उसे कैसे पता...

कई बरस पहले का वाक़िया है... हम अपनी भाभी के घर आए हुए थे... वहां हमने दुआओं की एक किताब देखी... हमें किताब बहुत अच्छी लगी... किताबों से हमें बहुत लगाव है... अगर किताब दुआओं की हो, तो फिर बात ही क्या है... उन्होंने हमें पढ़ने के लिए वो किताब दे दी... हम उसे हर रोज़ पढ़ने लगे... हमारी एक सहेली ने वो किताब देखी, तो कहा कि उसे भी यह किताब चाहिए... हम उसके साथ जामा मस्जिद गए. किताबों की तकरीबन सभी दुकानें छान मारीं, लेकिन वो किताब नहीं मिली... दुकानदारों ने बताया कि अब यह किताब नहीं मिलती...  हमारी सहेली ने उस जैसी एक किताब ले ली...

कुछ माह पहले हमारी भाभी ने कहा कि उन्हें वो किताब पढ़नी है... यानी उन्हें अपनी किताब वापस चाहिए थी... अब दुआओं की इस किताब से बिछड़ने का वक़्त आ गया था... हमें बिल्कुल ऐसी ही किताब चाहिए थी... लेकिन ऐसी किताब तो कहीं मिली ही नहीं थी... यह सोचकर दिल उदास हो गया...

एक रोज़ हम अपनी भाभी के साथ उनकी बहन के घर गए... वहां हमने बिल्कुल उस जैसी किताब देखी... भाभी ने बताया कि बहुत साल पहले ये किताबें किसी ने तक़सीम की थीं... किताब बिल्कुल नई थी, यानी उसे पढ़ा नहीं जाता था... हमने हौले से अपनी भाभी से पूछा कि अगर ये किताब पढ़ी नहीं जाती है, तो क्या ये हमें मिल सकती है, हम इसका हदिया दे देंगे... उन्होंने कहा कि वह किताब नहीं देंगी...

ख़ैर, हमारा ज़ेहन इस किताब से हट ही नहीं रहा था... हमें यही किताब चाहिए थी, इस जैसी नहीं... किताब की चाह में हम फिर से जामा मस्जिद गए... किताबों की दुकानों पर इसे तलाशा... हर जगह बस यही जवाब मिला कि यह किताब अब नहीं मिलती... हमने सोचा कि जिस जगह ये किताब शाया हुई थी, वहीं जाया जाए... हम वहां भी गए, लेकिन वहां भी नाकामी ही हासिल हुई... हम मायूस होकर वापस जामा मस्जिद आ गए... हम सड़क किनारे खड़े थे...
एक शख़्स ने पूछा, क्या चाहिए... हमने कहा कि दुआओं की किताब... वो शख़्स किताब की एक दुकान के अंदर गया और हमें किताब लाकर दे दी... हमने जैसे उसे खोला, उसने हमसे कहा, "ये वही किताब है न, जो आप हर रोज़ पढ़ती हैं..."

इस किताब का हदिया उन किताबों से आधे से भी कम था, जो उस ’जैसी’ किताबें थीं... हालांकि वो इस किताब के आसपास भी नहीं ठहरती थीं... हम कुछ देर जामा मस्जिद घूमने के बाद उस दुकान में गए, जहां से वो किताब लाई गई थी... हमने दुकानदार से उस किताब के बारे में पूछा, तो उसने कहा कि उनके पास ऐसी कोई किताब नहीं है... इसके बाद हम ख़ुशी-ख़ुशी किताब लेकर घर आ गए...

जब किताब पढ़ने बैठे, तो उस शख़्स के वही बोल कानों में गूंज उठे, "ये वही किताब है न, जो आप हर रोज़ पढ़ती हैं..."
आख़िर उसे कैसे पता कि हम हर रोज़ यही किताब पढ़ते हैं...?
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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