वाहा का श्रेष्ठ गुण है. मैंने इंद्रदेव के लिए स्वयं को स्वाहा कर दिया. मेरी मिथ्या देह है सत्य की सिद्धिभूमि. मैं थी कन्या, पत्नी, गृहिणी, किंतु मैं नारी नहीं बन पाई थी. इंद्र के स्पर्श से मैं नारी बन गई. मैं पूर्ण हो गई. पूर्ण से पूर्ण निकालने की शक्ति भला किसमें है? यदि किसी में हुई तो पूर्ण से पूर्ण निकल जाने पर भी मैं पूर्ण ही रहूंगी.

हे, इंद्रदेव! मैं कृतज्ञ हूं. आपने मुझे पूर्णता का अहसास कराया. आपने मेरे जड़ बन चुके नारीत्व में फिर से प्राण फूंक दिए.
मैंने इंद्रदेव को प्रणाम किया. प्रभात हो चला था. क्या पक्षियों ने रात का महाप्रलय का सामना नहीं किया? उनके कलरव में कहीं कोई अस्वाभाविकता नहीं थी. इंद्रदेव प्रस्थान करने को उतावले थे. विदा की घड़ी आ गई. इंद्रदेव निर्लिप्त-निराकार थे. किंतु वे तृप्त थे, यह स्वीकारने में उनमें कोई झिझक नहीं थी.

अहल्या, मैं तृप्त हुआ. तुम्हारा दान अतुलनीय है. प्रेम की चिर-आराध्या देवी बनकर तुम मेरी अंतरवेदी में सदैव पूजी जाओगी. आज के इस देह-संगम की स्मृतियां, तुम्हारी देह की सारी सुरभित सुगंध मेरी देह की समस्त ग्रंथियों में सदा भाव-तरंग बनाते रहेंगे. तुम्हारे पति के पदचाप सुनाई देने लगे हैं. मैं तुम्हारा मुक्तिदाता नहीं, मैं तुम्हारा भाग्य और नियति नहीं. मैं तुम्हारी परीक्षा भी नहीं. तुम स्वयं ही अपनी परीक्षा, भाग्य और नियति हो. साधना का द्वार अब तुम्हारे लिए खुल चुका है. मुझे विदा दो और अपनी रक्षा करो.

इंद्र के विदा होते समय मुझे ठेस नहीं पहुंच रही थी, क्योंकि मैं जानती थी, मैं मर्त्य की नारी हूं. इंद्र मेरे भाग्यविधाता नहीं बन सकते. यह विदाई तय थी. किंतु मुझे ऐसी अवस्था में छोड़कर, गौतम के पहुंचने से पहले किसी लम्पट पुरुष की तरह जल्दी-जल्दी वहां से भागने लगना मुझे बहुत कष्ट दे रहा था. तो क्या इंद्र भाव के सम्राट नहीं हैं, क्या वे भोग-लम्पट हैं, एक सामान्य पुरुष? क्या मेरे क्षणभंगुर सुंदर देहभूमि पर विजय पताका फहराकर गौतम को नीचा दिखाना था इस प्रेम का लक्ष्य? तब तो यह प्रेम नहीं था, एक भ्रांति थी. क्या मैं इंद्रयोग्या नहीं थी, इंद्रभोग्या थी? यह सोचकर दुख और आत्मग्लानि से उदास हो उठी. इंद्र ने गर्व के साथ गौतम का सामना किया होता तो मैं इंद्र को परम प्रेमी के स्थान पर रखकर बाक़ी का जीवन पूर्णता से रंग लेती. प्रेम निर्भीक होता है, प्रेम निरहंकार होता है, प्रेम नि:स्वार्थ होता है, जबकि एक कामुक पुरुष की तरह अपने स्वार्थ को बड़ा करके ऋषि के कोप के भय से मुझे असहाय अवस्था में छोड़ कर वहां से खिसक लेने के कारण मेरे सच्चे अहसास पर एक काली रेखा खींच दी उन्होंने. यह प्रेम है या भ्रम, पाप है या पुण्य? उचित है या अनुचित?
किंतु मैंने जो कुछ किया, जान-बूझकर किया. जब आत्मा प्रेम के लिए समर्पित हो जाती है, तब देह अपनी सत्ता खो देती है और आत्मा के साथ देह भी समर्पित हो जाती है. इसलिए उस क्षण मुझमें ग्लानि या पापबोध नहीं हुआ. मिलन के सुख और विरह के दुख दोनों से मेरा नारीत्व आज परिपूर्ण था.
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एक किताब जो आपकी ज़िंदगी बदल देगी

फ़िरदौस ख़ान
ख़ूबसूरती किसे नहीं भाती. हर इंसान ख़ूबसूरती से प्यार करता है, चाहे वह तन की हो या फिर मन की. वह ख़ूबसूरत चीज़ों को देखना चाहता है. हम फूलों को इसलिए पसंद करते हैं, क्योंकि वे बेहद ख़ूबसूरत होते हैं और हमें ख़ुशी देते हैं. इंसान ख़ुद को भी ख़ूबसूरत देखना चाहता है. इसलिए वह रंग-बिरंगी पोशाकें पहनता है, ज़ेवर से ख़ुद को सजाता-संवारता है और कॉस्मेटिक्स का इस्तेमाल कर अपना रंग-रूप निखारता है. लेकिन सिर्फ़ ख़ूबसूरती ही काफ़ी नहीं होती, इंसान के विचार, उसके काम और उसका मन ख़ूबसूरत होना लाज़िमी है. ये गुण इंसान को अपने परिवार से मिलते हैं. पहले के दौर में जहां इंसान में सिर्फ़ अच्छे गुण होना ही काफ़ी माना जाता था, वहीं आज के दौर में इंसान का जिस्मानी रूप से ख़ूबसूरत होना भी मायने रखने लगा है. ख़ूबसूरती आत्मविश्वास का पर्याय बनती जा रही है.  इंटरव्यू पर जाने से पहले लोग दिमाग़ी कसरत की बजाय अपने कपड़ों और मेकअप पर ज़्यादा तवज्जो देने लगे हैं. बदलते परिवेश के मद्देनज़र अब जगह-जगह ख़ूबसूरत बनाने के सेंटर भी खुलने लगे हैं. कोई क़द बढ़ाने का दावा करता है, तो कोई गोरा बनाने का. इंसान को सुडौल बनाने के लिए भी सेंटर खुले हुए हैं. बाज़ार में सौंदर्य से संबंधित कई किताबों की भी भरमार है.

