नये रास्तों की तलाश

फ़िरदौस ख़ान
राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित लावा सुप्रतिष्ठित ग़ज़लकार, पटकथाकार जावेद अख़्तर का दूसरा ग़ज़ल और नज़्म संग्रह है. उनका पहला ग़ज़ल संग्रह तरकश 1995 में प्रकाशित हुआ था. क़रीब डेढ़ दशक से ज़्यादा अरसे बाद दूसरा संग्रह आने पर जावेद कहते हैं, अगर मेरी सुस्ती और आलस्य को नज़र अंदाज़ कर दिया जाए, तो इस देर की एक वजह बताई जा सकती है कि मेरे ख़्याल में एक के बाद दूसरे संग्रहों का अंबार लगा देना अपने अंदर कोई कारनामा नहीं है. मैं समझता हूं कि अगर अंबार लगे तो नए-नए विचारों का. जिस विचार को रचना का रूप मिल चुका हो, जिस विचार को अभिव्यक्ति मिल चुकी हो, उसे अगर किसी कारण कहने की ज़रूरत महसूस भी हो रही हो, तो कम से कम कथन शैली में ही कोई नवीनता, कोई विशिष्टता हो, वरना पाठक और श्रोता को बिना वजह तकलीफ़ क्यों दी जाए. अगर नवीनता सिर्फ़ नयेपन के लिए है तो कोई लाख समझे कि उसकी शायरी में सुर्ख़ाब के पर लग गए हैं, मगर उन परों में उड़ने की ताक़त नहीं हो सकती. बात तो जब है कि अ़क्ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उसे तन्हा छोड़ दिया गया है. मैं जानता हूं कि इसमें असंगति है, मगर बेखु़दी-ओ-शायरी, सादगी-ओ-पुरकारी, ये सब एक साथ दरकार हैं. वह कहते हैं, दरअसल, शायरी बुद्धि और मन का मिश्रण, विचार और भावनाओं का समन्वय मांगती है. मैंने सच्चे दिल से यही कोशिश की है कि मैं शायरी की यह फ़रमाईश पूरी कर सकूं. शायद इसलिए देर लग गई. फिर भी कौन जाने यह फ़रमाईश किस हद तक पूरी हो सकी है.

लावा के बारे में यह कहना क़तई ग़लत नहीं होगा कि देर आयद, दुरुस्त आयद. बेशक जावेद साहब अपने चाहने वालों की फ़रमाईश पूरी करने में खरे उतरे हैं. अपनी शायरी के बारे में वह कहते हैं, मैं जो सोचता हूं, वही लिखता हूं-
जिधर जाते हैं सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं फ़ायदे इसमें, मगर अच्छा नहीं लगता
मुझे दुश्मन से भी खुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर, क़दमों में अच्छा नहीं लगता...

17 जनवरी, 1945 को ग्वालियर में जन्मे जावेद अख़्तर के पिता जांनिसार अख़्तर प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर थे. उनकी मां सफ़िया मशहूर उर्दू लेखिका एवं शिक्षिका थीं. जावेद मशहूर शायर असरारुल हक़ मजाज़ के भांजे हैं. उनके ससुर कै़फ़ी आज़मी भी मशहूर शायर थे. जावेद की शायरी में भी वही तेवर नज़र आते हैं, जो उनके पिता के कलाम की जान रहे हैं. वह कहते हैं-
खू़न से सींची है मैंने जो ज़मीं मर-मर के
वो ज़मीं, एक सितमगर ने कहा, उसकी है
उसने ही इसको उजाड़ा है, इसे लूटा है
ये ज़मीं उसकी अगर है भी तो क्या उसकी है?

उनकी पंद्रह अगस्त नामक नज़्म 15 अगस्त, 2007 को संसद भवन में उसी जगह सुनाई गई थी, जहां से 15 अगस्त, 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुल्क की आज़ादी का ऐलान किया था.
यही जगह थी, यही दिन था और यही लम्हात
यहीं तो देखा था इक ख़्वाब, सोची थी इक बात
मुसाफ़िरों के दिलों में ख़्याल आता है
हर इक ज़मीर के आगे सवाल आता है

जावेद अख़्तर इस बात पर खु़शी का इज़हार करते हैं कि आज के दौर में भी शायरी की समाज में बहुत अहमियत है, जबकि लोगों को अपने रिश्तेदारों से मिलने तक का व़क्त नहीं मिल पाता. अपनी भागदौड़ की ज़िंदगी में भी लोग शायरी और अदब के लिए वक़्त निकालते हैं.

इंसान में सच कहने के साथ ही सच को क़ुबूल करने की भी क़ूवत होनी चाहिए. यह जज़्बा जावेद की शायरी में नज़र आता है. उनकी नज़्म एतेराफ़ यानी स्वीकारोक्ति इसी जज़्बे को बयां करती है-
सच तो ये है क़ुसूर अपना है
चांद को छूने की तमन्ना की
आसमां को ज़मीन पर मांगा
फूल चाहा कि पत्थरों पे खिले
कांटों में की तलाश खु़शबू की
आग से मांगते रहे ठंडक
ख़्वाब जो देखा
चाहा सच हो जाए
इसकी हमको सज़ा तो मिलनी थी...

उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने बीती 26 फ़रवरी को दिल्ली के इंडिया हेबिटेट सेंटर में लावा का लोकार्पण किया. बक़ौल अंसारी, जावेद अख़्तर की ग़ज़लें और नज़्में लावा शब्द के अर्थों पर पूरी तरह मुकम्मल उतरती हैं. साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष गोपीचंद नारंग का कहना था कि जावेद की ज़िंदगी की जद्दोजहद ही लावा की शायरी में बदल कर आ गई है. इस मौक़े पर शबाना आज़मी, ज़ोया अख़्तर और फ़रहान अख़्तर भी मौजूद थे.

