लुप्त होती ग्रामीण संस्कृति...


फ़िरदौस ख़ान
आदि अदृश्य नदी सरस्वती के तट पर बसे हरित प्रदेश हरियाणा अकसर जाना होता है. बदलाव की बयार ऐसी चली है कि हर बार कुछ न कुछ नया दिखाई पड़ता है. पहले जहां खेतों में सब्ज़ियों की बहार होती थी, वहीं अब मकान बन रहे हैं. खेत सिकुड़ रहे हैं और बस्तियां फैलती जा रही हैं. दरअसल, आधुनिकता की अंधी दौड़ ने परिवेश को इतना प्रभावित किया है कि कितनी ही प्राचीन संस्कृतियां अब इतिहास का विषय बनकर रह गई हैं. परिवर्तन प्रकृति का नैसर्गिक नियम है, और यह शाश्वत सत्य भी है, लेकिन धन के बढ़ते प्रभाव ने स्वाभाविक परिवर्तन को एक नकारात्मक मोड़ दे दिया है. हालात ये हो गए हैं कि व्यक्ति पैसे को ही सब कुछ मानने लगा है. रिश्ते-नाते, रीति-रिवाज उसके लिए महज़ ऐसे शब्द बनकर रह गए हैं, जिसकी उसे क़तई परवाह नहीं है. दूर देहात या गांव का नाम लेते ही ज़ेहन में जो तस्वीर उभरती थी, उसकी कल्पना मात्र से ही सुकून की अनुभूति होती थी. दूर-दूर तक लहलहाते हरे-भरे खेत, हवा के झोंकों से शाखों पर झूमते सरसों के पीले-पीले फूल, पनघट पर पानी भरती गांव की गोरियां, लोकगीतों पर थिरकती अल्ह़ड नवयुवतियां मानो गांव की समूची संस्कृति को अपने में समेटे हुए हों, लेकिन आज ऐसा नहीं है. पिछले तीन दशकों के दौरान हुए विकास ने गांव की शक्ल ही बदलकर रख दी है. गांव अब गांव न रहकर, शहर होते जा रहे हैं. गांव के शहरीकरण की प्रक्रिया में नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है. हालत यह है कि एक परिवार को देखकर पड़ौसी के परिवार का रहन-सहन बदल रहा है. पूर्वजों के बनाए घर अब घर न रहकर, शहरी कोठियों की शक्ल अख्तियार कर रहे हैं. गांवों की चौपालें अब अपना स्वरूप लगभग खो चुकी हैं. शहरी सभ्यता का सबसे ज़्यादा असर उन गांवों पर पड़ा है, जो शहर की तलहटियों के साथ लगते हैं. ये गांव न तो गांव रहे हैं और न ही पूरी तरह शहर बन पाए हैं. पहले ग्रामीण अंचलों में सांग न केवल मनोरंजन का साधन होते थे, बल्कि नैतिक शिक्षा का भी सशक्त माध्यम होते थे. प्राचीन समृद्ध लोक संस्कृति की परंपरा वाले प्रदेश हरियाणा में आज सांस्कृतिक और शैक्षणिक पिछ़डेपन के कारण लोककलाएं पार्श्व में जा रही हैं. लुप्त हो रही ग्रामीण संस्कृति को संभाल पाने की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं हुए हैं. शौर्यपूर्ण, लेकिन सादा और सहज जीवन जीने वाले हरियाणा के लोगों में आज जीवन के उच्च मूल्यों की उपेक्षा हो रही है. पैसे और ताक़त की अपसंस्कृति हर तरफ़ पनपती दिखाई देती है.

हरियाणा विशेष रूप से ग्रामीण संस्कृति का प्रदेश रहा है. यहां के गांव प्राचीन समय से संस्कृति और सामाजिक गतिविधियों के केंद्र रहे हैं. गीता का जन्मस्थान होने का गौरव भी श्रीकृष्ण ने इसी प्रदेश को दिया, लेकिन कितने अफ़सोस की बात है कि ग्रामीण अपनी गौरवशाली संस्कृति को दरकिनार कर शहर की पाश्चात्य संस्कृति की गर्त में समा जाना चाहते हैं. ये लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में शहरों में जाते हैं और अपने साथ गांव में लेकर आते हैं नशे की आदत, जुआखोरी और ऐसी ही कई अन्य बुराइयां, जो ग्रामीण जीवन को दूषित करने पर आमादा है. नतीजा सबके सामने है, गांवों में भाईचारे की भावना ख़त्म होती जा रही है और ग्रामीण गुटबाज़ी का शिकार हो रहे हैं. लोग गांवों से निकलकर शहरों की तरफ़ भागने लगे हैं, क्योंकि उनका गांवों से मोह भंग हो रहा है. इतना ही नहीं, अब धीरे-धीरे गांव भी फार्म हाउस कल्चर की चपेट में आ रहे हैं. अपनी पहचान खो चुका धनाढ्य वर्ग अब सुकून की तलाश में दूर देहात में ज़मीन ख़रीदकर फार्म हाउसों का निर्माण करने की होड़ में लगा है.

शहर की बुराइयों को देखते हुए यह चिंता जायज़ है कि गांव की सहजता अब धीरे-धीरे मर रही है. तीज-त्योहारों पर भी गांवों में पहले वाली वह रौनक़ नहीं रही है. शहरवासियों की तरह ग्रामीण भी अब बस रस्म अदायगी ही करने लगे हैं. शहर और गांवों के बीच पुल बने मीडिया ने शहर की अच्छाइयां गांवों तक भले ही न पहुंचाई हों, पर वहां की बुराइयां गांव तक ज़रूर पहुंचा दी हैं. अंधाधुंध शहरीकरण के ख़तरे आज हर तरफ़ दिखाई दे रहे हैं. समाज का तेज़ी से विखंडन हो रहा है. समाज परिवार की लघुतम इकाई तक पहुंच गया है, यानी लोग समाज के बारे में न सोचकर सिर्फ़ अपने और अपने परिवार के बारे में ही सोचते हैं. इसलिए हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि गांव सुविधाओं के मामले में कुछ-कुछ शहर बने रहें, लेकिन संस्कृति के मामले में गांव ही रहें. मगर तब तक ऐसा संभव नहीं हो सकता, जब तक विकास की हमारी अवधारणा आयातित होती रहेगी और उदारीकरण के प्रति हमारा नज़रिया नहीं बदलेगा. आज शहर पूरी तरह से पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आ चुके हैं और अब शहरों के साथ लगते गांव भी इनकी देखादेखी अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं.

विकास के अभाव में गांव स्वाभाविक रूप से आत्मनिर्भरता की तरफ़ क़दम नहीं बढ़ा पाए. ऐसे में रोज़गार की तलाश में गांव के युवकों का शहर की तरफ़ पलायन शुरू होना और शहर की बुराइयों से उनका रूबरू होना, हैरत की बात नहीं है. लेकिन इस सबके बावजूद उम्मीद बरक़रार है कि वह दिन ज़रूर आएगा, जब लोग पाश्चात्य संस्कृति के मोहजाल से निकलकर अपनी संस्कृति की तरफ़ लौटेंगे. काश, वह दिन जल्द आ जाए. हम तो यही दुआ करते हैं. आमीन...

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ख़ुरासान की रोचक लोक कथाएं...

