त्यौहारी...
फ़िरदौस ख़ान
जब भी कोई त्यौहार आता, लड़की उदास हो जाती. उसे अपनी ज़िन्दगी की वीरानी डसने लगती. वो सोचती कि कितना अच्छा होता, अगर उसका भी अपना एक घर होता. घर का एक-एक कोना उसका अपना होता, जिसे वो ख़ूब सजाती-संवारती. उस घर में उसे बेपनाह मुहब्बत करने वाला शौहर होता, जो त्यौहार पर उसके लिए नये कपड़े लाता, चूड़ियां लाता, मेहंदी लाता. और वो नये कपड़े पहनकर चहक उठती, गोली कलाइयों में रंग-बिरंगी कांच की चूड़ियां पहननती, जिसकी खनखनाहट दिल लुभाती. गुलाबी हथेलियों में मेहंदी से बेल-बूटे बनाती, जिसकी महक से उसका रोम-रोम महक उठता.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं था. उसकी ज़िन्दगी किसी बंजर ज़मीन जैसी थी, जिसमें कभी बहार नहीं आनी थी. बहार के इंतज़ार में उसकी उम्र ख़त्म हो रही थी. उसने हर उम्मीद छोड़ दी थी. अब बस सोचें बाक़ी थीं. ऐसी उदास सोचें, जिन पर उसका कोई अख़्तियार न था.
वो बड़े शहर में नौकरी करती थी और पेइंग गेस्ट के तौर पर दूर की एक रिश्तेदार के मकान में रहती थी, जो उसकी ख़ाला लगती थीं. जब भी कोई त्यौहार आता, तो ख़ाला अपनी बेटी के लिए त्यौहारी भेजतीं. वो सोचती कि अगर वो अपनी ससुराल में होती, तो उसके मायके से उसकी भी त्यौहारी आती. और ये सोचकर वो और ज़्यादा उदास हो जाती. हालांकि वो मान चुकी थी कि उसकी क़िस्मत में त्यौहारी नहीं है, न मायके से और न ससुराल से.
तस्वीर गूगल से साभार
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