हाल में डायमंड बुक्स ने नमिता जैन की एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है आख़िरी 5 किलो कैसे घटाएं. इस किताब में वज़न घटाने के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है. नमिता जैन जीवनशैली और वज़न नियंत्रण विशेषज्ञ हैं. इससे पहले उनकी चार सप्ताह में वज़न कैसे घटाएं और टीन फिटनेस गाइड नामक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. इस किताब में वह उन आख़िरी पांच किलो वज़न के बारे में बात कर रही हैं, जो अमूमन वज़न घटाने की प्रक्रिया के आख़िर में अटक कर रह जाता है. उन्होंने वज़न घटाने के लिए एक संपूर्ण पहल अपनाने पर ज़ोर दिया है, जिसमें डाइट और व्यायाम के साथ मानसिक सेहत भी शामिल है. दरअसल, डायटिंग करने वाले को एक खिलाड़ी की तरह होना चाहिए. जीतने के लिए शुरू ही नहीं, आख़िर भी अच्छा होना चाहिए. लेकिन होता इसका बिल्कुल उल्टा है, क्योंकि वज़न कम करने के लिए एक लक्ष्य की ज़रूरत होती है और आप अपने लक्ष्य के जितना क़रीब आते हैं, उसे पाना उतना ही मुश्किल होता है. बहुत-सी ऐसी किताबें हैं, जो आपको लक्ष्य शुरू करने के लिए प्रेरित करती तो हैं, पर आख़िर तक पहुंचा नहीं पातीं. इसके विपरीत बहुत-सी किताबें वज़न घटाने में बहुत मददगार साबित होती हैं. नमिता कहती हैं, जब भी वज़न घटाना हो तो सोच-समझकर संतुलित आहार लेना बहुत ज़रूरी हो जाता है. बेशक यह धीमी प्रक्रिया आपके धैर्य की परीक्षा लेती है, पर आख़िर में जीतते आप ही हैं.
उन्होंने किताब में उन लोगों के बारे में भी ज़िक्र किया है, जो ग़लत और हानिकारक तरीक़ों से वज़न घटाने के उपाय तलाशते हैं जैसे भूखे रहना या फिर व्यायाम की अति कर देना. अमूमन इन तरीक़ों को अपनाकर फ़ौरी तौर पर फ़ायदा तो पा लेते हैं, लेकिन वे जान नहीं पाते कि ये सब उनके लिए कितना नुक़सानदेह हो सकता है. आजकल हेल्थ फार्म का चलन बढ़ गया है और यहां जाकर लोग अपने वज़न को नियंत्रित करने में लगे हुए होते हैं, जबकि यह तभी तक आपके लिए फ़ायदेमंद हो सकता है, जब तक आप घर आकर भी उसी अनुशासित जीवनशैली को अपनाते हैं, जबकि ऐसा संभव नहीं हो पाता. उन्होंने संतुलित आहार लेने पर ज़ोर दिया है. वह कहती हैं, केवल भोजन की कैलोरी न गिनें, उस भोजन पर भी ध्यान दें, जिससे कैलोरी मिलती है. फिटनेस लक्ष्य के प्रति इन कुछ आख़िरी क़दमों में आपको एक ऐसा संपूर्ण भोजन चाहिए, जो आपको पूरी तरह से ऊर्जा और तंदुरुस्ती का तोहफ़ा दे सके. मिनिरल्स, प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थ, फल-सब्ज़ियां, वसा और चीनी के मेल से आपका आहार संतुलित हो सकता है. किताब में विभिन्न कैलोरी की ज़रूरत के मुताबिक़ मेन्यू भी दिया गया है, ताकि हर व्यक्ति अपनी ज़रूरत के हिसाब से डाइट ले सके. आख़िरी पांच किलो वज़न घटाने की प्रक्रिया में सब चीज़ें बहुत महत्व रखती हैं, जो कुछ भी खाएं, उस पर नज़र रखनी होगी. कहीं ऐसा न हो कि आप भी यही कहती सुनाई दें कि मैं तो कुछ खाती ही नहीं, पता नहीं वज़न कैसे बढ़ गया. इसलिए यह ज़रूरी है कि हमें जब भूख लगती है तो हम सबसे पहले अपने आसपास या रसोई की अलमारियों में रखी चीज़ों को ही खाते हैं. अगर वहां सेहतमंद खाद्य पदार्थ रखे होंगे तो निश्चित रूप से आप वही खाएंगे, इसलिए जब भी रसोई का सामान ख़रीदने जाएं, तो जंक फूड ख़रीदने से बचें और ऐसी चीज़ें लें, जो वज़न घटाने में मदद करें और साथ ही पोषण संबंधी कमियों को भी पूरा कर सकें. तेल रहित व्यंजन विधियां देने के बाद किताब में व्यायाम और फिटनेस दिनचर्या पर चर्चा की बारी आती है.
हर व्यक्ति को अपने कार्य, जीवनशैली और ज़रूरत के मुताबिक़ वर्कआउट प्लान बनाना चाहिए. यह ज़रूरी नहीं कि आपके पास जिम के महंगे उपकरण ही हों. अगर जिम जाने की सुविधा या वक़्त न हो तो सैर भी कर सकते हैं. यह आसान और सुरक्षित होने के साथ-साथ किफ़ायती भी है. इसके बाद वह योगासनों की चर्चा करती हैं. उनका कहना है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी जीवनशैली में किसी न किसी रूप में व्यायाम को शामिल करना चाहिए. अगर व्यायाम से बोरियत हो तो कोई दूसरा तरीक़ा खोजें.
किताब के 39 अध्याय हैं और हर अध्याय के आख़िर में टिप्स दिए गए हैं, जो बेहद महत्वपूर्ण हैं. इसी तरह एक अध्याय के आख़िर में वह कहती हैं कि जहां भी जाएं, पानी की बोतल साथ रखें. व्यायाम या स़फर के दौरान थोड़ा-थोड़ा पानी पीते रहें. हर खाने के साथ पानी पीने की आदत डालें. पानी पीने के लिए प्यास लगने का इंतज़ार न करें. अगर ऐसा करते हैं तो इसका मतलब है कि आपमें पानी की कमी हो रही है. दरअसल, पानी पीने से भूख मिटती है और नई ऊर्जा मिलती है. दोनों ही वज़न घटाने के बेहतरीन नुस्खें हैं. ताज़े फल और सब्ज़ियां खाएं. भूख लगने पर ही खाएं और पेट भरते ही खाना बंद कर दें. लिफ्ट की बजाय घर और कार्यालय में सीढ़ियों का इस्तेमाल करें. चलते-फिरते रहें. लगातार बैठे रहने से हाथों-पैरों में जकड़न आती है. चलने-फिरने से रक्त संचार बना रहता है. सुबह जल्दी उठकर सैर पर जाएं. सुबह की धूप से मिलने वाले विटामिन डी से हड्डियों मज़बूत होंगी. थो़डा संगीत सुनें और घर का कामकाज भी करें.