फ़िरदौस ख़ान
दुनिया भर के देशों की अपनी संस्कृति और सभ्यता है. लोक कथाएं भी इसी संस्कृति और सभ्यता की प्रतीक हैं. लोक कथाओं से किसी देश, किसी समाज की संस्कृति और उनकी सभ्यता का पता चलता है. बचपन में सभी ने अपनी नानी या दादी से लोक कथाएं सुनी होंगी. लोक कथाओं में ज़िंदगी के अनुभवों का निचो़ड़ होता है. ये लोक कथाएं सीख देती हैं. लोक कथाएं कैसे और कब वजूद में आईं, यह बताना तो बेहद मुश्किल है, लेकिन इतना ज़रूर है कि इनका इतिहास बहुत पुराना है. लोक कथाएं विभिन्न देशों में सांस्कृतिक घनिष्ठता को बढ़ाती हैं. भारत और ईरान में साहित्यिक आदान-प्रदान का दौर जारी है. लोकभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नासिरा शर्मा की किताब क़िस्सा जाम का, ईरान के ख़ुरासान की लोक कथाओं पर आधारित है. इसमें लेखिका ने ईरान के कवि मोहसिन मोहन दोस्त की लोक कथाओं का हिंदी अनुवाद पेश किया है. अनुवाद का काम कोई आसान नहीं होता. इसमें इस बात का ख़ास ख्याल रखना होता है कि मूल तहरीर का भाव क़ायम रहे. नासिरा शर्मा ख़ुद कहती हैं कि ये सारे क़िस्से ख़ुरासानी बोली में थे. फ़ारसी जानने के बावजूद उनके इशारों और मुहावरों को समझना आसान नहीं था, क्योंकि ये चीज़ें शब्दकोष में नहीं मिलतीं. उन्हें केवल कोई ईरानी ही बता सकता है. लेकिन कोशिश यही की गई कि ये क़िस्से ज्यों के त्यों पाठकों तक पहुंचाएं जाएं, ताकि उनका अर्थ वही रहेख जो क़िस्सागो कहना चाहता है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के फ़ारसी भाषा तथा साहित्य विभाग के अध्यक्ष सैय्यद अमीर आबिदी कहते हैं कि ख़ुरासान एक चौराहे की तरह है, जहां ईरान की सभ्यता तथा संस्कृति संगठित हुई और जहां से अन्य क्षेत्रों में फैली. तूस, निशापुर और मशहद के केंद्र सांस्कृतिक वैभव के प्रतीक रहे और जहां पर उमर, ख़य्याम और फ़िरदौसी जैसे चिराग़ अब भी जीवित हैं. ख़ुरासान की ये लोक कथाएं निशापुर और दमगान से निकले हुए फीरोजों की तरह भव्य और सारगर्भित हैं. इस किताब में तीन तरह के क़िस्से शामिल हैं. पहले में दर्शन का चिंतन है, दूसरे में बादशाहों के ज़रिये दुनियावी बर्ताव का ज्ञान है और तीसरे में परियों और हब्शियों के क़िस्से हैं, जो बताते हैं कि ख़ुदा ने इंसान को जो ताक़त बख्शी है, वह किसी और प्राणी के पास नहीं है. इसी ताक़त की बदौलत इंसान मुश्किल से मुश्किल हालात का सामना करते हुए अपनी जीत का परचम लहराता रहा है. इस किताब में अनेक रोचक लोक कथाएं हैं, जो पाठकों को आख़िर तक बांधे रखने में सक्षम हैं. बानगी देखिए-

एक रोज़ एक व्यापारी मछलियों से भरा टब लेकर घर पहुंचा. उसकी बला सी सुंदर पत्नी ने मछलियों को देखकर अपने चेहरे को नक़ाब से छुपा लिया, ताकि टब की मछलियां उसे न देख सकें. इस तरह मुंह छुपाये रही, ताकि उसका पति उसे सती सावित्री जैसी समझे.
जब भी व्यापारी घर में रहता कभी भी वह अपना मुंह हौज़ में न धोती और कहती-नर मछलियां कहीं मेरे पाप का कारण न बन जाएं. इस लाज से भरे अपने स्वभाव के कारण वह व्यापारी के सामने कभी हौज़ के समीप न जाती. एक दिन व्यापारी अपनी स्त्री के साथ बैठा हुआ था. एक नौकर भी वहीं खड़ा था. व्यापारी की स्त्री ने पहले की ही तरह नर मछलियों की बातें कीं और ब़डी अदा से शर्माई. यह सब देखकर वह नौकर हंस प़डा.
व्यापारी ने पूछा-क्यों हंसे तुम?
कुछ नहीं, यूं ही हंस दिया.

बिना कारण कैसी हंसी? सुनकर नौकर कुछा नहीं बोला, ख़ामोश ख़डा रहा. यह देखकर व्यापारी चिढ़ गया. उसका क्रोध देखकर नौकर डर गया और बोला-आपकी सुंदर स्त्री आपके ही घर के तहख़ाने में चालीस जवानों को बंद किए है. जब आप शिकार को चले जाते हैं तो वह उनके साथ रंगरेलियां मनाती है. यह सुनते ही व्यापारी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और वह बोला-मैं सच्चाई जानकर ही दम लूंगा. कल शिकार पर जा रहा हूं, परंतु लौटकर तुम्हारे ही घर आऊंगा. फिर सोचूंगा कि मुझे क्या करना है. दूसरे दिन व्यापारी दोबारा शिकार को चला गया और लौटकर उसी नौकर के घर पहुंचा और बोला-मुझे गधे पर रखे ख़ुरजीन (थैला) में छुपाकर वह जगह दिखाओ, जहां मेरी स्त्री चालीस जवानों के साथ गुलछर्रे उड़ाती है. इस काम के बदले में मैं तुमको सौ मन ज़ा़फ़रान दूंगा. नौकर सुनते ही राज़ी हो गया.  नौकर ने दरवेश का सा भेस बदला और ख़ुरजीन में व्यापारी को बिठाकर चल पड़ा. गली में घुसते ही दूर से ही गाने बजाने की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं. नौकर आगे बढ़ता गया और व्यापारी के पीछे जाकर दरवाज़ा खटखटाया और गाने लगा-
आओ देखो, स्त्रियों के जाल व फ़रेब
बिया बेनीगर इन मकरे ज़नान
हाला हाज़िर कुन सदमन ज़ा़फ़रान
अब तो दो मुझे सौ मन ज़ा़फ़रान

बार-बार वह गाता जा रहा जब तक दरवाज़ा खुल न गया. व्यापारी ने देखा सामने मह़िफल जमी थी.  गवैये बैठे गाना गा रहे थे, साज़ बजा रहे थे. चालीस जवान प्यालों में शराब पी रहे थे और व्यापारी की स्त्री मस्त-मस्त मदहोश-सी कभी इस युवक की गोद में, कभी उस युवक की गोद में जाती और दरवेश से कहती-वहीं पंक्तियां बार-बार गाओ-
आओ देखो, स्त्रियों के जाल व फ़रेब
अब तो दो मुझे सौ मन ज़ा़फरान
सुबह होने से पहले यह महफ़िल ख़त्म हुई. दरवेश व व्यापारी दोनों एक साथ लौटे. व्यापारी की स्त्री ने उन चालीस जवानों को एक-एक करके तह़खाने में भेजा और दरवाज़ा बंद करके मस्त, नशे में चूर, झूमती-सी बेख़बर सो गई. व्यापारी थैले से बाहर निकला और नौकर को हुक्म दिया कि जब तक मैं सोकर न उठूं, इसको संदूक़ में बंद करके एक किनारे रख दो. सुबह जब स्त्री की आंख खुली तो वह सबकुछ समझ गई. उसको संदूक़ से निकालकर व्यापारी के हुक्म से घो़डे की दुम से बांधकर जंगल की ओर भेज दिया गया. व्यापारी ने उन चालीस जवानों को आज़ाद किया और तह़खाने से ऊपर बुलाकर पूछा-असली माजरा क्या था?

वे बोले- संध्या के समय जब हम इधर से गुज़रे तो छत पर खड़ी आपकी स्त्री को देखते ही हम उसके रूप-लावण्य की चमक से बेहोश हो जाते. जब होश आता तो अपने को तह़खाने में पाते. जब आप शिकार पर चले जाते तो हमारे बंध खोले जाते और हम रंगरेलियां मनाते.

किताब में प्रस्तुत लोक कथाएं पाठक को ईरान की संस्कृति और सभ्यता से परिचित कराती हैं. नासिरा शर्मा की यह कोशिश सराहनीय है. इससे हिंदुस्तान के लोगों को ईरानी सभ्यता को जानने का मौक़ा मिलेगा. दरअसल, इस तरह की कोशिशें विभिन्न देशों के बीच रिश्तों को और बेहतर बनाने का काम करती हैं. आज के दौर में ऐसे कार्यों की बेहद ज़रूरत है. साहित्य देश की सरहदों को नहीं मानता. वह तो उन हवाओं की तरह है, जो जहां से गुज़रती हैं, माहौल को ख़ुशनुमा बना देती हैं.

