अगरबत्तियों का धुआं...

कितना भला लगता है
अगरबत्तियों का
महकता सफ़ेद धुआं...

पुरानी यादों के
कितने अक्स
उभर आते हैं...

जुमेरात को बाद अस्र के
घर में महकने लगती थीं
गुलाब की अगरबत्तियां...

अक़ीदत के चिराग़ रौशन होते
हाथ दुआ के लिए उठ जाते
जाने कौन-सी दुआएं थीं वो
अब याद नहीं...

अब भी आंगन में
अगरबत्तियां महकती हैं
कभी गुलाब की, कभी केवड़ा
और कभी संदल की ख़ुशबू वाली...

लेकिन
अब चिराग़ रौशन नहीं होते
हाथ ज़रूर उठते हैं दुआओं के लिए
ये दुआएं, जो अपने लिए नहीं होतीं...
-फ़िरदौस ख़ान

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

0 Response to "अगरबत्तियों का धुआं..."

एक टिप्पणी भेजें