जावेद अख़्तर ने यह किताब अपने एक दोस्त को समर्पित की है. उन्होंने लिखा, यह किताब उन तस्वीरों, गीतों और यादों के नाम, जिन्हें मेरा दोस्त फ़रहान मुजीब अपने पीछे छोड़ गया है. किताब में पहले एक नज़्म, उसके बाद एक ग़ज़ल दी गई है. ग़ज़ल के बाद ख़ाली जगह में एक शेअर दिया गया है. यह किताब उम्दा नज़्मों और ग़ज़लों का एक ऐसा संग्रह है, जिसे बार-बार पढ़ने को जी चाहेगा.
हमको तो बस तलाश नए रास्तों की है
हम हैं मुसाफ़िर ऐसे, जो मंज़िल से आए हैं

वासना आदि नकारात्मक भावों से मुक्त कर देते हैं तो आपके हृदय के भीतर सच्चे प्रेम के अंकुर विकसित होते हैं. जब आप इन भावों को मिटा देते हैं तो आपके भीतर ब्रह्मांड के सकारात्मक प्रवाह को समा लेने का स्थान बन जाता है. यह अच्छे कर्मों और क्षमादान के अभ्यास से ही संभव है. प्रेम की शक्ति अपने साथ सत्यता, सौंदर्य, ऊर्जा, ज्ञान, स्वतंत्रता, अच्छाई और प्रसन्नता का वरदान लाती है. जब चारों ओर प्रेम होता है तो नकारात्मक प्रभाव भी क्षीण हो जाते हैं. प्रेम की सकारात्मक तरंगें नकारात्मकता को मिटा देती हैं. जब आप तुलना छोड़कर स्वयं को सृजन चक्र से जोड़ देते हैं तो आपके हृदय में बसी प्रेम की शक्ति में निखार आता है. मदर टेरेसा ने कहा था, हम इसी उद्देश्य के लिए जन्मे हैं, प्रेम करने और पाने के लिए.

प्रेम रचनात्मक विचारों के प्रति केंद्रित होने में सहायक होता है, हमें अपने लक्ष्यों पर भरोसा बनाए रखने में सहायक होता है, हमारी कल्पना एवं आंतरिक शक्ति में वृद्धि करता है. यह एक रचनात्मक और निरंतर बनी रहने वाली ऊर्जा है और आकाश के तारों की तरह अनंत है. प्रेम में चुंबकीय और चमत्कारी शक्तियां हैं और ये पदार्थ और ऊर्जा से परे हैं. एक बेहद रोचक कहानी है. एक निर्धन लड़का अपनी शिक्षा का खर्च चलाने के लिए घर-घर जाकर वस्त्र बेचता था. एक दिन उसे एहसास हुआ कि उसकी जेब में केवल दस सेंट बचे हैं. वह भूखा था, उसने तय किया कि वह अगले घर से थोड़ा भोजन मांगेगा. जब उसने एक ़खूबसूरत युवती को घर का दरवाज़ा खोलते देखा तो उसकी भूख मर गई. वह भोजन की बजाय एक गिलास पानी मांग बैठा. युवती ने उसे पानी की बजाय दूध ला दिया. लड़के ने दूध पीने के बाद पूछा, इसके लिए कितना देना होगा? जवाब मिला, तुम्हें कुछ नहीं देना होगा, मेरी मां ने सिखाया है कि किसी की भलाई करने के बाद उससे अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. लड़का बोला, मैं आपको दिल से धन्यवाद देता हूं. कई वर्षों बाद वह महिला बीमार हो गई. स्थानीय डॉक्टरों ने उसे शहर के बड़े अस्पताल में भेज दिया, ताकि वहां के विशेषज्ञ उसकी खोई सेहत लौटा सकें. वहां डॉ. हावर्ड कैली कंसल्टेट थे. जब उन्होंने महिला के शहर का नाम सुना तो स्वयं वहां पहुंच गए. उन्होंने झट से उस दयालु महिला को पहचान लिया और उसकी प्राण रक्षा का संकल्प लिया. वह पहले दिन से ही उस मामले पर विशेष ध्यान देने लगे और वह महिला स्वस्थ हो गई. उन्होंने निर्देश दे रखे थे कि महिला का बिल उन्हें ही दिया जाए. उन्होंने बिल देखा और उसके कोने पर कुछ लिखकर महिला के कमरे में भेज दिया. महिला को लगा कि उसे आजीवन वह भारी बिल अदा करना होगा, पर बिल के कोने में लिखा था, एक गिलास दूध के बदले में दिया गया: डॉ. हावर्ड कैली.

