धूप भी चांदनी-सी लगती है...


फ़िरदौस ख़ान
आधुनिक उर्दू शायरी के क्रांतिकारी शायर अली सरदार जाफ़री ने अपनी क़लम के ज़रिये समाज को बदलने की कोशिश की. उनका कहना था कि शायर न तो कुल्हा़ड़ीकी की तरह पेड़ काट सकता है और न इंसानी हाथों की तरह मिट्‌टी से प्याले बना सकता है. वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है. उनके पास विचार थे, जज़्बा था और क़लम थी, जिसके ज़रिये उन्होंने ताउम्र समाज को बेदार करने की कोशिश की. अली सरदार जाफ़री का जन्म 29 नवंबर, 1913 को उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले के बलरामपुर में हुआ था. घर का माहौल ख़ालिस मज़हबी था. ऐसे घरों में अनीस के मर्सियों को वही जगह हासिल है, जो हिंदू परिवारों में रामायण की चौपाइयों को प्राप्त है. अली सरदार जाफ़री पर इस माहौल का गहरा असर पड़ा और वह 17 साल की उम्र से ही मर्सिया कहने लगे. यह सिलसिला 1933 तक बदस्तूर जारी रहा. उनका उन दिनों का एक शेअर बहुत मशहूर हुआ था.

अर्श तक ओस के क़तरों की चमक जाने लगी
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी

बलरामपुर में हाई स्कूल की परीक्षा पास करके 1933 में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया. यहां उन्हें अख्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्बी, मजाज़, जां निसार अख्तर और ख्वाजा अब्बास जैसे साथी मिले. इसी दौरान वह कम्युनिस्ट विचारधारा के क़रीब आए और छात्र आंदोलनों में बढ़-चढ़कर शिरकत करने लगे. हड़ताल की वजह से ही 1936 में उन्हें विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया. यह माहौल का ही असर रहा कि उनका रु़ख मर्सिया से हटकर सियासी नज़्मों की तरफ़ हो गया. उन्होंने दिल्ली के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से बीए की डिग्री ली. इसके बाद वह लखनऊ आ गए. लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद वह मुंबई पहुंच गए. यहां वह कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य बन गए और आंदोलनों की वजह से कई बार जेल गए.

उन्होंने कथा लेखन भी किया. उनका लघु कथाओं का पहला संग्रह मंज़िल 1938 में प्रकाशित हुआ. शुरू में वह हाजिन के नाम से लिखा करते थे. वह नया अदब नाम की साहित्यिक पत्रिका के सह संपादक भी रहे. उनकी शायरी का पहला संग्रह परवाज़ 1944 में प्रकाशित हुआ. इसके बाद उनके कई संग्रह आए, जिनमें जम्हूर (1946), नई दुनिया को सलाम (1947), ख़ून की लकीर (1949), अम्मन का सितारा (1950), एशिया जाग उठा (1950), पत्थर की दीवार (1953), एक ख्वाब और (1965) पैरहने-शरर (1966), लहू पुकारता है (1978) और मेरा सफ़र (1999) है. उन्होंने फ़िल्मों के लिए गीत भी लिखे. इनमें फ़िल्म ज़लज़ला, धरती के लाल (1946) और परदेसी (1957) शामिल हैं. उन्होंने कबीर, मीर और ग़ालिब के काव्य संग्रहों का संपादन भी किया. उन्होंने इप्टा के लिए दो नाटक भी लिखे. उन्होंने दो डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में भी बनाईं. उन्होंने उर्दू के सात मशहूर शायरों की ज़िंदगी पर आधारित कहकशां नामक धारावाहिक का निर्माण भी किया. उन्हें 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. फ़िराक़ गोरखपुरी और कुर्तुल एन हैदर के साथ ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले उर्दू के वह तीसरे साहित्यकार हैं. उन्हें 1967 में पद्मश्री से नवाज़ा गया. उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का उर्दू अकादमी पुरस्कार और मध्य प्रदेश सरकार का इक़बाल सम्मान भी मिला. उनकी कई रचनाओं का भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ. वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन के अलावा कई अन्य सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक आंदोलनों से भी जुड़े रहे. प्रगतिशील उर्दू लेखकों का सम्मेलन आयोजित करने को लेकर उन्हें 1949 में भिवंडी में गिरफ्तार कर लिया गया. तीन महीने बाद ही उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार किया गया. उन्होंने जेल में भी लिखना जारी रखा. उनकी नज़्म जेल की रात में उनके जेल में बिताए लम्हों की कैफ़ियत झलकती है.

