मुहब्बत...


कहते हैं, मुहब्बत की नहीं जाती हो जाती है... और जिससे हो जाए, तो उसके सिवा कुछ और नज़र आता नहीं... हालत ये है कि महबूब के लिए आग पर चलना पड़े, तो शोले भी गुलाब की पंखुड़ियां लगते हैं... शायद यही मुहब्बत है...

बक़ौल अहमद फ़राज़-
करूं न याद अगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे
वो ख़ार-ख़ार है शाख़े-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूं फिर भी गले लगाऊं उसे...

जिगर मुरादाबादी साहब ने भी क्या ख़ूब कहा है-
ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है...

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