दरअसल, प्रेम आपके भीतर विनय भाव पैदा करता है. क्षमा करना आत्मा का सौंदर्य है, जिसे प्राय: नकार दिया जाता है. हो सकता है कि कई बार दूसरे आपके कष्ट का कारण बनें. आप स्वयं को आहत और क्रोधित पाएंगे. ऐसे में आपको इसे भूलना सीखना होगा. किसी को क्षमा करते ही आपके मन को भी चैन आ जाएगा. आप भी अतीत के घावों से मुक्त होंगे और समय सारे कष्ट सोख लेगा. यहां आपका मा़फ करने और भुला देने का निर्णय अधिक महत्व रखता है. बक़ौल मैक्स लुकाडो, क्षमा देने का अर्थ है, किसी को मुक्त करने के लिए द्वार खोलना और स्वयं को एक मनुष्य के रूप में एहसास दिलाना.जब आप स्वयं तथा दूसरों से सच्चा प्रेम करते हैं तो पाएंगे कि पूरा संसार आपसे प्रेम करने लगा है. लोग धीरे-धीरे आपको चाहने लगेंगे. यदि लोग परस्पर ईमानदारी और प्रेम से बात करें तो सभी संघर्षों का समाधान हो सकता है. जब आप प्रत्येक समस्या का सामना प्रेम से करेंगे तो आपका कोई शत्रु नहीं होगा. लोग आपको एक नई नज़र से देखेंगे, क्योंकि उनके विचार अलग होंगे और वे आपके बारे में पहले से एक प्रभाव बना चुके होंगे. बक़ौल गोथे फॉस्ट, एक मनुष्य संसार में वही देखता है, जो उसके हृदय में होता है. एक सदी पहले तक लोग बिना किसी पासपोर्ट या वीजा, बिना किसी पाबंदी के पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकते थे. राष्ट्रीय सीमाओं का पता तक नहीं था. दो विश्व युद्धों के बाद कई राष्ट्र स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे, पहचान का संकट उभरा और कई संकीर्ण राष्ट्रवादी भावनाएं सामने आ गईं. ये भावनाएं इतनी मज़बूत थीं कि बच्चों को अपने ही देश की सभ्यता और परंपरा पर गर्व करना सिखाया जाने लगा और देशभक्ति का विचार पनपा. इसने पूरी दुनिया के धनी और निर्धनों की खाई को गहरा कर दिया. बक़ौल मोकीची ओकादा, यदि आप संसार से प्रेम करेंगे और लोगों की सहायता करेंगे तो आप जहां भी जाएंगे, ईश्वर आपकी सहायता करेंगे. किताब बताती है कि इंसान के अंदर ही वह शक्ति छिपी हुई है, जिसे पहचान कर वह अपने जीवन में बेहतरीन बदलाव ला सकता है.
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न्याय याचना के ज्वलंत सवाल


फ़िरदौस ख़ान
भारतीय साहित्यकार संघ के अध्यक्ष डॉ. वेद व्यथित का खंड काव्य न्याय याचना एक अनुपम कृति है. जैसा नाम से ही ज़ाहिर है कि इसमें न्याय पर सवाल उठाए गए हैं. वह कहते हैं, यह ठीक है कि जानबूझ कर किया गया अपराध अनजाने में हुए अपराध से कहीं भयावह है, लेकिन लापरवाही में किया गया अपराध भी कम भयावह नहीं है. ज़रूर कहीं उसके अवचेतन में व्यवस्था और अनुशासन की अवहेलना है. ठीक है, गंधर्व ने जानबूझ कर ऋषि की अंजलि में नहीं थूका, लेकिन क्या कहीं भी थूक देना उचित है? क्या यह अनुशासनहीनता नहीं है? यह उसकी मदमत्तता और अभिमान नहीं तो क्या है? दूसरा सवाल पश्चाताप का उठाया गया है. गंधर्व चित्रसेन ने ख़ूब पश्चाताप किया है. इसलिए उसे क्षमा कर देना चाहिए. क्यों कर देना चाहिए? पश्चाताप करना उसका व्यक्तिगत मामला है. अपराधी को पश्चाताप तो करना ही चाहिए, लेकिन मात्र पश्चाताप के बाद वह क्षम्य है तो व्यक्ति कुछ भी अपराध करके पश्चाताप कर लेगा. ऐसे में न्यायालय या व्यवस्था का क्या महत्व रह जाएगा? इन्हीं सवालों को इस पौराणिक कथा के ज़रिये उठाने की कोशिश की गई है. विषय तो इसका उत्कृष्ट है ही, भाषा शैली भी सौंदर्य से परिपूर्ण है.

खंड काव्य के प्रथम सर्ग में वह लिखते हैं:-
कब होती है तृप्त देह यह
राग रंग भोगों से
जितना करते यत्न शांत
करने का इस तृष्णा को
वह तो और सुलग जाती,
ऐसी ही प्रतिपल ज्वाला सी
धधक रही थी उनमें
उसी आग को लेकर दोनों
उड़े चले जाते हैं.

द्वितीय सर्ग में भी सुंदर शब्दों से वह वातावरण का मनोहारी वर्णन करते हैं:-
पूरब रंगा सुहाग सूर्य की
सिंदूरी आभा लेकर
विकसे कमल हुआ हर्षित मन
ऊषा का रूपवरण,
अनुकंपा हे ईश! तुम्हारी
तुमको है शत-शत बार नमन
प्रकटो अनंत ज्योति के स्वामी
अंजलि करो स्वीकार प्रवर.

डॉ. वेद व्यथित की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनमें मधुरिमा (काव्य नाटक), आ़िखर वह क्या करें (उपन्यास), बीत गए वे पल (संस्मरण), आधुनिक हिंदी साहित्य में नार्गाजुन (आलोचना), भारत में जातीय सांप्रदायिकता (उपन्यास) और अंतर्मन (काव्य संग्रह) शामिल हैं. उन्होंने व्यक्ति चित्र नामक नवीन विधा का सृजन किया है. इसके अलावा त्रिपदी काव्य की नवीन विधा के सृजन का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. पंजाबी और जापानी भाषा में उनकी कई रचनाओं का अनुवाद हो चुका है.