किताब के चौथे हिस्से में माइंड पावर की बात की गई है. जब मन पर नियंत्रण होता है, तो शरीर भी उसी के हिसाब से चलता है. आपको भी अपने मन को ताक़तवर बनाना है, ताकि वह लक्ष्य तक जाने में मददगार हो सके. आख़िर में वह पाठकों से अनुरोध करती हैं कि जब वे अपने वज़न घटाने के लक्ष्य की ओर कुछ क़दम बढ़ाएं तो ख़ुद को दुलारना न भूलें. अपनी पीठ थपथपाएं, क्योंकि वज़न घटाना कोई मज़ाक़ नहीं है. आपने कड़ी मेहनत और लगन से यह लक्ष्य पाया है. तनाव से दूर रहें और आख़िरी पांच किलो घटाने की यह लड़ाई जीत लें. आख़िरी पांच किलो को अलविदा कहें और एक सेहतमंद ज़िंदगी से हाथ मिलाएं.

बेशक, यह किताब आपको वज़न घटाने के लिए प्रेरित करते हुए आपके लक्ष्य तक पहुंचने में आपकी मदद करती है, लेकिन यह क़तई न भूलें कि इस राह पर चलना तो आप ही को है. इसलिए अपने मन को मज़बूत करें, और चल पड़ें अपने लक्ष्य की ओर. इंसान चाहे तो वह अपनी लगन और मेहनत के बूते हर उस लक्ष्य को हासिल कर सकता है, जिसे वह पाना चाहता है. बहरहाल, यह किताब उन पाठकों के लिए बेहद फ़ायदेमंद है, जो अपनी फिटनेस को लेकर फ़िक्रमंद रहते हैं. इस किताब में उनके कई ऐसे सवालों के जवाब मिल जाएंगे, जो वे जानना चाहते हैं. फिटनेस के लिहाज़ से यह किताब संग्रहणीय है और पाठकों को पसंद आएगी. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : आख़िरी 5 किलो कैसे घटाएं
लेखिका : नमिता जैन
प्रकाशक : डायमंड बुक्स
क़ीमत : 125 रुपये

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लुप्त होती ग्रामीण संस्कृति...


फ़िरदौस ख़ान
आदि अदृश्य नदी सरस्वती के तट पर बसे हरित प्रदेश हरियाणा अकसर जाना होता है. बदलाव की बयार ऐसी चली है कि हर बार कुछ न कुछ नया दिखाई पड़ता है. पहले जहां खेतों में सब्ज़ियों की बहार होती थी, वहीं अब मकान बन रहे हैं. खेत सिकुड़ रहे हैं और बस्तियां फैलती जा रही हैं. दरअसल, आधुनिकता की अंधी दौड़ ने परिवेश को इतना प्रभावित किया है कि कितनी ही प्राचीन संस्कृतियां अब इतिहास का विषय बनकर रह गई हैं. परिवर्तन प्रकृति का नैसर्गिक नियम है, और यह शाश्वत सत्य भी है, लेकिन धन के बढ़ते प्रभाव ने स्वाभाविक परिवर्तन को एक नकारात्मक मोड़ दे दिया है. हालात ये हो गए हैं कि व्यक्ति पैसे को ही सब कुछ मानने लगा है. रिश्ते-नाते, रीति-रिवाज उसके लिए महज़ ऐसे शब्द बनकर रह गए हैं, जिसकी उसे क़तई परवाह नहीं है. दूर देहात या गांव का नाम लेते ही ज़ेहन में जो तस्वीर उभरती थी, उसकी कल्पना मात्र से ही सुकून की अनुभूति होती थी. दूर-दूर तक लहलहाते हरे-भरे खेत, हवा के झोंकों से शाखों पर झूमते सरसों के पीले-पीले फूल, पनघट पर पानी भरती गांव की गोरियां, लोकगीतों पर थिरकती अल्ह़ड नवयुवतियां मानो गांव की समूची संस्कृति को अपने में समेटे हुए हों, लेकिन आज ऐसा नहीं है. पिछले तीन दशकों के दौरान हुए विकास ने गांव की शक्ल ही बदलकर रख दी है. गांव अब गांव न रहकर, शहर होते जा रहे हैं. गांव के शहरीकरण की प्रक्रिया में नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है. हालत यह है कि एक परिवार को देखकर पड़ौसी के परिवार का रहन-सहन बदल रहा है. पूर्वजों के बनाए घर अब घर न रहकर, शहरी कोठियों की शक्ल अख्तियार कर रहे हैं. गांवों की चौपालें अब अपना स्वरूप लगभग खो चुकी हैं. शहरी सभ्यता का सबसे ज़्यादा असर उन गांवों पर पड़ा है, जो शहर की तलहटियों के साथ लगते हैं. ये गांव न तो गांव रहे हैं और न ही पूरी तरह शहर बन पाए हैं. पहले ग्रामीण अंचलों में सांग न केवल मनोरंजन का साधन होते थे, बल्कि नैतिक शिक्षा का भी सशक्त माध्यम होते थे. प्राचीन समृद्ध लोक संस्कृति की परंपरा वाले प्रदेश हरियाणा में आज सांस्कृतिक और शैक्षणिक पिछ़डेपन के कारण लोककलाएं पार्श्व में जा रही हैं. लुप्त हो रही ग्रामीण संस्कृति को संभाल पाने की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं हुए हैं. शौर्यपूर्ण, लेकिन सादा और सहज जीवन जीने वाले हरियाणा के लोगों में आज जीवन के उच्च मूल्यों की उपेक्षा हो रही है. पैसे और ताक़त की अपसंस्कृति हर तरफ़ पनपती दिखाई देती है.