किताब रोचक है, लेकिन कई जगह भाषा की अशुद्धियां हैं. उर्दू शब्दों को ग़लत तरीक़े से लिखा गया है. हिंदी में उर्दू के शब्द लिखते वक़्त अकसर नुक्ता ग़लत लगा दिया जाता है, जिससे उर्दू जानने वालों को वे शब्द काफ़ी अखरते हैं. बेहतर हो नु़क्ता लगाया ही न जाए. बहरहाल, किताब रोचकता से सराबोर है, जिसे पाठक पढ़ना पसंद करेंगे.

समीक्ष्य कृति : क़िस्सा जाम का  
लेखिका : नासिरा शर्मा
प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन      
क़ीमत : 225 रुपये

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ग्रहों ने बढ़ाई जल की पवित्रता


फ़िरदौस ख़ान
दुनिया की तमाम सभ्यताएं नदियों के किनारे ही परवान चढ़ी हैं, क्योंकि पानी के बिना ज़िंदगी का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता. हिंदुस्तान में भी नदियों के किनारे बस्तियां बसीं और कई सभ्यताएं फली-फूलीं. ख़ास बात तो यह है कि यहां के बाशिंदों ने नदियों को देवी मानकर उनकी पूजा तक की. इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगम पर महाकुंभ का आयोजन किया जाता है. इस साल का कुंभ बहुत अहम रहा है. ज्योतिष के मुताबिक़, 535 साल बाद ग्रहों के अति कल्याणकारी योग बने हैं. बदलती राशियों ने अमृत की बूंदें बढ़ा दी हैं, जिससे गंगा का पानी कई सौ गुना पवित्र हो गया है. वैज्ञानिकों का मानना यह भी है कि कुंभ और बृहस्पति के योग से धरती का जल पहले के मुक़ाबले ज़्यादा सा़फ हो गया है. 

भारतीय संस्कृति में आस्था का पर्व महाकुंभ हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि समूची दुनिया में मशहूर है. पूरी दुनिया से लोग इलाहाबाद पहुंचते हैं और पावन गंगा में स्नान करके मोक्ष की कामना करते हैं. हाल में हिन्द पॉकेट बुक्स ने महाकुंभ से संबंधित एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम है महाकुंभ. इस किताब की ख़ास बात यह है कि इसमें तस्वीरों से महाकुंभ के हर पहलू पर रोशनी डाली गई है. कुंभ को लेकर तीन कथाएं कही जाती हैं. पहली कथा इंद्र से संबंधित है, जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्य माला का अपमान हुआ. इंद्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और ऐरावत ने उसे नीचे पैरों से कुचल दिया. इस पर दुर्वासा ने इंद्र को शाप दिया. इस शाप की वजह से पूरी दुनिया में हाहाकार मच गया. नारायण की कृपा से समुद्र मंथन की प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मी प्रकट हुईं और उन्होंने जनता के कष्ट दूर करे. अमृतपान से वंचित असुरों ने कुंभ को नागलोक में छिपा दिया, जहां से गरूड़ ने उसका उद्धार किया और उसी संदर्भ में क्षीरसागर तक पहुंचने से पहले जिन स्थानों पर उन्होंने कलश रखा, वे कुंभ स्थलों के रूप में प्रसिद्ध हुए. दूसरी कथा प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों के सौतियाडाह से संबंधित है. विवाद इस बात पर हुआ था कि सूर्य के केश काले हैं या सफ़ेद. जिसकी बात झूठी निकलेगी, वही दासी बन जाएगी. कद्रू के पुत्र थे नागराज वासुकि और विनता के पुत्र थे वैनतेय गरु़ड. कद्रू ने अपने नागवंशों को प्रेरित करके उनके कालेपन से सूर्य के अश्वों को ढक दिया. नतीजतन, विनता हार गई. ख़ुद को दासता से छुड़ाने के लिए उसने अपने पुत्र गरूड़ से कहा. कद्रू ने शर्त रखी कि नागलोक से वासुकि-रक्षित अमृत-कुंभ जब भी कोई ला देगा, तो मैं उसे दासत्व से मुक्त कर दूंगी. गरूड़ अमृत कलश लेकर भू-लोक होते हुए अपने पिता कश्यप मुनि के उत्तराखंड में गंधमादन पर्वत पर स्थित आश्रम के लिए चल पड़े. उधर, वासुकि ने इंद्र को सूचना दे दी. इंद्र ने गरूड़ पर चार बार हमला किया और चारों प्रसिद्ध स्थानों पर कुंभ का अमृत छलका, जिससे कुंभ पर्व की धारणा पैदा हुई. अमृत-मंथन की उस कथा को अधिक महत्व दिया जाता है, जिसमें ख़ुद विष्णु मोहिनी रूप धारण करके असुरों को छल से पराजित करते हैं. यह कथा अनेक ग्रंथों में मिलती है. हरिद्वार, तीर्थराज प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार प्रमुख स्थलों पर अमृत-कलश से छलकी हुई बूंदों के कारण कुंभ जैसे महापर्व को मनाए जाने की परंपरा शुरू हुई. अमृत-कलश की रक्षा में संलग्न चंद्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया, सूर्य ने घ़डे को टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा छीने जाने से और शनि ने कहीं जयंत अकेले ही संपूर्ण अमृत पान न कर ले, इस तरह से उस कुंभ की रक्षा की. इन्हीं ग्रहों के परस्पर संयोग होने पर कुंभ पर्व का योग अलग-अलग स्थलों पर हुआ करता है. हरिद्वार में कुंभ राशि का बृहस्पति हो, और मेष में सूर्य संक्रांति हो, तो कुंभ का महापर्व हुआ करता है. भारतीय ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को ज्ञान का, सूर्य को आत्मा का और चंद्रमा को मन का प्रतीक माना गया है. मन, आत्मा और ज्ञान इन तीनों की अनुकूल स्थिति वस्तुत: लौकिक और परालौकिक दोनों दृष्टियों से महत्व रखती है. चारों स्थलों पर लगने वाले कुंभ की तिथि इन विशिष्ट ग्रहों सूर्य, चंद्र और बृहस्पति की स्थिति विशेष होने पर ही संभव होती है. भारतीय संस्कृति में कुंभ सृष्टि का प्रतीक माना गया है.

बहरहाल, यह किताब बेहद प्रासंगिक और उपयोगी है, क्योंकि इसमें कुंभ के पौराणिक महत्व सहित इससे जुड़ी हर छोटी-ब़डी जानकारी दी गई है. इसमें कोई दो राय नहीं कि यह महाकुंभ पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : महाकुंभ
लेखक: तेजपाल सिंह धामा 
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 100 रुपये

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एक दुआ तुम्हारे लिए...फ़िरदौस ख़ान


मेरे महबूब
तुम्हारी ज़िन्दगी में
हमेशा मुहब्बत का मौसम रहे...

मुहब्बत के मौसम के
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफ़शी किरनों से
सजी हों...

जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी धूप से
सराबोर हों...

जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ हों...
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती रहे...

तुम्हारी ज़िन्दगी का हर साल
और
साल का हर दिन
और
हर दिन का हर लम्हा
मुहब्बत के नूर से रौशन रहे...

यही मेरी दुआ है
तुम्हारे लिए...
-फ़िरदौस ख़ान
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जिस्म की ख़्वाहिशों पर रिवायतों के पहरे हैं...


जिस्म की
ख़्वाहिशों पर
रिवायतों के पहरे हैं...

इसलिए
अज़ल से अबद तक
चलती रहती है
जिस्म और ज़मीर की जंग...

जिस्म को वास्ता है
फ़क़्त
नफ़्स की तमाम
ख़्वाहिशों को पूरा करने से...

लेकिन
ज़मीर को
लुत्फ़ आता है
हर  ख़्वाहिश  को
मिटाने में...
शायद
यही ज़मीर की
फ़ितरत है...