बक़ौल डॉ. मनोहर लाल शर्मा, यह युग प्रबंध काव्यों का युग नहीं रह गया है. निराला जी की पंचवटी प्रसंग, राम की शक्ति पूजा और अज्ञेय की असाध्य वीणा जैसी लंबी कविताएं उक्त विवशता के स्वीकरण का पूर्वाभास देती हैं. ऐसी कविताओं में कवि जीवन के समग्रत्व का समावेश करने की केवल चेष्टा कर सकता है. लंबी कविताओं में फिर भी वह बात नहीं आ पाती, जो प्रबंध काव्यों में जीवन के अनेक विषयों, नानाविध मनोभावों, क्रिया-व्यापारों, दृश्यों एवं प्रसंगों की उपस्थिति द्वारा सहज देखने को मिल जाती है. इसी बिंदू से प्रबंध काव्यों की अपरिहार्यता सिद्ध हो जाती है. युग की बेबसियां चाहे कितना ही दबाव रचनाकारों और सहृदयों के मानस पटल पर बनाती रहें, यदि हमें अपने समशील मानव प्राणियों, मानवेतर प्राणियों के मनोभावों, क्रियाकलापों और नानाविध प्रकरणों में अपनी दिलचस्पी को व्याहत नहीं होने देना है तो हमें अंतत: ऐसे प्रबंधों की प्रयोजनीयता को हृदयंगम करना होगा. डॉ. वेद व्यथित का खंड काव्य न्याय याचना इसी मांग की पूर्ति और प्रतिपूर्ति का साहसपूर्ण उपक्रम है. वह जानते होंगे कि धारा के विपरीत किश्ती को तैरा देना कितना विवेकसम्मत है, पर हिम्मती लोग ऐसा कर दिखाते हैं. प्रस्तुत खंड काव्य आज के प्रतिकूल वातावरण, परिवेश और विषम प्रतिक्रियाओं के होते हुए भी एक स्वागत योग्य क़दम है. यह खंड काव्य नए रचनाकारों के लिए भी प्रेरणादायी है.

डॉ. व्यथित कहते हैं:-
तुम न्याय के मंदिर की कहानी लिखना
सूली पे चढ़ू उसकी ज़ुबानी लिखना,
तुम ख़ून को मेरे ही बनाना स्याही
अस्थि को क़लम मेरी बनाकर लिखना.

निस्संदेह, यह खंड काव्य अपने विषय और प्रस्तुति की रोचकता के कारण पठनीय है.
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सुर्ख़ गुलाबों का दिन...


मेरे महबूब! 
आज रोज़ डे है... सुर्ख़ गुलाबों का दिन...महकती यादों का दिन...सोचती हूं कि तुम्हें गुलाब कैसे भेजूं...तुम तो बहुत दूर हो... शायद तुम्हें याद भी नहीं होगा कि आज रोज़ डे है...लेकिन मुझे तो याद है...आज का दिन...बहरहाल तुम्हारे हिस्से के गुलाब तो तुम्हें मिल ही जाएंगे... नेक दुआओं के साथ... हमें तो मिल ही चुके हैं हमारे गुलाब...तुम्हारी मुहब्बत के रूप में... 
मेरे महबूब... हम जानते हैं कि इस वक़्त हमसे ज़्यादा इस मुल्क को तुम्हारी ज़रूरत है...हम भले ही तुमसे दूर हैं, लेकिन रूहानी तौर पर हर वक़्त तुम्हारे साथ हैं...दुआ करते हैं कि तुम फ़तेह हासिल कर अपने घर लौटो...
 
करूं न याद अगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे
वो ख़ार-ख़ार है शाख़े-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूं  फिर भी गले लगाऊं उसे... 
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मन से उगते हैं अग्निगंधा के फूल...


हमारा प्यारा भाई है अरुण...यानी अरुण सिंह क्रांति...वह जितना अच्छा इंसान है, उतना ही उम्दा लेखक भी है...हम समझते हैं कि किसी भी इंसान को अच्छा लेखक, अच्छा कवि,  अच्छा कलाकार (या अच्छा कोई और) होने से पहले एक अच्छा इंसान होना चाहिए...क्योंकि एक अच्छा इंसान ही अच्छा लेखक, अच्छा कवि, अच्छा कलाकार (या अच्छा कोई और) हो सकता है...हमें अपने भाई अरुण पर नाज़ है...ज़िन्दगी में ऐसे बहुत कम लोग मिलते हैं, जिन पर हम गर्व कर सकें...भाई अरुण में बहुत सी ख़ूबियां हैं... हाल में अरुण की एक किताब प्रकाशित हुई है...इस किताब की भूमिका हमने ही लिखी है...और इस किताब की समीक्षा भी लिखी है...           