हरियाणा विशेष रूप से ग्रामीण संस्कृति का प्रदेश रहा है. यहां के गांव प्राचीन समय से संस्कृति और सामाजिक गतिविधियों के केंद्र रहे हैं. गीता का जन्मस्थान होने का गौरव भी श्रीकृष्ण ने इसी प्रदेश को दिया, लेकिन कितने अफ़सोस की बात है कि ग्रामीण अपनी गौरवशाली संस्कृति को दरकिनार कर शहर की पाश्चात्य संस्कृति की गर्त में समा जाना चाहते हैं. ये लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में शहरों में जाते हैं और अपने साथ गांव में लेकर आते हैं नशे की आदत, जुआखोरी और ऐसी ही कई अन्य बुराइयां, जो ग्रामीण जीवन को दूषित करने पर आमादा है. नतीजा सबके सामने है, गांवों में भाईचारे की भावना ख़त्म होती जा रही है और ग्रामीण गुटबाज़ी का शिकार हो रहे हैं. लोग गांवों से निकलकर शहरों की तरफ़ भागने लगे हैं, क्योंकि उनका गांवों से मोह भंग हो रहा है. इतना ही नहीं, अब धीरे-धीरे गांव भी फार्म हाउस कल्चर की चपेट में आ रहे हैं. अपनी पहचान खो चुका धनाढ्य वर्ग अब सुकून की तलाश में दूर देहात में ज़मीन ख़रीदकर फार्म हाउसों का निर्माण करने की होड़ में लगा है.

शहर की बुराइयों को देखते हुए यह चिंता जायज़ है कि गांव की सहजता अब धीरे-धीरे मर रही है. तीज-त्योहारों पर भी गांवों में पहले वाली वह रौनक़ नहीं रही है. शहरवासियों की तरह ग्रामीण भी अब बस रस्म अदायगी ही करने लगे हैं. शहर और गांवों के बीच पुल बने मीडिया ने शहर की अच्छाइयां गांवों तक भले ही न पहुंचाई हों, पर वहां की बुराइयां गांव तक ज़रूर पहुंचा दी हैं. अंधाधुंध शहरीकरण के ख़तरे आज हर तरफ़ दिखाई दे रहे हैं. समाज का तेज़ी से विखंडन हो रहा है. समाज परिवार की लघुतम इकाई तक पहुंच गया है, यानी लोग समाज के बारे में न सोचकर सिर्फ़ अपने और अपने परिवार के बारे में ही सोचते हैं. इसलिए हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि गांव सुविधाओं के मामले में कुछ-कुछ शहर बने रहें, लेकिन संस्कृति के मामले में गांव ही रहें. मगर तब तक ऐसा संभव नहीं हो सकता, जब तक विकास की हमारी अवधारणा आयातित होती रहेगी और उदारीकरण के प्रति हमारा नज़रिया नहीं बदलेगा. आज शहर पूरी तरह से पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आ चुके हैं और अब शहरों के साथ लगते गांव भी इनकी देखादेखी अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं.

विकास के अभाव में गांव स्वाभाविक रूप से आत्मनिर्भरता की तरफ़ क़दम नहीं बढ़ा पाए. ऐसे में रोज़गार की तलाश में गांव के युवकों का शहर की तरफ़ पलायन शुरू होना और शहर की बुराइयों से उनका रूबरू होना, हैरत की बात नहीं है. लेकिन इस सबके बावजूद उम्मीद बरक़रार है कि वह दिन ज़रूर आएगा, जब लोग पाश्चात्य संस्कृति के मोहजाल से निकलकर अपनी संस्कृति की तरफ़ लौटेंगे. काश, वह दिन जल्द आ जाए. हम तो यही दुआ करते हैं. आमीन...

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ख़ुरासान की रोचक लोक कथाएं...