पहाड़ सी रात
उदास तारे, थके मुसाफ़िर
घना अंधेरा, स्याह जंगल
जहां सलाखें उगी हुई हैं
अज़ीयतों के पुराने इफ़रीत क़ैदियों को निग़ल रहे हैं
ख़ामोशी सहमी हुई खड़ी है
स्याही अपने स्याह दांतों से रौशनी को चबा रही है
उचाट नींदों के नाग आंखों को डस रहे हैं
मैं छिद रहा हूं हज़ारों कांटों से अपनी बेचैन करवटों में
ये रात भी कल की रात की तरह अपनी सफ्फाकियों को लेकर
उफ़क़ के उस पार जा छुपेगी
मगर मुझे डस नहीं सकेगी
मेरी निगाहों में मेरी महबूब तेरी सूरत रची हुई है
ये चांद मेरी हसीन यादों के आस्मां पर खिला हुआ है
तेरे तसव्वुर से मेरे सीने में चांदनी है

उनकी रूमानी नज़्मों में भी वही संघर्षशीलता का जज़्बा रचा बसा है, जो उनकी सियासी और क्रांतिकारी नज़्मों में नज़र आता है-
मैं तुझको भूल गया इसका एतबार न कर
मगर ख़ुदा के लिए मेरा इंतज़ार न कर
अजब घड़ी है मैं इस वक़्त आ नहीं आ सकता
सरूरे इश्क़ की दुनिया बसा नहीं सकता
मैं तेरे साज़े-मुहब्बत पे गा नहीं सकता
मैं तेरे प्यार के क़ाबिल नहीं प्यार न कर
न कर ख़ुदा के लिए मेरा इंतज़ार न कर

उनकी नज़्म तू मुझे इस प्यार से न देख में जाड़ो की सुबह की गुनगुनी धूप का अहसास मिलता है-
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साये में
धूप भी चांदनी सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पांव के छाले
यूं दमकते हैं जैसे अंगारे
प्यार की ये नज़र रहे, न रहे
कौन दश्त-ए-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख

उनकी शायरी में निराशा में आशा और अविश्वास में विश्वास के दिए जगमगाते नज़र आते हैं. उनकी शायरी उमंगें पैदा करती है. बानगी देखिए-

सिर्फ़ इक मिटती हुई दुनिया का नज़ारा न कर
आलमे-तख्लीक़ में है इक जहां ये भी तो देख
मैंने माना मरहले हैं सख्त राहें हैं दराज़
मिल गया है अपनी मंज़िल का निशां ये भी तो देख

उन्होंने मज़दूरों की बदहाली और उनकी परेशानियों, उदासियों को भी अपनी नज़्मों में मार्मिक रूप से पेश किया है. उनकी ऐसी ही एक नज़्म मां है रेशम के कारख़ाने में है-

मां है रेशम के कारख़ाने में
बाप मसरूफ़ सूती मिल में है
कोख से मां की जब से निकला है
बच्चा खोली के काले दिल में है
जब यहां से निकल के जाएगा
कारख़ानों के काम आएगा
अपने मजबूर पेट की ख़ातिर
भूक सरमाये की बढ़ाएगा
हाथ सोने कु फूल उगलेंगे
जिस्म चांदी का धन लुटाएगा
खिड़कियां होंगी बैंक की रौशन
ख़ून इसका दिए जलाएगा
यह जो नन्हा है भोला-भाला है
ख़ूनी सरमाये का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है

अली सरदार जाफ़री का एक अगस्त, 2000 को देहांत हो गया. वह कहा करते थे कि हर शायर की शायरी वक़्ती होती है. हो सकता है कि कोई इस बात से सहमत हो और कोई न भी हो, लेकिन यह सच है कि अहसास की शिद्दत हमेशा क़ायम रहती है. इसलिए शायरी की दुनिया में वह हमेशा ज़िंदा रहेंगे. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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1 Response to "धूप भी चांदनी-सी लगती है..."

  1. राजीव कुमार झा says:
    27 अगस्त 2013 को 10:42 am बजे

    बहुत सुन्दर .
    परती परिकथा : कोसी की
    http://dehatrkj.blogspot.com/2013/08/blog-post_25.html

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