उषाकाल का केसरिया आकाश. श्वेत रंग के बाड़े से टेक लगाए एक हल्का आसमानी रंग का पहिया. बाड़े के अंदर हरी, मखमली, कुछ पंक-युक्त घास. एक सूखा वृक्ष, जिससे झड़े आग्नेय-वर्णी पुष्पों को चुनकर टोकरी में एकत्रित करता एक बालक. युवा कवि अरुण सिंह क्रांति के पहले काव्य-संग्रह अग्निगंधा के फूल का ऐसा शानदार आवरण बरबस ही पुस्तक को उठाकर उसके पृष्ठ टटोलने को बाध्य करता है.
कवि के पिता, माता और गुरु के चरणों में समर्पित इस काव्य संग्रह की प्रस्तावना में कवि ने अपने अंदर एक कवि के जन्म लेने का कारण मातृ प्रेरणा बताया है. कवि के मन में लीक से हटकर कुछ करने की भावना रही. इसे उसने बखूबी अंजाम भी दिया है.
अरुण सिंह क्रांति का परिचय दिया जाए, तो वह मन से एक कवि, शौक़ से एक लेखक, पेशे से पत्रकार, परंपरा से ज्योतिषी, अनुवांशिकता से गणित के कोच और आत्मा से एक क्रांतिकारी हैं.
प्रस्तुत काव्य-संग्रह में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जो अपने आप में विरली हैं. पहला तो कविताओं का एक विशेष क्रम है. कवि ने पुस्तक का आरंभ मां से किया है, और उपसंहार भी मां से ही किया है. कविताओं की क्रमश: योजना में पहले मां, फ़िर ज्ञान की देवी सरस्वती, फ़िर गुरु, फिर राष्ट्र और समाज, फ़िर नारी-शक्ति, फ़िर एक ऐतिहासिक प्रसंग को स्पर्श करते हुए कवि अपने हृदय के स्पंदनों को काव्य-रूप देता हुआ, प्रेम की हर अभिव्यक्ति को शब्द देता है. कवि सौंदर्य, मन के मंथन, कवि होने का गर्व, आत्म-आलोचना, एक मृत्यु पत्र लिखने के बाद अपनी कविताओं में अग्निगंधा का मर्म बताते हुए फ़िर से मां तक पहुंच जाता है. मां से मां तक की यह यात्रा देखकर ऐसा लगता है, मानो कवि अपने अंतर-ब्रह्मांड की प्रदक्षिणा कर फ़िर से अपने मूल पर, अपने जीवन-स्त्रोत पर लौट आया हो.
दूसरी विशेषता है, हर कविता के साथ संलग्न एक प्रासंगिक रेखाचित्र. विभु दत्ता द्वारा बनाए ये रेखाचित्र भी जीवंत लगते हैं और अपने-अपने काव्य-विशेष का पूरा मर्म समेटे जान पड़ते हैं.
तीसरी विशेषता है, हर कविता के अंत में बने छोटे-छोटे चिन्ह इन चिन्हों के प्रयोग से कवि में छिपी वैज्ञानिकता का आभास होता है. हर चिन्ह अपनी कविता का मूल-भाव स्पष्ट करता है.
चौथी विशेषता है, पुस्तक का शीर्षक, जिसमें अग्निगंधा शब्द का प्रयोग किया गया है. अग्निगंधा-काव्य को समझाते हुए कवि ने एक कविता में लिखा है-
काव्य नहीं ये मन की
झंझावात से उड़ती धूल है
द्रव्य-भावना नहीं
ये लौह-मनस के चुभते त्रिशूल हैं
न समझो इन शब्दों को
भावुक रचना, श्रृंगार-सी
इन शब्दों में मेरे मन की
हर चाह, दाह और आह बसी
मथित-मन में ये महकते
अग्निगंधा फूल हैं
दग्ध-दिल के ये दहकते
अग्निगंधा फूल हैं
पुस्तक के शीर्षक के संबंध में कवि अरुण ने गूढ़ दार्शनिक भाषा में स्पष्ट किया है- जब भी मन में कोई सामयिक या आकस्मिक अंधेरा व्याप्त होता है, जिसमें सभी मार्ग दिखने बंद हो जाते हैं और बाह्य-जगत का कोई भी पदार्थ वहां रोशनी नहीं कर पाता, तो मैं स्वयं का ही मन जलाता हूं, जिससे एक अग्निगंधा का वृक्ष पनपता है, जिसके प्रकाश और सुगंध लिए फूलभभविषय के लिए मेरे लक्ष्य की ओर जाने वाले मार्गों को प्रकाशयुक्त और सुगंधित बनाते हैं और जिसकी लकड़ी दीर्घ-काल तक मार्गों को प्रकाशित बनाए रखने के लिए जलाने के काम भी आती है. जब ये पुष्प और लकड़ी समाप्त या कम होने लगती है, तो मैं फिर से मन को जलाता हूं.
पांचवीं और महत्वपूर्ण विशेषता है, कवि कीभभाषा-शैली और विषय की विविधता. जहां एक ओर कवि ने संस्कृत-निष्ठ हिंदी का छंदबद्ध प्रयोग किया है, वहीं कई स्थानों पर एक उन्मुक्त खड़ी बोली का भी सुंदर तालमेल देखने को मिलता है. अरुण की कविताओं में श्रृंगार रस, करुण रस, रौद्र रस, वीर रस व शांत रस का अद्‌भुत संयोग है. रचनाएं विभिन्न प्रतीकों और लगभग सभी प्रमुख अलंकारों से परिपूर्ण हैं. कहीं उच्चकोटि का नाद-सौंदर्य, तो कहीं मनभभावन शब्द-सौंदर्य दिखता है और विषय की विविधता भी शानदार है. कवि ने एक ही पुस्तक में किसी शहीद के प्रेम पत्र से लेकर शहीदों की राख के शोधन, देशभक्ति का व्यवसायीकरण, जलियावाला बाग की आत्म वेदना, आतंकवाद की आलोचना, सांप्रदायिक-सद्‌भाव, देश के विभाजन का दर्द, प्रतिभा-पलायन की विडंबना, सत्य की विजय का विश्वास, एक नए समाज को बनाने का स्वप्न, नारी-शक्ति का गुणगान, रावण की आत्मग्लानि, प्रेमिका से प्रणय-निवेदन, विरह-वेदना, वसंत और फाग के सौंदर्य से लेकर अपने मन में छिपे देवत्व और पशुत्व, दोनों की विवेचना को स्थान दिया है.
पुस्तक के मूल-भाव के बारे में प्रकाशक का कहना है-कवि की रचनाओं में मुख्य सरोकार हैं, मातृभक्ति, राष्ट्रीयता, प्रेम, मानस-मंथन और आत्मबोध. यह भी कहा जा सकता है कि ये उनकी काव्य-सृष्टि के पंच-तत्त्व हैं. कहीं स्वतंत्र रूप में, तो कहीं सम्मिलित होकर ये तत्व उनकी रचनाओं को अलंकृत करते हैं. ये शब्द ही अपने आप में कवि की रचनाओं में उत्कृष्ट विविधता के प्रमाण हैं. बेशक, यह पुस्तक शब्दों के इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर कविताओं का एक ऐसा संग्रह है, जिसे कोई भी बार-बार पढ़ना चाहेगा और जितना पढ़ता जाएगा, उतने ही नए अर्थ और भाव सामने आते जाएंगे.