फ़िरदौस ख़ान
दुनिया भर के देशों की अपनी संस्कृति और सभ्यता है. लोक कथाएं भी इसी संस्कृति और सभ्यता की प्रतीक हैं. लोक कथाओं से किसी देश, किसी समाज की संस्कृति और उनकी सभ्यता का पता चलता है. बचपन में सभी ने अपनी नानी या दादी से लोक कथाएं सुनी होंगी. लोक कथाओं में ज़िंदगी के अनुभवों का निचो़ड़ होता है. ये लोक कथाएं सीख देती हैं. लोक कथाएं कैसे और कब वजूद में आईं, यह बताना तो बेहद मुश्किल है, लेकिन इतना ज़रूर है कि इनका इतिहास बहुत पुराना है. लोक कथाएं विभिन्न देशों में सांस्कृतिक घनिष्ठता को बढ़ाती हैं. भारत और ईरान में साहित्यिक आदान-प्रदान का दौर जारी है. लोकभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नासिरा शर्मा की किताब क़िस्सा जाम का, ईरान के ख़ुरासान की लोक कथाओं पर आधारित है. इसमें लेखिका ने ईरान के कवि मोहसिन मोहन दोस्त की लोक कथाओं का हिंदी अनुवाद पेश किया है. अनुवाद का काम कोई आसान नहीं होता. इसमें इस बात का ख़ास ख्याल रखना होता है कि मूल तहरीर का भाव क़ायम रहे. नासिरा शर्मा ख़ुद कहती हैं कि ये सारे क़िस्से ख़ुरासानी बोली में थे. फ़ारसी जानने के बावजूद उनके इशारों और मुहावरों को समझना आसान नहीं था, क्योंकि ये चीज़ें शब्दकोष में नहीं मिलतीं. उन्हें केवल कोई ईरानी ही बता सकता है. लेकिन कोशिश यही की गई कि ये क़िस्से ज्यों के त्यों पाठकों तक पहुंचाएं जाएं, ताकि उनका अर्थ वही रहेख जो क़िस्सागो कहना चाहता है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के फ़ारसी भाषा तथा साहित्य विभाग के अध्यक्ष सैय्यद अमीर आबिदी कहते हैं कि ख़ुरासान एक चौराहे की तरह है, जहां ईरान की सभ्यता तथा संस्कृति संगठित हुई और जहां से अन्य क्षेत्रों में फैली. तूस, निशापुर और मशहद के केंद्र सांस्कृतिक वैभव के प्रतीक रहे और जहां पर उमर, ख़य्याम और फ़िरदौसी जैसे चिराग़ अब भी जीवित हैं. ख़ुरासान की ये लोक कथाएं निशापुर और दमगान से निकले हुए फीरोजों की तरह भव्य और सारगर्भित हैं. इस किताब में तीन तरह के क़िस्से शामिल हैं. पहले में दर्शन का चिंतन है, दूसरे में बादशाहों के ज़रिये दुनियावी बर्ताव का ज्ञान है और तीसरे में परियों और हब्शियों के क़िस्से हैं, जो बताते हैं कि ख़ुदा ने इंसान को जो ताक़त बख्शी है, वह किसी और प्राणी के पास नहीं है. इसी ताक़त की बदौलत इंसान मुश्किल से मुश्किल हालात का सामना करते हुए अपनी जीत का परचम लहराता रहा है. इस किताब में अनेक रोचक लोक कथाएं हैं, जो पाठकों को आख़िर तक बांधे रखने में सक्षम हैं. बानगी देखिए-

एक रोज़ एक व्यापारी मछलियों से भरा टब लेकर घर पहुंचा. उसकी बला सी सुंदर पत्नी ने मछलियों को देखकर अपने चेहरे को नक़ाब से छुपा लिया, ताकि टब की मछलियां उसे न देख सकें. इस तरह मुंह छुपाये रही, ताकि उसका पति उसे सती सावित्री जैसी समझे.
जब भी व्यापारी घर में रहता कभी भी वह अपना मुंह हौज़ में न धोती और कहती-नर मछलियां कहीं मेरे पाप का कारण न बन जाएं. इस लाज से भरे अपने स्वभाव के कारण वह व्यापारी के सामने कभी हौज़ के समीप न जाती. एक दिन व्यापारी अपनी स्त्री के साथ बैठा हुआ था. एक नौकर भी वहीं खड़ा था. व्यापारी की स्त्री ने पहले की ही तरह नर मछलियों की बातें कीं और ब़डी अदा से शर्माई. यह सब देखकर वह नौकर हंस प़डा.
व्यापारी ने पूछा-क्यों हंसे तुम?
कुछ नहीं, यूं ही हंस दिया.

बिना कारण कैसी हंसी? सुनकर नौकर कुछा नहीं बोला, ख़ामोश ख़डा रहा. यह देखकर व्यापारी चिढ़ गया. उसका क्रोध देखकर नौकर डर गया और बोला-आपकी सुंदर स्त्री आपके ही घर के तहख़ाने में चालीस जवानों को बंद किए है. जब आप शिकार को चले जाते हैं तो वह उनके साथ रंगरेलियां मनाती है. यह सुनते ही व्यापारी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और वह बोला-मैं सच्चाई जानकर ही दम लूंगा. कल शिकार पर जा रहा हूं, परंतु लौटकर तुम्हारे ही घर आऊंगा. फिर सोचूंगा कि मुझे क्या करना है. दूसरे दिन व्यापारी दोबारा शिकार को चला गया और लौटकर उसी नौकर के घर पहुंचा और बोला-मुझे गधे पर रखे ख़ुरजीन (थैला) में छुपाकर वह जगह दिखाओ, जहां मेरी स्त्री चालीस जवानों के साथ गुलछर्रे उड़ाती है. इस काम के बदले में मैं तुमको सौ मन ज़ा़फ़रान दूंगा. नौकर सुनते ही राज़ी हो गया.  नौकर ने दरवेश का सा भेस बदला और ख़ुरजीन में व्यापारी को बिठाकर चल पड़ा. गली में घुसते ही दूर से ही गाने बजाने की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं. नौकर आगे बढ़ता गया और व्यापारी के पीछे जाकर दरवाज़ा खटखटाया और गाने लगा-
आओ देखो, स्त्रियों के जाल व फ़रेब
बिया बेनीगर इन मकरे ज़नान
हाला हाज़िर कुन सदमन ज़ा़फ़रान
अब तो दो मुझे सौ मन ज़ा़फ़रान

बार-बार वह गाता जा रहा जब तक दरवाज़ा खुल न गया. व्यापारी ने देखा सामने मह़िफल जमी थी.  गवैये बैठे गाना गा रहे थे, साज़ बजा रहे थे. चालीस जवान प्यालों में शराब पी रहे थे और व्यापारी की स्त्री मस्त-मस्त मदहोश-सी कभी इस युवक की गोद में, कभी उस युवक की गोद में जाती और दरवेश से कहती-वहीं पंक्तियां बार-बार गाओ-
आओ देखो, स्त्रियों के जाल व फ़रेब
अब तो दो मुझे सौ मन ज़ा़फरान
सुबह होने से पहले यह महफ़िल ख़त्म हुई. दरवेश व व्यापारी दोनों एक साथ लौटे. व्यापारी की स्त्री ने उन चालीस जवानों को एक-एक करके तह़खाने में भेजा और दरवाज़ा बंद करके मस्त, नशे में चूर, झूमती-सी बेख़बर सो गई. व्यापारी थैले से बाहर निकला और नौकर को हुक्म दिया कि जब तक मैं सोकर न उठूं, इसको संदूक़ में बंद करके एक किनारे रख दो. सुबह जब स्त्री की आंख खुली तो वह सबकुछ समझ गई. उसको संदूक़ से निकालकर व्यापारी के हुक्म से घो़डे की दुम से बांधकर जंगल की ओर भेज दिया गया. व्यापारी ने उन चालीस जवानों को आज़ाद किया और तह़खाने से ऊपर बुलाकर पूछा-असली माजरा क्या था?

