मानिंद मेरे उनका भी घरबार नहीं है


हमको तुम्हारी बात से इंकार नहीं है
तुमको हमारी हां में भी इक़रार नहीं है

रातों को भी जंगल में भटकते सदा जुगनू
मानिंद मेरे उनका भी घरबार नहीं है

मजबूरियों ने बेड़ियां डाली हैं बरगना
तुम जैसा मेरा मोनिसो-गमख्वार नहीं है

जो काम ज़िंदगी के उसूलों को ज़रर दे
एक बार नहीं, उससे तो सौ बार नहीं है

वह क़त्ल तो करते हैं ख़ुदा जाने किस तरह
हाथों में जिनके ख़ंजरो-तलवार नहीं है

'फ़िरदौस' तेरी कितनी अजब कश्ती-ए-हयात
चल तो रही है, मगर कोई पतवार नहीं है
-फ़िरदौस ख़ान
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6 Response to "मानिंद मेरे उनका भी घरबार नहीं है"

  1. Avinash Das says:
    1 फ़रवरी 2009 को 11:36 am बजे

    ये लाइन शानदार है... 'फ़िरदौस' तेरी कितनी अजब कश्ती-ए-हयात है
    चल तो रही है, मगर कोई पतवार नहीं है...
    लेकिन मैं इसको अपनी फेवरिट में इस तरह डाल रहा हूं... 'फ़िरदौस' तेरी कितनी अजब कश्ती-ए-हयात (delete - है)
    चल तो रही है, पर (मगर की जगह) कोई पतवार नहीं है।

  2. roushan says:
    1 फ़रवरी 2009 को 12:36 pm बजे

    बहुत दिनों से आपकी कोई ख़बर नही थी
    ये ग़ज़ल देख कर राहत मिली

  3. Dr. Ashok Kumar Mishra says:
    2 फ़रवरी 2009 को 12:03 am बजे

    bahut din baad aapki gazal padney ko mili. hamesha ki tarah behtreen gazal hai. -

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

  4. Yogesh Verma Swapn says:
    3 फ़रवरी 2009 को 5:09 pm बजे

    bahut sunder ghazal mazaa aa gaya. dheron badhai aur mubarak.

  5. अनुपम अग्रवाल says:
    18 फ़रवरी 2009 को 8:49 pm बजे

    माना कि तुमको बात से इंकार नहीँ है
    मगर फिर भी तो हमपे एतबार नहीँ है
    मै रखता हूँ इत्तेफाक़ युँ तेरी राय से
    क्या करूँ मेरा भी घरबार नहीँ है

  6. बेनामी Says:
    6 मार्च 2010 को 9:49 pm बजे

    रातों को भी जंगल में भटकते सदा जुगनू
    मानिंद मेरे उनका भी घरबार नहीं है

    मजबूरियों ने बेड़ियाँ डाली हैं बरगना
    तुम जैसा मेरा मोनिसो-गमख्वार नहीं है

    जो काम ज़िंदगी के उसूलों को ज़रर दे
    एक बार नहीं, उससे तो सौ बार नहीं है

    वह क़त्ल तो करते हैं ख़ुदा जाने किस तरह
    हाथों में जिनके खंजरो-तलवार नहीं है

    'फ़िरदौस' तेरी कितनी अजब कश्ती-ए-हयात
    चल तो रही है, मगर कोई पतवार नहीं है...

    बेहद उम्दा ग़ज़ल.......

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