शर्म या फ़ख़्र की बात...


बाज़ दफ़ा लोग इसलिए भी अच्छे करने से दूर रहते हैं कि लोग क्या सोचेंगे ? जब कभी हम रिक्शे में जा रहे हों और ढलान आ जाए, तो रिक्शे से उतर जाते हैं... रिक्शे वाला मना करता है, लेकिन दिल नहीं मानता कि हम बैठे रहें और वो रिक्शे से उतर कर रिक्शा खींचे... कुछ लोग घूरते भी हैं, लेकिन हम परवाह नहीं करते, क्योंकि हमें ख़ुदा की परवाह करनी है, न कि लोगों की...

दिल्ली के कई बाज़ारों में सामान की ढुलाई होती है... मज़दूर ठेलों पर माल ढोते हैं... कई जगह चढ़ाई भी होती है... जब मज़दूर चढ़ाई पर मुश्किल से ठेला खींच रहा होता है, तो अकसर कई लोग उसकी मदद कर देते हैं... ट्रैफ़िक पुलिसकर्मियों को भी हमने इस तरह की मदद करते हुए देखा है.
इसी तरह रिक्शे वालों के पहिये के पास कुछ स्कूटर या बाइक सवार अपना पैर लगा देते हैं, जिससे उससे चढ़ाई में आसानी हो जाती है... अच्छा लगता है, ये सब देखकर... वाक़ई इंसानियत अभी ज़िन्दा है...
किसी की मदद करना शर्म की नहीं, बल्कि फ़ख़्र की बात है... 
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