वे बोले- संध्या के समय जब हम इधर से गुज़रे तो छत पर खड़ी आपकी स्त्री को देखते ही हम उसके रूप-लावण्य की चमक से बेहोश हो जाते. जब होश आता तो अपने को तह़खाने में पाते. जब आप शिकार पर चले जाते तो हमारे बंध खोले जाते और हम रंगरेलियां मनाते.

किताब में प्रस्तुत लोक कथाएं पाठक को ईरान की संस्कृति और सभ्यता से परिचित कराती हैं. नासिरा शर्मा की यह कोशिश सराहनीय है. इससे हिंदुस्तान के लोगों को ईरानी सभ्यता को जानने का मौक़ा मिलेगा. दरअसल, इस तरह की कोशिशें विभिन्न देशों के बीच रिश्तों को और बेहतर बनाने का काम करती हैं. आज के दौर में ऐसे कार्यों की बेहद ज़रूरत है. साहित्य देश की सरहदों को नहीं मानता. वह तो उन हवाओं की तरह है, जो जहां से गुज़रती हैं, माहौल को ख़ुशनुमा बना देती हैं.

किताब रोचक है, लेकिन कई जगह भाषा की अशुद्धियां हैं. उर्दू शब्दों को ग़लत तरीक़े से लिखा गया है. हिंदी में उर्दू के शब्द लिखते वक़्त अकसर नुक्ता ग़लत लगा दिया जाता है, जिससे उर्दू जानने वालों को वे शब्द काफ़ी अखरते हैं. बेहतर हो नु़क्ता लगाया ही न जाए. बहरहाल, किताब रोचकता से सराबोर है, जिसे पाठक पढ़ना पसंद करेंगे.

समीक्ष्य कृति : क़िस्सा जाम का  
लेखिका : नासिरा शर्मा
प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन      
क़ीमत : 225 रुपये

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ग्रहों ने बढ़ाई जल की पवित्रता


फ़िरदौस ख़ान
दुनिया की तमाम सभ्यताएं नदियों के किनारे ही परवान चढ़ी हैं, क्योंकि पानी के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता. हिंदुस्तान में भी नदियों के किनारे बस्तियां बसीं और कई सभ्यताएं फली-फूलीं. ख़ास बात तो यह है कि यहां के बाशिंदों ने नदियों को देवी मानकर उनकी पूजा तक की. इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगम पर महाकुंभ का आयोजन किया जाता है. इस साल का कुंभ बहुत अहम रहा है. ज्योतिष के मुताबिक़, 535 साल बाद ग्रहों के अति कल्याणकारी योग बने हैं. बदलती राशियों ने अमृत की बूंदें बढ़ा दी हैं, जिससे गंगा का पानी कई सौ गुना पवित्र हो गया है. वैज्ञानिकों का मानना यह भी है कि कुंभ और बृहस्पति के योग से धरती का जल पहले के मुक़ाबले ज़्यादा सा़फ हो गया है. 

भारतीय संस्कृति में आस्था का पर्व महाकुंभ हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि समूची दुनिया में मशहूर है. पूरी दुनिया से लोग इलाहाबाद पहुंचते हैं और पावन गंगा में स्नान करके मोक्ष की कामना करते हैं. हाल में हिन्द पॉकेट बुक्स ने महाकुंभ से संबंधित एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है महाकुंभ. इस किताब की ख़ास बात यह है कि इसमें तस्वीरों से महाकुंभ के हर पहलू पर रोशनी डाली गई है. कुंभ को लेकर तीन कथाएं कही जाती हैं. पहली कथा इंद्र से संबंधित है, जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्य माला का अपमान हुआ. इंद्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और ऐरावत ने उसे नीचे पैरों से कुचल दिया. इस पर दुर्वासा ने इंद्र को शाप दिया. इस शाप की वजह से पूरी दुनिया में हाहाकार मच गया. नारायण की कृपा से समुद्र मंथन की प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मी प्रकट हुईं और उन्होंने जनता के कष्ट दूर करे. अमृतपान से वंचित असुरों ने कुंभ को नागलोक में छिपा दिया, जहां से गरूड़ ने उसका उद्धार किया और उसी संदर्भ में क्षीरसागर तक पहुंचने से पहले जिन स्थानों पर उन्होंने कलश रखा, वे कुंभ स्थलों के रूप में प्रसिद्ध हुए. दूसरी कथा प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों के सौतियाडाह से संबंधित है. विवाद इस बात पर हुआ था कि सूर्य के केश काले हैं या सफ़ेद. जिसकी बात झूठी निकलेगी, वही दासी बन जाएगी. कद्रू के पुत्र थे नागराज वासुकि और विनता के पुत्र थे वैनतेय गरु़ड. कद्रू ने अपने नागवंशों को प्रेरित करके उनके कालेपन से सूर्य के अश्वों को ढक दिया. नतीजतन, विनता हार गई. ख़ुद को दासता से छुड़ाने के लिए उसने अपने पुत्र गरूड़ से कहा. कद्रू ने शर्त रखी कि नागलोक से वासुकि-रक्षित अमृत-कुंभ जब भी कोई ला देगा, तो मैं उसे दासत्व से मुक्त कर दूंगी. गरूड़ अमृत कलश लेकर भू-लोक होते हुए अपने पिता कश्यप मुनि के उत्तराखंड में गंधमादन पर्वत पर स्थित आश्रम के लिए चल पड़े. उधर, वासुकि ने इंद्र को सूचना दे दी. इंद्र ने गरूड़ पर चार बार हमला किया और चारों प्रसिद्ध स्थानों पर कुंभ का अमृत छलका, जिससे कुंभ पर्व की धारणा पैदा हुई. अमृत-मंथन की उस कथा को अधिक महत्व दिया जाता है, जिसमें ख़ुद विष्णु मोहिनी रूप धारण करके असुरों को छल से पराजित करते हैं. यह कथा अनेक ग्रंथों में मिलती है. हरिद्वार, तीर्थराज प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार प्रमुख स्थलों पर अमृत-कलश से छलकी हुई बूंदों के कारण कुंभ जैसे महापर्व को मनाए जाने की परंपरा शुरू हुई. अमृत-कलश की रक्षा में संलग्न चंद्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया, सूर्य ने घ़डे को टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा छीने जाने से और शनि ने कहीं जयंत अकेले ही संपूर्ण अमृत पान न कर ले, इस तरह से उस कुंभ की रक्षा की. इन्हीं ग्रहों के परस्पर संयोग होने पर कुंभ पर्व का योग अलग-अलग स्थलों पर हुआ करता है. हरिद्वार में कुंभ राशि का बृहस्पति हो, और मेष में सूर्य संक्रांति हो, तो कुंभ का महापर्व हुआ करता है. भारतीय ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को ज्ञान का, सूर्य को आत्मा का और चंद्रमा को मन का प्रतीक माना गया है. मन, आत्मा और ज्ञान इन तीनों की अनुकूल स्थिति वस्तुत: लौकिक और परालौकिक दोनों दृष्टियों से महत्व रखती है. चारों स्थलों पर लगने वाले कुंभ की तिथि इन विशिष्ट ग्रहों सूर्य, चंद्र और बृहस्पति की स्थिति विशेष होने पर ही संभव होती है. भारतीय संस्कृति में कुंभ सृष्टि का प्रतीक माना गया है.