जिस्म शैतान
तो
ज़मीर फ़रिश्तों से
मुतासिर है...

मगर
इंसान तो
बस इंसान है...

वह न तो मुकम्मल
शैतान है
और न ही
फ़रिश्तों जैसा...

शायद इसलिए
उम्रभर
चलती रहती है
जिस्म और ज़मीर की जंग...
-फ़िरदौस ख़ान

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ये लखनऊ की सरज़मीं ...




-फ़िरदौस ख़ान
लखनऊ कई बार आना हुआ. पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान...और फिर यहां समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद. हमें दावत दी गई थी कि हम अखिलेश यादव की ताजपोशी के मौक़े पर मौजूद रहें और जश्न में भी शिरकत करें. बहरहाल, एक सुबह हमने दिल्ली से लखनऊ के लिए उड़ान भरी और क़रीब एक घंटे बाद हम इस प्यारी धरती पर थे... हमारे पास वक़्त बहुत काम था, लेकिन काम बहुत ज़्यादा...अगले रोज़ हमें वापस दिल्ली पहुंचना था...इस दौरान हमने अपने काम निपटाए और फिर कुछ वक़्त निकालकर बाज़ार की राह पकड़ी...वाक़ई बहुत अच्छा है यह शहर...इतना अच्छा कि कोई भी यहां बस जाना चाहेगा... लखनऊ में बहुत अच्छा वक़्त गुज़रा...इतनी पुरख़ुलूस मेहमान नवाज़ी कि हम कभी इसे भूल ही नहीं पाएंगे... रहने के लिए शानदार जगह और घूमने के लिए महंगी गाड़ी... साथ में सुरक्षा गार्ड...लगा कि हम उत्तर प्रदेश सरकार की ही कोई वज़ीर हैं...हा हा हा...

नवाबों का शहर लखनऊ अपनी तहज़ीब के लिए जाना जाता है. इसे पूरब की स्वर्ण नगरी और शिराज-ए-हिन्द भी कहा जाता है. शहर के बीच से गोमती नदी बहती है. लखनऊ जिस इलाक़े में आता है, उसे अवध के नाम से जाना जाता है. लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था. यह राम की विरासत थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को सौंप दिया था. लक्ष्मण के नाम पर इसका नाम लक्ष्मणावती पड़ गया. बाद में इसे लक्ष्मणपुर कहा जाने लगा. इसके बाद इसे लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया. यहां से अयोध्या भी महज़ 80 मील की दूरी पर है.

लखनऊ के बारे में एक और कहानी बताई जाती है, जिसके मुताबिक़ इस शहर का नाम लखन क़िले के कारीगर लखन अहीर के नाम पर रखा गया है. फ़िलहाल हम जिस लखनऊ को देख रहे हैं, जान रहे हैं, उसकी बुनियाद अवध के नवाब आसफ़-उद्दौला ने 1775 में रखी थी. वह  अवध के नवाब शुजाउद्दौला के बेटे थे. अवध के शासकों ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाकर इसे समृद्ध किया,  लेकिन बाद के नवाबों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. नतीजा यह हुआ कि लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध पर क़ब्ज़ा कर इसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया. 1850 में अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह ने ब्रिटिश अधीनता स्वीकार कर ली और इसी के साथ लखनऊ के नवाबों का शासन ख़त्म हो गया.

इसके बाद 1902 में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एंड अवध कर दिया गया. आम बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया. फिर 1920 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया. राज्य का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ स्थापित की गई. आज़ादी के बाद 12 जनवरी, 1950 को इस इलाक़े का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना.

पुराने लखनऊ में चौक का बाज़ार अहम है. यह चिकन के कारीगरों और बाज़ारों के लिए मशहूर है.  चिकन के कपड़े और लज़ीज़ मिठाइयों के लिए लखनऊ में इससे अच्छी जगह नहीं मिलेगी. इसी चौक में नक्खास बाज़ार भी है. यहां का अमीनाबाद दिल्ली के चांदनी चौक की याद दिला देता है. यह बाज़ार शहर के बीचोबीच है. यहां थोक का सामान, सजावटी सामान, ज़ेवरात और कपड़े वगैरह मिलते हैं. दिल्ली में जो दर्जा कनॉट प्लेस को हासिल है, वही मुक़ाम लखनऊ में हज़रतगंज का है. यहां ख़ूब चहल-पहल रहती है. उत्तर प्रदेश का विधानसभा भवन भी इसी इलाक़े में है. इसके अलावा लाल बाग़, बेगम हज़रत महल पार्क,  कैथेड्रल चर्च, चिड़ियाघर, उत्तर रेलवे का मंडलीय रेलवे कार्यालय, मुख्य डाकघर,  पोस्टमास्टर जनरल कार्यालय, परिवर्तन चौक वगैरह भी यहां हैं. इनके अलावा निशातगंज, डालीगंज, सदर बाज़ार, बंगला बाज़ार, नरही, केसर बाग़ भी यहां के बड़े बाज़ारों में शामिल हैं.

चिकन लखनऊ की कशीदाकारी का बेहतरीन नमूना है. लखनवी ज़रदोज़ी यहां का लघु उद्योग है. ज़रदोज़ी फ़ारसी ज़बान का लफ़्ज़ है, जिसका मतलब है सोने की कढ़ाई. यह कढ़ाई हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में प्रचलित है. मुगल बादशाह अकबर के दौर में ज़रदोज़ी और समृद्ध हुई, लेकिन बाद में शाही संरक्षण की कमी और औद्योगिकरण के दौर में इसकी चमक मांद पड़ने लगी. मौजूदा दौर में इसका चलन फिर से बढ़ गया और इसकी चमक हिन्दुस्तान से लेकर विलायत तक झिलमिलाने लगी. लखनऊ के अलावा भोपाल और चेन्नई आदि कई शहरों में भी चिकन का काम होता है. चिकन की तक़रीबन 36 शैलियां हैं,  मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि शामिल हैं. उस्ताद फ़याज़ खां और हसन मिर्ज़ा साहिब चिकन के मशहूर कारीगर थे. हमने यहां से अम्मी के लिए चिकन के सूट ख़रीदे और अपने लिए चिकन के सूटों के  अलावा ज़रदोज़ी के काम वाली लहंगा-चुन्नी ख़रीदी. यहां जो लहंगा- चुन्नी हमें 35 हज़ार में मिल गई, वो दिल्ली में 50 हज़ार में भी नहीं मिल पाती. अब कपड़ों के साथ चूड़ियां न ली जाएं, भला यह कैसे हो सकता है. हरी, नीली, पीली और  गुलाबी कांच की चूड़ियों के साथ सुनहरी और नुक़रई यानी चांदी रंग की चूड़ियां भी ग़ज़ब ढा रही थीं.चुनांचे  उन्हें भी ले ही लिया.        

लखनऊ का खाना भी लाजवाब है. पुरानी दिल्ली के खाने का ज़ायक़ा यहां आपको मिलेगा. सच पूछिए तो मुग़लई खाने की लज़्ज़त किसी और शैली के खाने में मिल ही नहीं सकती. बिरयानी, कबाब, कौरमा, क़ीमा, नाहरी, शीरमाल, ज़र्दा, शाही टुकड़े, नान और रुमाली रोटी के क्या कहने. वहीं अकबरी गेट पर मिलने वाले हाजी मुराद अली के टुंडे के कबाब भी कम लज़ीज़ नहीं हैं. दिल्ली के दरयागंज के  कबाब के बाद यहीं के कबाब हमें पसंद आये. सईद साहब अकसर हमारे लिए लखनऊ से कबाब लेकर आते हैं. खाने के साथ, चाट, मिठाई और पान का ज़िक्र न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता. यहां की मिठाइयों में जितनी लज़्ज़त है, उतनी ही चटपटी चाट भी है. पान के तो क्या कहने, हम सादा पान ही खा लेते हैं, कभी-कभार इसलिए बाक़ी पान के ज़ायक़ों के बारे में क्या कहें.