कृति : अग्निगंधा के फूल
विधा : कविता
कवि : अरुण सिंह क्रांति
प्रकाशन : सिनमन टील प्रकाशन, गोवा
मूल्य : 250 रुपये
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कगवा बिन सूनी है अपनी अटरिया...


अला या बरावल बैनिहल अंता मुख़बिरी 
फ़हल ख़ुबूंमिल ग़ायबीन तुबशिशारेन...         
यानी... ऐ कांव-कान की रट लगाने वाले फ़क़ीर कौवे! आज तू किसी दोस्त से जुदा होने की ख़बर लाया है...या किसी बिछड़े दोस्त के मिलने की ख़ुशी दे रहा है... 

कौवे की आवाज़ आज भी बहुत भली लगती है...बिलकुल अपने बचपन की तरह... बचपन में देखा था-जब भी कौवा बोलता था...दादी जान कहती थीं कि आज ज़रूर कोई मेहमान आने वाला है...पूछने पर वो बतातीं थीं कि कौवा जब भी मुंडेर पर बोले तो समझ लो कि घर में कोई आने वाला है...दादी जान की इस बात पर भरोसा कर हम सोचने लगते कि ज़रूर ननिहाल से कोई आने वाला है...शाम को दादी जान कहतीं- देखो मैंने कहा था न कि कोई मेहमान आएगा...यह इत्तेफ़ाक़ ही था कि जिस दिन दादी जान ऐसा कहतीं कोई न कोई आ ही जाता...वैसे हमारे घर मेहमानों का आना-जाना रोज़ का ही था...दादा जान शहर की एक जानी-मानी हस्ती जो थे...लेकिन हमें तो अपने मामा का इंतज़ार रहता था...वैसे भी कहते हैं- चंदा मामा से प्यारा मेरा मामा...मामा कहा करते हैं कि 'मामा' में दो 'मा' होते हैं, इसलिए वो मां से दोगुना प्यार करते हैं अपने भांजी-भांजों से... यह सही भी है...हमें अपने ननिहाल से बहुत ही प्यार-दुलार मिला है...

कौआ...एक ऐसा स्याह परिंदा जिसने गीतों में अपनी जगह बनाई है...आज भी कौवे को बोलता देखते हैं तो दादी जान की बात याद आ जाती है...फ़र्क़ बस इतना है कि तब मामा का इंतज़ार होता था...और आज न जाने किसका इंतज़ार है...
सच!  कौवा भी किसी क़ासिद की तरह ही नज़र आता है, जब किसी का इंतज़ार होता है...
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नारी का मन...





फ़िरदौस ख़ान
एक नारी का मन प्रेमियों के बिना शायद स्थिर नहीं रह पाता...क्या यह सच है...? क्या नारी का मन सचमुच इतना चंचल होता है कि उसे स्थिर रखने के लिए एक पुरुष की ज़रूरत पड़ती है...  क्या नारी बंधन में ही सुख पाती है...बंधन भी ऐसा जिसमें वह ख़ुद अपनी मर्ज़ी से बंधती है...या फिर वह किसी पुरुष को बांधे रखना चाहती है...
       
प्रसिद्ध इतालवी लेखक रोबर्तो कलासो की किताब 'क भारतीय मानस और देवताओं की कहानियां' में अर्जुन के एक साल के अज्ञातवास का ज़िक्र करते हुए रोबर्तो कलासो लिखते हैं- "एक वर्ष कठिनाई भरा, संघर्ष पूर्ण, बुरी तरह थका देने वाला, लेकिन आवेगपूर्ण था. संध्या समय कन्याओं का एक छोटा समूह उन्हें घेरकर बैठ जाता और वह दैत्यों, राजाओं, राज कन्याओं और योद्धाओं की मनोरंजक कथाएं सुनाते. लड़कियां उन्हें सारा समय घेरे रहतीं और उनका नृत्य मुद्राओं तथा हाव-भाव का अनुसरण करतीं. दिन का समय प्राय: नृत्यशाला में बीतता था. विराट एक समृद्ध राज्य का राजा था, किंतु समस्याएं भी अनेक थीं. सबसे बड़ी समस्या तो बेटी उत्तरा स्वयं थी. अर्जुन ने मन ही मन प्रण किया कि वह उत्तरा को स्पर्श तक नहीं करेंगे, लेकिन न जाने क्या बात थी, दोनों का समय अधिकतर साथ-साथ ही बीतता था. अर्जुन ने अपने मन को बस इतना ही अधिकार दिया था कि वह उत्तरा को लेकर कल्पना का ताना-बाना बुन सकते थे. उत्तरा के लिए तो स्थिति और भी दारुण थी. अभी तक वह बहुत छोटी थी-किसी बच्ची जैसी, जो अपने अदृश्य  प्रेमी के घेरे से बाहर आ रही थी धीरे-धीरे. सर्वप्रथम उसे प्राप्त करने वालों में था सोम. फिर आया गंधर्व. तीसरे अदृश्य पति थे अग्नि और चौथा एक मनुष्य हो सकता था. एक नारी का मन प्रेमियों के बिना शायद स्थिर नहीं रह पाता. वह पहले सोम के साथ रहती रही, फिर गंधर्व और फिर अग्नि के साथ. अब एक मानव प्रेमी की प्रतीक्षा कर रही थी. वह कोई भी हो सकता था. उस मनुष्य की खोज अर्जुन में पूरी हो गई जो उत्तरा को नृत्य-संगीत की शिक्षा दे रहे थे. लेकिन अर्जुन के लिए इतना ही पर्याप्त था, इससे अधिक कुछ नहीं. वह उत्तरा की अति निकटता के बचकर चलते थे. उत्तरा ने दुख भरे स्वर में कहा, आप तो किसी गंधर्व से भी दुर्लभ हैं और देवताओं से भी अधिक अप्राप्य. आप भले ही मुझसे दूर-दूर रहें, मैं तो आप में समाई हूं...कहते-कहते वह रो पड़ी. इस रूदन में दुख नहीं, गहन आनंद की अनुभूति बोल रही थी. अर्जुन अब समझ सके कि उर्वशी ने उनसे कैसा भयानक प्रतिशोध लिया है. क्योंकि उन्होंने उर्वशी को अपनी मां समझते हुए ठुकरा दिया था. इसलिए उन्हें उत्तरा को भी अस्वीकार करना था, अपनी बेटी मानकर."  

