क्यों दर्द की इंतेहा नहीं होती...
फ़िरदौस ख़ान
बात बहुत पुरानी है... शायद ग्यारह-बारह साल पुरानी... एक स्टोरी के सिलसिले में हमारी मुलाक़ात एक साधु से हुई... शहर से दूर वीराने में सड़क के किनारे वह धूनी रमाये बैठा रहता था... उसने हमें बताया कि बहुत साल पहले इसी जगह एक झोपड़ी में वह अपनी बीवी और एक बच्ची के साथ रहता था... उसका ख़ुशहाल परिवार था... एक दिन उसकी बीवी की मौत हो गई... बिन मां की बेटी को उसने मां-बाप दोनों का प्यार दिया... बेटी ही उसकी कुल कायनात थी... वह बड़ी हुई... वह हर जगह चहकती फिरती थी... उसे देखकर ही वह जी रहा था... एक आवारा लड़का अकसर उसे परेशान करता था... इस बात को लेकर साधु की उससे कई बार कहासुनी भी हुई... एक दिन उसकी बेटी ग़ायब हो गई... उसने बेटी को बहुत तलाशा, लेकिन वह नहीं मिली... वह पुलिस के पास गया... पुलिस ने उसे भला-बुरा कहकर भगा दिया... और उसकी बेटी के बारे में अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया... वह ख़ुद ही बेटी को तलाशता रहा... काफ़ी दिनों बाद झाड़ियों में उसकी बेटी की लाश मिली... बेटी की लाश देखकर वह टूट गया... उसने फिर पुलिस से गुहार लगाई कि उसकी बेटी को इंसाफ़ दिलाए, लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया...
फिर उसने संसार से नाता तोड़ लिया और देवी की साधना में लग गया... उसने कहा कि वह लड़का आज भी अकसर उसके सामने से मुस्कराता हुआ गुज़रता है... और उस वक़्त उसके दिल पर जो बीतती है, उसे बताया नहीं जा सकता...
कितना सच कहा था उस साधु ने... आज बरसों बाद उस तकलीफ़ को महसूस किया, तो उस दर्द का अहसास हुआ... जब ज़िन्दगी अज़ाब करने वाला नज़रों के सामने रहे, तो उसे बर्दाश्त करना वाक़ई बहुत तकलीफ़देह होता है... क्यों दर्द की इंतेहा नहीं होती...?
28 अक्टूबर 2014 को 8:25 pm बजे
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - बुधवार- 29/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 40 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,
29 अक्टूबर 2014 को 10:00 am बजे
स्तब्ध हूँ -एकदम निःशब्द !
29 अक्टूबर 2014 को 9:04 pm बजे
Haan behad mushkil hota hai fir chaahe vo kuch bhi kare nafrat kam nhi hoti... Use bardast karne bepanaah mushkil hota hai.. Man ko chuti abhivyakti !!