लखनऊ का ज़िक्र आते ही 1960 में गुरुदत्त फिलम्स के बैनर तले बनी फ़िल्म चौदहवीं का चांद का एक गीत याद आ जाता है, जो लखनऊ की तहज़ीब पर रचा गया था. मशहूर शायर शकील बदायूंनी के  लिखे इस गीत को मुहम्मद रफ़ी साहब ने गाया था, जिसके बोल हैं-
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क़ का वतन
यही तो वो मुक़ाम है
जहां अवध की शाम है
जवां-जवां हसीं- हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं 


शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये अहल-ए-इल्म का नगर
है मंज़िलों की गोद में
यहां हर एक रहगुज़र
ये शहर लालदार है
यहां दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली-कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं ...


यहां की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर अहल-ए-दिल यहां 
ग़रीब जां-निसार हैं
हर एक शाख़ पर यहां
हैं बुलबुलों के चह चहे
क़दम-क़दम पे कहकहे
हर एक नज़ारा दिलनशीं 
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहां के दोस्त बावफ़ा
मोहब्बतों से आशना
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबां भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती को यक़ीन 
ये लखनऊ की सरज़मीं ...               
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ज़िन्दगी में रंग भरें...


फ़िरदौस ख़ान
ज़िन्दगी बहुत ख़ूबसूरत है...लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपनी ज़िन्दगी बेहद नीरस और बेमक़सद नज़र आती है...यक़ीन मानिए, ज़िन्दगी कभी भी बोझल नहीं होती...यह तो हमारा नज़रिया है जो को ख़ूबसूरत या बदसूरत बनता है...पिछले दिनों डायमंड बुक्स की किताब 'आपके भीतर छिपी सफलता पाने की आठ शक्तियां' पढ़ी...इसके लेखक शिशिर श्रीवास्तव हैं. इस किताब में बताया गया कि किस तरह ज़िंदगी से मायूस व्यक्ति अपने जीवन में इंद्रधनुषी रंग भर सकता है. लेखक का कहना है कि उज्ज्वल एवं सफल भविष्य की राह आपके अपने हाथों में है. ईश्वर भी आपको मार्गदर्शन देंगे और राह दिखाएंगे, पर आधा रास्ता तय होने के बाद. किसी ने कहा है कि कोई भी लौटकर नए सिरे से आरंभ नहीं कर सकता, किंतु कोई भी अबसे आरंभ करते हुए एक नया अंत रच सकता है. बक़ौल हज़रत इनायत खान, आत्मा को उज्ज्वल कर देने वाले शब्द रत्नों से भी अधिक मूल्यवान होते हैं. किताब का एक अध्याय है प्रेम की शक्ति. प्रेम एक कर देने वाली वह शक्ति है, जो ब्रह्मांड में हमें हमारा सच्चा उद्देश्य पाने में सहायक होती है. यह भाव उष्मा, आदान-प्रदान, आनंद, करुणा, आभार, निकटता, सेवाभाव और क्षमा से संबंध रखता है. अल्बर्ट आइंस्टाइन के मुताबिक़, एक मनुष्य उसी संपूर्ण का अंश है, जिसे हम ब्रह्मांड कहते हैं. वह अंश जो समय और काल से सीमित है. वह स्वयं का, अपने विचारों का और भावनाओं का सबसे अलग अनुभव करता है. चेतना का दृष्टिभ्रम एक क़ैद है, जो हमें हमारी निजी इच्छाओं और निकटतम जन के स्नेह तक ही बांध देता है. हमें सभी जीवों और प्रकृति के प्रति करुणा का भाव विस्तृत करते हुए इस दायरे को बढ़ाना चाहिए.

प्रेम शब्द का प्रयोग प्राय: दो प्रेमियों के बीच सशक्त स्नेह भाव को प्रकट करने के लिए किया जाता है. वहीं दूसरी ओर शर्त या समझौता रहित प्रेम परिवार के सदस्यों, मित्रों, पड़ोसियों और अन्य वचनबद्ध संबंधों के लिए होता है. जब आप किसी व्यक्ति से उसके कार्यों या मान्यता से परे जाकर प्रेम करते हैं तो वह अन्कंडीशनल लव कहलाता है. सच्चा प्यार सबके लिए होता है, जैसे सूर्य की किरणें, जो उष्मा देती हैं. गुलाब की पंखुड़ियां जीवन में रंग और आनंद लाती हैं, पर्वत का झरना मुक्त रूप से प्रवाहित होता है और सभी जीवों के लिए समान रूप से उपलब्ध होता है. लोग इसी प्रेम के अभाव में क्रोध, उलझन और व्यग्रता के शिकार होते हैं. जिस तरह शरीर को भोजन और पानी चाहिए, उसी तरह हमारे मन को भावनात्मक रूप से स्नेह चाहिए. जहां भी इसका अभाव होता है, लोग असामान्य रूप से व्यवहार करते हैं तथा दूसरों के ध्यानाकर्षण के लिए हिंसक और आक्रामक साधनों का सहारा लेते हैं.

प्रेम वही है, जो बिना किसी अपेक्षा के किया जाए. यहां बदले में कोई अपेक्षा नहीं होती है. जब हम सच्चे हृदय से सबको स्नेह देने लगते हैं तो ब्रह्मांड से हमारा कोई तार जुड़ जाता है और हमारे भीतर से सूर्य की तरह प्रेम की उज्ज्वल और सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है. सूर्य की तरह प्रेम की शक्ति का प्रभाव स्वयं पर भी पड़ता है. हम सच्चा स्नेह देते हैं तो बदले में स्वयं भी वही पाते हैं. जब आप धरती के सभी जीवों को एक समान भाव से स्नेह देते हैं तो सबके साथ जुड़ाव का एक गहरा नाता विकसित होता है. हम परस्पर और प्रत्येक से एक सशक्त संबंध रखते हैं. इस प्रकार प्रेम की शक्ति हमें सदा उपलब्ध रहती है. आप बक़ौल सर विंस्टन चर्चिल, हमें जो मिलता है, उससे अपनी आजीविका चलाते हैं. हम जो देते हैं, उससे एक जीवन बनाते हैं. जब आप स्वयं को क्रोध, ईर्ष्या और वासना आदि नकारात्मक भावों से मुक्त कर देते हैं तो आपके हृदय के भीतर सच्चे प्रेम के अंकुर विकसित होते हैं. जब आप इन भावों को मिटा देते हैं तो आपके भीतर ब्रह्मांड के सकारात्मक प्रवाह को समा लेने का स्थान बन जाता है. यह अच्छे कर्मों और क्षमादान के अभ्यास से ही संभव है. प्रेम की शक्ति अपने साथ सत्यता, सौंदर्य, ऊर्जा, ज्ञान, स्वतंत्रता, अच्छाई और प्रसन्नता का वरदान लाती है. जब चारों ओर प्रेम होता है तो नकारात्मक प्रभाव भी क्षीण हो जाते हैं. प्रेम की सकारात्मक तरंगें नकारात्मकता को मिटा देती हैं. जब आप तुलना छोड़कर स्वयं को सृजन चक्र से जोड़ देते हैं तो आपके हृदय में बसी प्रेम की शक्ति में निखार आता है. मदर टेरेसा ने कहा था, हम इसी उद्देश्य के लिए जन्मे हैं, प्रेम करने और पाने के लिए.