बंधन...आख़िर बंधन ही होता है... भले वह प्रेम का ही क्यों न हो... मन तो चंचल है...और वो अरमानों के पंखों के साथ सपनों के आसमान में उड़ान भरने को आतुर रहता है...
क्या प्रेम सिर्फ़ एक बार ही होता है...या फिर बार-बार हो सकता है...उत्तरा ने कई बार प्रेम किया...अलग-अलग पुरुषों से...सभी के साथ वह संतुष्ट रही... क्या कोई महिला अपने प्रेमी या साथी के बिछड़ने पर उम्रभर उसका शोक मनाती रहे...या उसे भी नया प्रेमी या साथी तलाश लेना चाहिए...
अपने सहकर्मी पुरुष के एक सवाल के जवाब में एक लड़की ने जवाब दिया-मैं बॉय फ्रेंड नहीं पालती... एक दूसरी लड़की का कहना था कि बॉय फ्रेंड परेशानी का सबब बन जाते हैं...यानी रोक-टोक लगाना... इससे न मिलो, उससे बात न करो...ख़ुद भी कोई काम नहीं करके देंगे...और किसी दूसरे से काम कराने पर उसमें हज़ार ऐब निकाल देंगे... इसलिए बॉय फ्रेंड रखकर कौन मुसीबत मोल ले... एक और लड़की कहती है-जब तक किसी के साथ संबंध मधुर है, तब तक तो ठीक है...लेकिन जैसे ही रिश्ते में कटुता आने लगे तो बेहतर है कि ऐसे रिश्ते को तोड़ दिया जाए...

मेरी एक दोस्त की खाला को किसी लड़के से प्रेम हो गया... लड़के के घरवालों को रिश्ता मंज़ूर नहीं था...वजह लड़की उनकी ज़ात की नहीं थी... कुछ वक़्त बाद लड़के ने अपने घरवालों की पसंद से शादी कर ली, लेकिन खाला ने शादी नहीं की... उस लड़के का आज भरा पूरा परिवार है...बीवी है, बच्चे हैं... वह लड़का तो अपनी नई ज़िन्दगी में मस्त हो गया...लेकिन उम्र के आख़िरी पड़ाव में वो अकेले ही दिन गुज़ार रही हैं... आख़िर इस प्यार ने उन्हें क्या दिया...? अगर वह भी अपना नया साथी चुन लेतीं तो शायद आज उनकी ज़िन्दगी इतनी वीरान नहीं होती... आख़िर नारी का मन ऐसा क्यों होता है...?

क़रीब दो साल पहले मेरी दोस्त की शादी हुई है...उसे भी एक लड़के से प्रेम था...दोनों की ज़ात अलग थी... लड़के में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो समाज की ज़ात-बिरादरी की दीवार तोड़ कर उसे अपना पाता... मेरी दोस्त बहुत रोती थी, इसलिए कि उसे बुज़दिल लड़के से प्रेम हुआ...आख़िर वह रोती भी कितने दिन... उसने अपने घरवालों की मर्ज़ी से शादी कर ली...

सोचती हूं कि कौन सही है...? किसी के बिछड़ने पर उम्रभर उसके ग़म में डूबी रहने वाली खाला या नया साथी चुनकर ज़िन्दगी  के  रास्ते पर आगे बढ़ जाने वाली दोस्त... बेशक, दोस्त ही सही है...क्योंकि ज़िन्दगी तो एक बार ही मिलती है...फिर उसे किसी ऐसे व्यक्ति के लिए क्यों बर्बाद किया जाए, जो या तो तुम्हें छोड़कर चला गया है...या वो कभी तुम्हारा हो ही नहीं सकता...

तस्वीर : गूगल से साभार  
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ताल्लुक़ बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा...


फ़िरदौस ख़ान
माना ज़िन्दगी में प्रेम की भी अपनी अहमियत है...मगर प्रेम ही तो सबकुछ नहीं है...ज़िन्दगी बहुत ख़ूबसूरत है...और उससे भी ख़ूबसूरत होते हैं हमारे इंद्रधनुषी सपने...हमें अपनी भावनाएं ऐसे व्यक्ति से नहीं जोड़नी चाहिए, जो इस क़ाबिल ही हो... जिस तरह पूजा के फूलों को कूड़ेदान में नहीं फेंका जा सकता, उसी तरह अपने प्रेम और इससे जुडी कोमल भावनाओं को किसी दुष्ट प्रवृति के व्यक्ति पर न्योछावर नहीं किया जा सकता.