बहरहाल, यह किताब बेहद प्रासंगिक और उपयोगी है, क्योंकि इसमें कुंभ के पौराणिक महत्व सहित इससे जुड़ी हर छोटी-ब़डी जानकारी दी गई है. इसमें कोई दो राय नहीं कि यह महाकुंभ पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : महाकुंभ
लेखक: तेजपाल सिंह धामा 
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 100 रुपये

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एक दुआ तुम्हारे लिए...फ़िरदौस ख़ान


मेरे महबूब
तुम्हारी ज़िन्दगी में
हमेशा मुहब्बत का मौसम रहे...

मुहब्बत के मौसम के
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफ़शी किरनों से
सजी हों...

जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी धूप से
सराबोर हों...

जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ हों...
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती रहे...

तुम्हारी ज़िन्दगी का हर साल
और
साल का हर दिन
और
हर दिन का हर लम्हा
मुहब्बत के नूर से रौशन रहे...

यही मेरी दुआ है
तुम्हारे लिए...
-फ़िरदौस ख़ान
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जिस्म की ख़्वाहिशों पर रिवायतों के पहरे हैं...


जिस्म की
ख़्वाहिशों पर
रिवायतों के पहरे हैं...

इसलिए
अज़ल से अबद तक
चलती रहती है
जिस्म और ज़मीर की जंग...

जिस्म को वास्ता है
फ़क़्त
नफ़्स की तमाम
ख़्वाहिशों को पूरा करने से...

लेकिन
ज़मीर को
लुत्फ़ आता है
हर  ख़्वाहिश  को
मिटाने में...
शायद
यही ज़मीर की
फ़ितरत है...

जिस्म शैतान
तो
ज़मीर फ़रिश्तों से
मुतासिर है...

मगर
इंसान तो
बस इंसान है...

वह न तो मुकम्मल
शैतान है
और न ही
फ़रिश्तों जैसा...

शायद इसलिए
उम्रभर
चलती रहती है
जिस्म और ज़मीर की जंग...
-फ़िरदौस ख़ान

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ये लखनऊ की सरज़मीं ...




-फ़िरदौस ख़ान
लखनऊ कई बार आना हुआ. पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान...और फिर यहां समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद. हमें दावत दी गई थी कि हम अखिलेश यादव की ताजपोशी के मौक़े पर मौजूद रहें और जश्न में भी शिरकत करें. बहरहाल, एक सुबह हमने दिल्ली से लखनऊ के लिए उड़ान भरी और क़रीब एक घंटे बाद हम इस प्यारी धरती पर थे... हमारे पास वक़्त बहुत काम था, लेकिन काम बहुत ज़्यादा...अगले रोज़ हमें वापस दिल्ली पहुंचना था...इस दौरान हमने अपने काम निपटाए और फिर कुछ वक़्त निकालकर बाज़ार की राह पकड़ी...वाक़ई बहुत अच्छा है यह शहर...इतना अच्छा कि कोई भी यहां बस जाना चाहेगा... लखनऊ में बहुत अच्छा वक़्त गुज़रा...इतनी पुरख़ुलूस मेहमान नवाज़ी कि हम कभी इसे भूल ही नहीं पाएंगे... रहने के लिए शानदार जगह और घूमने के लिए महंगी गाड़ी... साथ में सुरक्षा गार्ड...लगा कि हम उत्तर प्रदेश सरकार की ही कोई वज़ीर हैं...हा हा हा...

नवाबों का शहर लखनऊ अपनी तहज़ीब के लिए जाना जाता है. इसे पूरब की स्वर्ण नगरी और शिराज-ए-हिन्द भी कहा जाता है. शहर के बीच से गोमती नदी बहती है. लखनऊ जिस इलाक़े में आता है, उसे अवध के नाम से जाना जाता है. लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था. यह राम की विरासत थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को सौंप दिया था. लक्ष्मण के नाम पर इसका नाम लक्ष्मणावती पड़ गया. बाद में इसे लक्ष्मणपुर कहा जाने लगा. इसके बाद इसे लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया. यहां से अयोध्या भी महज़ 80 मील की दूरी पर है.

लखनऊ के बारे में एक और कहानी बताई जाती है, जिसके मुताबिक़ इस शहर का नाम लखन क़िले के कारीगर लखन अहीर के नाम पर रखा गया है. फ़िलहाल हम जिस लखनऊ को देख रहे हैं, जान रहे हैं, उसकी बुनियाद अवध के नवाब आसफ़-उद्दौला ने 1775 में रखी थी. वह  अवध के नवाब शुजाउद्दौला के बेटे थे. अवध के शासकों ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाकर इसे समृद्ध किया,  लेकिन बाद के नवाबों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. नतीजा यह हुआ कि लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध पर क़ब्ज़ा कर इसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया. 1850 में अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली और इसी के साथ लखनऊ के नवाबों का शासन ख़त्म हो गया.