प्रेम रचनात्मक विचारों के प्रति केंद्रित होने में सहायक होता है, हमें अपने लक्ष्यों पर भरोसा बनाए रखने में सहायक होता है, हमारी कल्पना एवं आंतरिक शक्ति में वृद्धि करता है. यह एक रचनात्मक और निरंतर बनी रहने वाली ऊर्जा है और आकाश के तारों की तरह अनंत है. प्रेम में चुंबकीय और चमत्कारी शक्तियां हैं और ये पदार्थ और ऊर्जा से परे हैं. एक बेहद रोचक कहानी है. एक निर्धन लड़का अपनी शिक्षा का खर्च चलाने के लिए घर-घर जाकर वस्त्र बेचता था. एक दिन उसे एहसास हुआ कि उसकी जेब में केवल दस सेंट बचे हैं. वह भूखा था, उसने तय किया कि वह अगले घर से थोड़ा भोजन मांगेगा. जब उसने एक ़खूबसूरत युवती को घर का दरवाज़ा खोलते देखा तो उसकी भूख मर गई. वह भोजन की बजाय एक गिलास पानी मांग बैठा. युवती ने उसे पानी की बजाय दूध ला दिया. लड़के ने दूध पीने के बाद पूछा, इसके लिए कितना देना होगा? जवाब मिला, तुम्हें कुछ नहीं देना होगा, मेरी मां ने सिखाया है कि किसी की भलाई करने के बाद उससे अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. लड़का बोला, मैं आपको दिल से धन्यवाद देता हूं. कई वर्षों बाद वह महिला बीमार हो गई. स्थानीय डॉक्टरों ने उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया, ताकि वहां के विशेषज्ञ उसकी खोई सेहत लौटा सकें. वहां डॉ. हावर्ड कैली कंसल्टेट थे. जब उन्होंने महिला के शहर का नाम सुना तो स्वयं वहां पहुंच गए. उन्होंने झट से उस दयालु महिला को पहचान लिया और उसकी प्राण रक्षा का संकल्प लिया. वह पहले दिन से ही उस मामले पर विशेष ध्यान देने लगे और वह महिला स्वस्थ हो गई. उन्होंने निर्देश दे रखे थे कि महिला का बिल उन्हें ही दिया जाए. उन्होंने बिल देखा और उसके कोने पर कुछ लिखकर महिला के कमरे में भेज दिया. महिला को लगा कि उसे आजीवन वह भारी बिल अदा करना होगा, पर बिल के कोने में लिखा था, एक गिलास दूध के बदले में दिया गया: डॉ. हावर्ड कैली.

दरअसल, प्रेम आपके भीतर विनय भाव पैदा करता है. क्षमा करना आत्मा का सौंदर्य है, जिसे प्राय: नकार दिया जाता है. हो सकता है कि कई बार दूसरे आपके कष्ट का कारण बनें. आप स्वयं को आहत और क्रोधित पाएंगे. ऐसे में आपको इसे भूलना सीखना होगा. किसी को क्षमा करते ही आपके मन को भी चैन आ जाएगा. आप भी अतीत के घावों से मुक्त होंगे और समय सारे कष्ट सोख लेगा. यहां आपका मा़फ करने और भुला देने का निर्णय अधिक महत्व रखता है. बक़ौल मैक्स लुकाडो, क्षमा देने का अर्थ है, किसी को मुक्त करने के लिए द्वार खोलना और स्वयं को एक मनुष्य के रूप में एहसास दिलाना.जब आप स्वयं तथा दूसरों से सच्चा प्रेम करते हैं तो पाएंगे कि पूरा संसार आपसे प्रेम करने लगा है. लोग धीरे-धीरे आपको चाहने लगेंगे. यदि लोग परस्पर ईमानदारी और प्रेम से बात करें तो सभी संघर्षों का समाधान हो सकता है. जब आप प्रत्येक समस्या का सामना प्रेम से करेंगे तो आपका कोई शत्रु नहीं होगा. लोग आपको एक नई नज़र से देखेंगे, क्योंकि उनके विचार अलग होंगे और वे आपके बारे में पहले से एक प्रभाव बना चुके होंगे. बक़ौल गोथे फॉस्ट, एक मनुष्य संसार में वही देखता है, जो उसके हृदय में होता है. एक सदी पहले तक लोग बिना किसी पासपोर्ट या वीजा, बिना किसी पाबंदी के पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकते थे. राष्ट्रीय सीमाओं का पता तक नहीं था. दो विश्व युद्धों के बाद कई राष्ट्र स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे, पहचान का संकट उभरा और कई संकीर्ण राष्ट्रवादी भावनाएं सामने आ गईं. ये भावनाएं इतनी मज़बूत थीं कि बच्चों को अपने ही देश की सभ्यता और परंपरा पर गर्व करना सिखाया जाने लगा और देशभक्ति का विचार पनपा. इसने पूरी दुनिया के धनी और निर्धनों की खाई को गहरा कर दिया. बक़ौल मोकीची ओकादा, यदि आप संसार से प्रेम करेंगे और लोगों की सहायता करेंगे तो आप जहां भी जाएंगे, ईश्वर आपकी सहायता करेंगे. किताब बताती है कि इंसान के अंदर ही वह शक्ति छिपी हुई है, जिसे पहचान कर वह अपने जीवन में बेहतरीन बदलाव ला सकता है. याद रखें कि ज़िन्दगी बार-बार नहीं मिलती...


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अपने देश में बेगानी हिन्दी...




हर भाषा की अपनी अहमियत होती है...फिर भी मातृ भाषा हमें सबसे प्यारी होती है...क्योंकि उसी ज़बान में हम बोलना सीखते हैं...बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है...इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है... लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं...बार-बार अपनी मातृ भाषा का अपमान करते हुए अंग्रेजी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं...हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है...वो लोग जिनके पुरखे अंग्रेजी का 'ए' नहीं जानते थे, वो लोग भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे...हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी...दरअसल, वो तो हिन्दी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं...
अंग्रेजी भी अच्छी भाषा है...इंसान को अंग्रेजी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए...इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है,
लेकिन अपनी मातृ भाषा की कुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाना हमें तो क़तई मंजूर नहीं...और आपको...?


अपने देश में बेगानी हिन्दी... 
-फ़िरदौस ख़ान
देश की आज़ादी को छह दशक से भी ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है। इसके बावजूद अभी तक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितंबर को हिन्दी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।

गौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। इतना ही नहीं चीनी के बाद हिन्दी दुनियाभर में सबसे ज़्यादा बोली और समझी जाती है। भारत में उत्तर और मध्य भागों में हिन्दी बोली जाती है, जबकि विदेशों में फ़िज़ी, गयाना, मॉरिशस, नेपाल और सूरीनाम के कुछ बाशिंदे हिन्दी भाषी हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ दुनियाभर में क़रीब 60 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं।

देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।

संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिन्दी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।

भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा गया है। मगर हिन्दी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।

ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिन्दी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिन्दी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिन्दी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिन्दी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।

संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्टीय्र स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छोद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का इस्तेमाल किया जाना है, किन के लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम 1963, राजभाषा अधिनियम 1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।

पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के चलते अंग्रेज़ी भाषा हिन्दी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिन्दी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिन्दी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिन्दी भाषा के विकास के लिए गंभीर है तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।

हिन्दी के विकास में हिन्दी साहित्य के अलावा हिन्दी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिन्दी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिन्दी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।

अधिकारियों का दावा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिन्दी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिन्दी दिवस’ के तौर पर माना लेने से हिन्दी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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प्रेम से ज़िंदगी में रंग भरें

फ़िरदौस ख़ान
शिशिर श्रीवास्तव की पुस्तक-आपके भीतर छिपी सफलता पाने की आठ शक्तियां निराशा में डूबे लोगों के लिए बेहद उपयोगी साबित हो सकती है. इसमें बताया गया कि किस तरह ज़िंदगी से मायूस व्यक्ति अपने जीवन में इंद्रधनुषी रंग भर सकता है. लेखक का कहना है कि उज्ज्वल एवं सफल भविष्य की राह आपके अपने हाथों में है. ईश्वर भी आपको मार्गदर्शन देंगे और राह दिखाएंगे, पर आधा रास्ता तय होने के बाद. किसी ने कहा है कि कोई भी लौटकर नए सिरे से आरंभ नहीं कर सकता, किंतु कोई भी अबसे आरंभ करते हुए एक नया अंत रच सकता है. बक़ौल हज़रत इनायत खान, आत्मा को उज्ज्वल कर देने वाले शब्द रत्नों से भी अधिक मूल्यवान होते हैं. किताब का एक अध्याय है प्रेम की शक्ति. प्रेम एक कर देने वाली वह शक्ति है, जो ब्रह्मांड में हमें हमारा सच्चा उद्देश्य पाने में सहायक होती है. यह भाव उष्मा, आदान-प्रदान, आनंद, करुणा, आभार, निकटता, सेवाभाव और क्षमा से संबंध रखता है. अल्बर्ट आइंस्टाइन के मुताबिक़, एक मनुष्य उसी संपूर्ण का अंश है, जिसे हम ब्रह्मांड कहते हैं. वह अंश जो समय और काल से सीमित है. वह स्वयं का, अपने विचारों का और भावनाओं का सबसे अलग अनुभव करता है. चेतना का दृष्टिभ्रम एक क़ैद है, जो हमें हमारी निजी इच्छाओं और निकटतम जन के स्नेह तक ही बांध देता है. हमें सभी जीवों और प्रकृति के प्रति करुणा का भाव विस्तृत करते हुए इस दायरे को बढ़ाना चाहिए.

