क़ैंची...


फ़िरदौस ख़ान
बहुत साल पहले की बात है... हमारे पड़ौस में एक आंटी रहती थी... उनकी एक आदत थी... आए-दिन कुछ न कुछ मांगती रहती थी... कभी कहतीं चीनी ख़त्म हो गई, कभी चाय पत्ती मांग लेतीं, कभी प्याज़ या टमाटर, तो कभी अचार मांग लेतीं... अम्मी गर्मियों में सुबह-शाम उन्हें बर्फ़ दे दिया करती थीं...
एक दिन की बात है... हमें अपना सूट सीलना था... कपड़ा काटने बैठे, तो देखा कि क़ैंची की धार ठीक नहीं है... धार रखवाने के लिए बाज़ार जाना पड़ता... हमने सोचा कि आंटी से ही क़ैची मांग लेते हैं... हमने उनसे क़ैंची के लिए कहा, तो बहाने बनाने लगीं... पहले बोलीं, उसकी धार बहुत ख़राब है, कपड़ा नहीं कटेगा.. जब हमने याद दिलाया कि अभी कुछ दिन पहले ही तो उन्होंने धार रखवाई है... फिर कहने लगीं, कैंची तो उनकी जेठानी मांग कर ले गई... हमने कहा, कोई बात नहीं...
छोटे भाई ने क़ैची की धार रखवा कर ला दी... हमने कपड़ा काटा और सूट सील लिया... उसी दिन शाम को हमने देखा कि वो उसी क़ैंची से घी की थैली काट रही हैं...
हमने इसे अनदेखा कर दिया...
आख़िर कुछ लोग ऐसे क्यों होते हैं...? सामने वाले से उन्हें सबकुछ चाहिए और ख़ुद देने की बारी आ जाए, तो नज़रें चुराने लगते हैं...

(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़) 
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