इसके बाद 1902 में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एंड अवध कर दिया गया. आम बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया. फिर 1920 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया. राज्य का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ स्थापित की गई. आज़ादी के बाद 12 जनवरी, 1950 को इस इलाक़े का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना.

पुराने लखनऊ में चौक का बाज़ार अहम है. यह चिकन के कारीगरों और बाज़ारों के लिए मशहूर है.  चिकन के कपड़े और लज़ीज़ मिठाइयों के लिए लखनऊ में इससे अच्छी जगह नहीं मिलेगी. इसी चौक में नक्खास बाज़ार भी है. यहां का अमीनाबाद दिल्ली के चांदनी चौक की याद दिला देता है. यह बाज़ार शहर के बीचोबीच है. यहां थोक का सामान, सजावटी सामान, ज़ेवरात और कपड़े वगैरह मिलते हैं. दिल्ली में जो दर्जा कनॉट प्लेस को हासिल है, वही मुक़ाम लखनऊ में हज़रतगंज का है. यहां ख़ूब चहल-पहल रहती है. उत्तर प्रदेश का विधानसभा भवन भी इसी इलाक़े में है. इसके अलावा लाल बाग़, बेगम हज़रत महल पार्क,  कैथेड्रल चर्च, चिड़ियाघर, उत्तर रेलवे का मंडलीय रेलवे कार्यालय, मुख्य डाकघर,  पोस्टमास्टर जनरल कार्यालय, परिवर्तन चौक वगैरह भी यहां हैं. इनके अलावा निशातगंज, डालीगंज, सदर बाज़ार, बंगला बाज़ार, नरही, केसर बाग़ भी यहां के बड़े बाज़ारों में शामिल हैं.

चिकन लखनऊ की कशीदाकारी का बेहतरीन नमूना है. लखनवी ज़रदोज़ी यहां का लघु उद्योग है. ज़रदोज़ी फ़ारसी ज़बान का लफ़्ज़ है, जिसका मतलब है सोने की कढ़ाई. यह कढ़ाई हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में प्रचलित है. मुगल बादशाह अकबर के दौर में ज़रदोज़ी और समृद्ध हुई, लेकिन बाद में शाही संरक्षण की कमी और औद्योगिकरण के दौर में इसकी चमक मांद पड़ने लगी. मौजूदा दौर में इसका चलन फिर से बढ़ गया और इसकी चमक हिन्दुस्तान से लेकर विलायत तक झिलमिलाने लगी. लखनऊ के अलावा भोपाल और चेन्नई आदि कई शहरों में भी चिकन का काम होता है. चिकन की तक़रीबन 36 शैलियां हैं,  मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि शामिल हैं. उस्ताद फ़याज़ खां और हसन मिर्ज़ा साहिब चिकन के मशहूर कारीगर थे. हमने यहां से अम्मी के लिए चिकन के सूट ख़रीदे और अपने लिए चिकन के सूटों के  अलावा ज़रदोज़ी के काम वाली लहंगा-चुन्नी ख़रीदी. यहां जो लहंगा- चुन्नी हमें 35 हज़ार में मिल गई, वो दिल्ली में 50 हज़ार में भी नहीं मिल पाती. अब कपड़ों के साथ चूड़ियां न ली जाएं, भला यह कैसे हो सकता है. हरी, नीली, पीली और  गुलाबी कांच की चूड़ियों के साथ सुनहरी और नुक़रई यानी चांदी रंग की चूड़ियां भी ग़ज़ब ढा रही थीं.चुनांचे  उन्हें भी ले ही लिया.        

लखनऊ का खाना भी लाजवाब है. पुरानी दिल्ली के खाने का ज़ायक़ा यहां आपको मिलेगा. सच पूछिए तो मुग़लई खाने की लज़्ज़त किसी और शैली के खाने में मिल ही नहीं सकती. बिरयानी, कबाब, कौरमा, क़ीमा, नाहरी, शीरमाल, ज़र्दा, शाही टुकड़े, नान और रुमाली रोटी के क्या कहने. वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुंडे के कबाब भी कम लज़ीज़ नहीं हैं. दिल्ली के दरयागंज के  कबाब के बाद यहीं के कबाब हमें पसंद आये. सईद साहब अकसर हमारे लिए लखनऊ से कबाब लेकर आते हैं. खाने के साथ, चाट, मिठाई और पान का ज़िक्र न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता. यहां की मिठाइयों में जितनी लज़्ज़त है, उतनी ही चटपटी चाट भी है. पान के तो क्या कहने, हम सादा पान ही खा लेते हैं, कभी-कभार इसलिए बाक़ी पान के ज़ायक़ों के बारे में क्या कहें.

लखनऊ का ज़िक्र आते ही 1960 में गुरुदत्त फिलम्स के बैनर तले बनी फ़िल्म चौदहवीं का चांद का एक गीत याद आ जाता है, जो लखनऊ की तहज़ीब पर रचा गया था. मशहूर शायर शकील बदायूंनी के  लिखे इस गीत को मुहम्मद रफ़ी साहब ने गाया था, जिसके बोल हैं-
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क़ का वतन
यही तो वो मुक़ाम है
जहां अवध की शाम है
जवां-जवां हसीं- हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं 


शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये अहल-ए-इल्म का नगर
है मंज़िलों की गोद में
यहां हर एक रहगुज़र
ये शहर लालदार है
यहां दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली-कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं ...


यहां की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर अहल-ए-दिल यहां 
ग़रीब जां-निसार हैं
हर एक शाख़ पर यहां
हैं बुलबुलों के चह चहे
क़दम-क़दम पे कहकहे
हर एक नज़ारा दिलनशीं 
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहां के दोस्त बावफ़ा
मोहब्बतों से आशना
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबां भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती को यक़ीन 
ये लखनऊ की सरज़मीं ...               
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