पिछले दिनों दो ऐसे हादसे हुए जो प्रेम, विश्वासघात और ख़ुदकुशी से जुड़े थे. दोनों ही हादसों में दो होनहार लड़कियों की ज़िन्दगी ख़त्म हो गई. दोनों ने ही अपने प्रेमियों के बर्ताव से आहत होकर मौत को गले लगा लिया. पहला मामला है जमशेदपुर की 22 वर्षीय  आदिवासी छात्रा मालिनी मुर्मू का, जिसने अपने प्रेमी के रवैये से आहत होकर ख़ुदकुशी कर ली. उसका बेंगलूर में ही रहने वाले उसके ब्वायफ्रेंड से हाल में कथित तौर पर कुछ मनमुटाव और कहासुनी हुई थी. इसके बाद लड़के ने फेसबुक में अपने वॉल पर एक संदेश में लिखा था- 'मैं आज बहुत आराम महसूस कर रहा हूं. मैंने अपनी गर्लफ्रेंड को छोड़ दिया है. अब मैं स्वतंत्र महसूस कर रहा हूं. स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं.'   मामले की जांच कर रहे अधिकारियों के मुताबिक़ सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर मालिनी  के ब्वॉयफ्रैंड ने उससे संबंध तोड़ लिए थे. इससे उसे गहरा आघात लगा और उसने क्लास में भी जाना छोड़ दिया. क्लास में उसे नहीं पाकर जब उसके दोस्त हॉस्टल के कमरा नंबर 421 में गए तो उसने दरवाज़ा नहीं खोला. गार्ड्स को बुलाकर दरवाज़ा तुड़वाया गया. कमरे के भीतर मालिनी का शव पंखे से झूलता मिला.

मालिनी ज़िन्दगी में एक बड़ा मुक़ाम हासिल करना चाहती थी. उसने साकची के राजेंद्र विद्यालय से दसवीं की पढ़ाई की थी. इसके बाद उसने उड़ीसा के आईटीई से बारहवीं पास की. वह आईआईएम बेंगलुरू में एमबीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी. लैपटॉप में छोड़े अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा है- उसने मुझे छोड़ दिया, इसलिए आत्महत्या कर रही हूं.

दूसरा मामला है  36 वर्षीय एयरफोर्स की पूर्व महिला फ्लाइंग ऑफिसर अंजलि गुप्ता का, जिसने अपने विवाहित प्रेमी  ग्रुप कैप्टन अमित गुप्ता के विश्वासघात से दुखी होकर कथित तौर पर ख़ुदकुशी कर ली थी.  अंजलि के परिजनों ने आरोप लगाया है कि अमित गुप्ता उसके साथ पिछले सात साल से लिव इन रिलेशनशिप में रह रहा था. दोनों की मुलाक़ात साल 2001  में कर्नाटक के बेलगांव में उस वक़्त हुई,  जब अंजलि ने बतौर फ्लाइंग ऑफिसर पहली पोस्टिंग ली थी. उस दौरान अमित वहां ग्रुप कैप्टन थे. अमित ने उसके साथ दोस्ती बढ़ाई, फिर शादी करने का झांसा देकर उसके साथ शारीरिक संबंध भी बनाए. अमित ने अपनी पहली पत्नी से तलाक़ लेकर उससे शादी रचाने का वादा भी किया था, लेकिन शादी नहीं की.  शाहपुरा पुलिस को भोपाल के फॉच्यरून ग्लोरी निवासी अमित गुप्ता के मकान से अंजलि की लाश मिली थी. उसने दुपट्टे का फंदा बनाकर फांसी लगाई थी.

ये दोनों ही लड़कियां अति भावुक थीं. ख़ुदकुशी करते वक़्त इनकी मनोस्थिति क्या रही होगी, इसे समझा जा सकता है...लेकिन इन्होंने अपनी ज़िन्दगी ख़त्म करके अच्छा नहीं किया. अगर ये थोड़ा समझदारी और धैर्य से काम लेतीं तो आज ज़िंदा होतीं.  ऐसी कोई वजह नहीं थी कि इन्हें ज़िन्दगी में अच्छे लड़के नहीं मिलते. अगर इन्हें लग रहा था कि इनके प्रेमी इनके साथ धोखा कर रहे हैं, तो इन्हें अपने प्रेमियों को छोड़ देना चाहिए था.
   
बक़ौल साहिर लुधियानवी-
तार्रुफ़ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लुक़ बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा... 


ज़िन्दगी चलते रहने का नाम है...और इसकी सार्थकता चलते रहने में ही है... किसी दुष्ट के लिए अपनी ज़िन्दगी क्यों बर्बाद की जाए... 
बहरहाल, इंसान को फ़ैसले लेते वक़्त दिल से ही नहीं दिमाग़ से भी काम लेना चाहिए...

आख़िर में 
सोशल नेटवर्किंग साइट फ़ेसबुक ऐसी प्रणाली लॉन्च कर रहा है, जिसकी मदद से लोग अपने ऐसे दोस्तों के बारे में रिपोर्ट कर सकते हैं जो उनकी नज़र में ख़ुदकुशी करने के बारे में सोच रहे हैं. यह सुविधा समैरिटन्स नाम की संस्था के साथ मिलकर शुरु की गई है. इस संस्था का कहना है कि प्रणाली के परीक्षण के दौरान कई लोगों ने इसका इस्तेमाल किया है. यह संस्था ऐसे लोगों को भावनात्मक समर्थन देती है, जो अवसाद या मुश्किल दौर से गुज़र रहे हों. इसमें ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो ख़ुदकुशी कर सकते हैं. अगर आप अपने किसी दोस्त को लेकर फ़िक्रमंद  हैं तो फ़ेसबुक पर अपनी चिंताओं के बारे में लिखते हुए एक फ़ॉर्म भर सकते हैं. यह फॉर्म साइट के मॉडरेटरों तक पहुंचा दिया जाता है. फ़ेसबुक के उस पेज का यूआरएल देना होगा, जहां ख़ुदकुशी करने बाबत संदेश लिखा हुआ है. इसके अलावा यूज़र का नाम और वो किस-किस नेटवर्क का सदस्य है...ये जानकारियां  भी देनी होंगी. ख़ुदकुशी संबंधी संदेशों के बारे में फ़ेसबुक की टीम को अलर्ट किया जाएगा.  

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