प्रेम शब्द का प्रयोग प्राय: दो प्रेमियों के बीच सशक्त स्नेह भाव को प्रकट करने के लिए किया जाता है. वहीं दूसरी ओर शर्त या समझौता रहित प्रेम परिवार के सदस्यों, मित्रों, पड़ोसियों और अन्य वचनबद्ध संबंधों के लिए होता है. जब आप किसी व्यक्ति से उसके कार्यों या मान्यता से परे जाकर प्रेम करते हैं तो वह अन्कंडीशनल लव कहलाता है. सच्चा प्यार सबके लिए होता है, जैसे सूर्य की किरणें, जो उष्मा देती हैं. गुलाब की पंखुड़ियां जीवन में रंग और आनंद लाती हैं, पर्वत का झरना मुक्त रूप से प्रवाहित होता है और सभी जीवों के लिए समान रूप से उपलब्ध होता है. लोग इसी प्रेम के अभाव में क्रोध, उलझन और व्यग्रता के शिकार होते हैं. जिस तरह शरीर को भोजन और पानी चाहिए, उसी तरह हमारे मन को भावनात्मक रूप से स्नेह चाहिए. जहां भी इसका अभाव होता है, लोग असामान्य रूप से व्यवहार करते हैं तथा दूसरों के ध्यानाकर्षण के लिए हिंसक और आक्रामक साधनों का सहारा लेते हैं.

प्रेम वही है, जो बिना किसी अपेक्षा के किया जाए. यहां बदले में कोई अपेक्षा नहीं होती है. जब हम सच्चे हृदय से सबको स्नेह देने लगते हैं तो ब्रह्मांड से हमारा कोई तार जुड़ जाता है और हमारे भीतर से सूर्य की तरह प्रेम की उज्ज्वल और सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है. सूर्य की तरह प्रेम की शक्ति का प्रभाव स्वयं पर भी पड़ता है. हम सच्चा स्नेह देते हैं तो बदले में स्वयं भी वही पाते हैं. जब आप धरती के सभी जीवों को एक समान भाव से स्नेह देते हैं तो सबके साथ जुड़ाव का एक गहरा नाता विकसित होता है. हम परस्पर और प्रत्येक से एक सशक्त संबंध रखते हैं. इस प्रकार प्रेम की शक्ति हमें सदा उपलब्ध रहती है. आप बक़ौल सर विंस्टन चर्चिल, हमें जो मिलता है, उससे अपनी आजीविका चलाते हैं. हम जो देते हैं, उससे एक जीवन बनाते हैं. जब आप स्वयं को क्रोध, ईर्ष्या और वासना आदि नकारात्मक भावों से मुक्त कर देते हैं तो आपके हृदय के भीतर सच्चे प्रेम के अंकुर विकसित होते हैं. जब आप इन भावों को मिटा देते हैं तो आपके भीतर ब्रह्मांड के सकारात्मक प्रवाह को समा लेने का स्थान बन जाता है. यह अच्छे कर्मों और क्षमादान के अभ्यास से ही संभव है. प्रेम की शक्ति अपने साथ सत्यता, सौंदर्य, ऊर्जा, ज्ञान, स्वतंत्रता, अच्छाई और प्रसन्नता का वरदान लाती है. जब चारों ओर प्रेम होता है तो नकारात्मक प्रभाव भी क्षीण हो जाते हैं. प्रेम की सकारात्मक तरंगें नकारात्मकता को मिटा देती हैं. जब आप तुलना छोड़कर स्वयं को सृजन चक्र से जोड़ देते हैं तो आपके हृदय में बसी प्रेम की शक्ति में निखार आता है. मदर टेरेसा ने कहा था, हम इसी उद्देश्य के लिए जन्मे हैं, प्रेम करने और पाने के लिए.

प्रेम रचनात्मक विचारों के प्रति केंद्रित होने में सहायक होता है, हमें अपने लक्ष्यों पर भरोसा बनाए रखने में सहायक होता है, हमारी कल्पना एवं आंतरिक शक्ति में वृद्धि करता है. यह एक रचनात्मक और निरंतर बनी रहने वाली ऊर्जा है और आकाश के तारों की तरह अनंत है. प्रेम में चुंबकीय और चमत्कारी शक्तियां हैं और ये पदार्थ और ऊर्जा से परे हैं. एक बेहद रोचक कहानी है. एक निर्धन लड़का अपनी शिक्षा का खर्च चलाने के लिए घर-घर जाकर वस्त्र बेचता था. एक दिन उसे एहसास हुआ कि उसकी जेब में केवल दस सेंट बचे हैं. वह भूखा था, उसने तय किया कि वह अगले घर से थोड़ा भोजन मांगेगा. जब उसने एक ़खूबसूरत युवती को घर का दरवाज़ा खोलते देखा तो उसकी भूख मर गई. वह भोजन की बजाय एक गिलास पानी मांग बैठा. युवती ने उसे पानी की बजाय दूध ला दिया. लड़के ने दूध पीने के बाद पूछा, इसके लिए कितना देना होगा? जवाब मिला, तुम्हें कुछ नहीं देना होगा, मेरी मां ने सिखाया है कि किसी की भलाई करने के बाद उससे अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. लड़का बोला, मैं आपको दिल से धन्यवाद देता हूं. कई वर्षों बाद वह महिला बीमार हो गई. स्थानीय डॉक्टरों ने उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया, ताकि वहां के विशेषज्ञ उसकी खोई सेहत लौटा सकें. वहां डॉ. हावर्ड कैली कंसल्टेट थे. जब उन्होंने महिला के शहर का नाम सुना तो स्वयं वहां पहुंच गए. उन्होंने झट से उस दयालु महिला को पहचान लिया और उसकी प्राण रक्षा का संकल्प लिया. वह पहले दिन से ही उस मामले पर विशेष ध्यान देने लगे और वह महिला स्वस्थ हो गई. उन्होंने निर्देश दे रखे थे कि महिला का बिल उन्हें ही दिया जाए. उन्होंने बिल देखा और उसके कोने पर कुछ लिखकर महिला के कमरे में भेज दिया. महिला को लगा कि उसे आजीवन वह भारी बिल अदा करना होगा, पर बिल के कोने में लिखा था, एक गिलास दूध के बदले में दिया गया: डॉ. हावर्ड कैली.

दरअसल, प्रेम आपके भीतर विनय भाव पैदा करता है. क्षमा करना आत्मा का सौंदर्य है, जिसे प्राय: नकार दिया जाता है. हो सकता है कि कई बार दूसरे आपके कष्ट का कारण बनें. आप स्वयं को आहत और क्रोधित पाएंगे. ऐसे में आपको इसे भूलना सीखना होगा. किसी को क्षमा करते ही आपके मन को भी चैन आ जाएगा. आप भी अतीत के घावों से मुक्त होंगे और समय सारे कष्ट सोख लेगा. यहां आपका मा़फ करने और भुला देने का निर्णय अधिक महत्व रखता है. बक़ौल मैक्स लुकाडो, क्षमा देने का अर्थ है, किसी को मुक्त करने के लिए द्वार खोलना और स्वयं को एक मनुष्य के रूप में एहसास दिलाना.जब आप स्वयं तथा दूसरों से सच्चा प्रेम करते हैं तो पाएंगे कि पूरा संसार आपसे प्रेम करने लगा है. लोग धीरे-धीरे आपको चाहने लगेंगे. यदि लोग परस्पर ईमानदारी और प्रेम से बात करें तो सभी संघर्षों का समाधान हो सकता है. जब आप प्रत्येक समस्या का सामना प्रेम से करेंगे तो आपका कोई शत्रु नहीं होगा. लोग आपको एक नई नज़र से देखेंगे, क्योंकि उनके विचार अलग होंगे और वे आपके बारे में पहले से एक प्रभाव बना चुके होंगे. बक़ौल गोथे फॉस्ट, एक मनुष्य संसार में वही देखता है, जो उसके हृदय में होता है. एक सदी पहले तक लोग बिना किसी पासपोर्ट या वीजा, बिना किसी पाबंदी के पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकते थे. राष्ट्रीय सीमाओं का पता तक नहीं था. दो विश्व युद्धों के बाद कई राष्ट्र स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे, पहचान का संकट उभरा और कई संकीर्ण राष्ट्रवादी भावनाएं सामने आ गईं. ये भावनाएं इतनी मज़बूत थीं कि बच्चों को अपने ही देश की सभ्यता और परंपरा पर गर्व करना सिखाया जाने लगा और देशभक्ति का विचार पनपा. इसने पूरी दुनिया के धनी और निर्धनों की खाई को गहरा कर दिया. बक़ौल मोकीची ओकादा, यदि आप संसार से प्रेम करेंगे और लोगों की सहायता करेंगे तो आप जहां भी जाएंगे, ईश्वर आपकी सहायता करेंगे. किताब बताती है कि इंसान के अंदर ही वह शक्ति छिपी हुई है, जिसे पहचान कर वह अपने जीवन में बेहतरीन बदलाव ला सकता है. 
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नील का हम पर हक़ है...


फ़िरदौस ख़ान
नील दुनिया की सबसे लंबी नदी है. क़ुरआन और बाइबल में भी इस नदी का ज़िक्र आता है. नबी और यहूदी धर्म के संस्थापक  हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को उनकी मां ने नील नदी के हवाले कर दिया था.  मिस्र के फ़िरऔन के ज़माने में जन्मे मूसा यहूदी माता-पिता के की औलाद थे, लेकिन मौत के डर से उनकी मां ने उन्हें नील नदी में बहा दिया था. उन्हें फ़िरऔन की पत्नी ने पाला और मूसा एक मिस्री शहज़ादे  बने. बाद में मूसा को मालूम हुआ कि वो यहूदी हैं और उनके यहूदी मुल्क  को फ़िरऔन ने ग़ुलाम बना लिया है. हज़रत मूसा ने एक मिस्री व्यक्ति से एक यहूदी को पिटते देखा तो उन्हें ग़ुस्सा आ गया और उन्होंने उस मिस्री को मार डाला और मदैन चले गए.  वहां उन्होंने विवाह कर लिया और अपने ससुर के घर 10 साल तक रहकर उनकी ख़िदमत की. इसके बाद वह अपने परिवार सहित वहां से रवाना हो गए. एक पहाड़ पर उन्होंने आग जलती देखी. वह अकेले पहाड़ पर गए.  यहां  हज़रत  मूसा की अल्लाह से मुलाक़ात हुई. अल्लाह के आदेश पर उन्होंने फ़िरऔन को हराकर यहूदियों को आज़ाद कराया और उन्हें मिस्र से इस्राईल पहुंचाया.

जब हज़रत मूसा अपने लोगों को आज़ाद कराकर मिस्र से रवाना हुए तो फ़िरऔन की फ़ौजों ने उनका पीछा किया. फ़ौज को आते देख हज़रत मूसा ने नील से रास्ता मांगा. और फिर नील नदी में रास्ता बन गया. सभी लोग नील को पार कर दूरी तरफ़ पहुंच गए, लेकिन जब फ़िरऔन की फौजें इस रस्ते पर आईं तो नील ने सबको गर्क कर दिया. मगर नील ने फ़िरऔन को वापस फ़ेंक दिया. रास्ते में इस्राईल संतति को अल्लाह की तरफ़ से दिव्य भोजन- 'मन्न', 'सल्वा' आता था. जब वह अल्लाह से बात करने और उसके आदेश लेने के लिए गए थे और अपने भाई हारून के ज़िम्मे इस्राईल संतति को कर गए थे. इस दौरान कुछ लोगों ने 'सामरी' के बहकावे में आकर एक बछड़ा बनाकर उसकी पूजा शुरू कर दी. सामरी ने जिब्राइल की धूलि से बछड़े में बोलने की शक्ति तक पैदा कर दी थी. जब हज़रत मूसा ने अल्लाह से बात की तो जवाब मिला - तू न देख सकेगा. अच्छा पहाड़ की तरफ़  देख. उस तेज़ को देख वह मूर्च्छित होकर गिर पड़े. अल्लाह ने अपने आदेश को पट्टियों पर लिखकर उन्हें दिए. हज़रत मूसा ने इस्राईल को अल्लाह द्वारा मिले 'दस आदेश' दिए,  जो आज भी यहूदी धर्म का प्रमुख स्तंभ है. क़ाबिले-गौर है कि फ़िरऔन की लाश को एक बक्से में रखा गया है.

गौरतलब  है कि  नील नदी अफ्रीका की सबसे बड़ी झील विक्टोरिया से निकलकर सहारा मरुस्थल के पूर्वी हिस्से को पार करती हुई उत्तर में भूमध्यसागर में गिरती है. यह भूमध्य रेखा के निकट भारी वर्षा वाले क्षेत्रों से निकलकर दक्षिण से उत्तर क्रमशःयुगाण्डा, इथियोपिया, सूडान एवं मिस्र से होकर बहते हुए एक लंबी घाटी बनाती है, जिसके दोनों तरफ़ की ज़मीन पतली पट्टी के रूप में हरी-भरी   नज़र आती है. यह पट्टी दुनिया का सबसे बड़ा मरूद्यान है. इसकी कई सहायक नदियां हैं, जिनमें श्वेत नील एवं नीली नील मुख्य हैं. अपने मुहाने पर यह 160 किलोमीटर लंबा और 240 किलोमीटर चौड़ा विशाल डेल्टा बनाती है. घाटी का सामान्य ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है. मिस्र की प्राचीन सभ्यता का विकास इसी नदी की घाटी में हुआ है. इसी नदी पर मिस्र देश का प्रसिद्ध अस्वान बांध बनाया गया है.

नील नदी की घाटी का दक्षिणी भाग भूमध्य रेखा के समीप स्थित है. यहां भूमध्यरेखीय जलवायु पाई जाती है. यहां साल भर तापमान ज़्यादा रहता है.  सालाना बारिश का औसत 212 सेमी. है. इसी वजह से यहां भूमध्यरेखीय सदाबहार के वन पाए जाते हैं. नील नदी के मध्यवर्ती भाग में सवाना तुल्य जलवायु पाई जाती है. इस प्रदेश में सवाना नामक उष्ण कटिबन्धीय घास का मैदान है. यहां पाए जाने वाले गोंद देने वाले पेड़ों के कारण सूडान दुनिया का सबसे बड़ा गोंद उत्पादक देश है. उत्तरी भाग में वर्षा के अभाव में खजूर, कंटीली झाड़ियां और  बबूल आदि मरुस्थलीय वृक्ष मिलते हैं. उत्तर के डेल्टा क्षेत्र में भूमध्यसागरीय जलवायु पाई जाती है. यहां वर्षा सर्दियों के मौसम में होती है...

नील नदी के बारे में लिखी मिस्र के प्रोफ़ेसर अहमद अल क़ादी की यह नज़्म याद आती है...
मिस्र की तरफ़ लौट आओ 
नील का पानी हम सबके लिए काफ़ी है...

उसने तुम्हें ज़िन्दगी के
वो अच्छे दिन अता किए
जिन्हें तुम याद करते रहते हो...
फिर तेल ने डॉलर को लेकर 
हमने बहकना चाहा...

मिस्र की तरफ़ लौट आओ 
उसके किनारों की गहराइयों में जाओ
नील का हम पर हक़ है...

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