इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...

अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब...
यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है...

इश्क़ वो आग है, जिससे दोज़ख भी पनाह मांगती है... कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है... जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो उसे  दोज़ख़ की आग का क्या ख़ौफ़...

जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है... इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना... क्योंकि इश्क़ तो 'उससे' हुआ है...उसकी ज़ात (वजूद) से हुआ है... उस 'महबूब' से जो सिर्फ़ 'जिस्म' नहीं है... वो तो ख़ुदा के नूर का वो क़तरा है, जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है... इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है... इश्क़ में रूहानियत होती है... इश्क़, बस इश्क़ होता है... किसी इंसान से हो या ख़ुदा से...

हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ...

बुजुर्गों से सुना है कि शायरों की बख़्शीश नहीं होती...वजह, वो अपने महबूब को ख़ुदा बना देते हैं...और इस्लाम में अल्लाह के बराबर किसी को रखना...शिर्क यानी ऐसा गुनाह माना जाता है, जिसकी मुआफ़ी तक नहीं है...कहने का मतलब यह है कि शायर जन्नत के हक़दार नहीं होते...उन्हें  दोज़ख़ (जहन्नुम) में फेंका जाएगा... अगर वाक़ई ऐसा है तो मुझे  दोज़ख़ भी क़ुबूल है...आख़िर वो भी तो उसी अल्लाह की तामीर की हुई है...जब हम अपने महबूब (चाहे वो काल्पनिक ही क्यूं न हो) से इतनी मुहब्बत करते हैं कि उसके सिवा किसी और का तसव्वुर करना भी कुफ़्र महसूस होता है... उसके हर सितम को उसकी अदा मानकर दिल से लगाते हैं... फिर जिस ख़ुदा की हम उम्रभर इबादत करते हैं तो उसकी  दोज़ख़ को ख़ुशी से क़ुबूल क्यूं नहीं कर सकते...?

बंदे को तो अपने महबूब (ख़ुदा) की  दोज़ख़ भी उतनी ही अज़ीज़ होती है, जितनी जन्नत... जिसे इश्क़ की दौलत मिली हो, फिर उसे कायनात की किसी और शय की ज़रूरत ही कहां रह जाती है, भले ही वो जन्नत ही क्यों न हो...

जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए, तो वो ख़ुद ब ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है... इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है... जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है...

किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
मुकम्मल दो ही दानों पर
ये तस्बीह-ए-मुहब्बत है
जो आए तीसरा दाना
ये डोर टूट जाती है

मुक़र्रर वक़्त होता है
मुहब्बत की नमाज़ों का
अदा जिनकी निकल जाए
क़ज़ा भी छूट जाती है

मोहब्बत की नमाज़ों में
इमामत एक को सौंपो
इसे तकने उसे तकने से
नीयत टूट जाती है

मुहब्बत दिल का सजदा है
जो है तैहीद पर क़ायम
नज़र के शिर्क वालों से 
मुहब्बत रूठ जाती है


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33 Response to "इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है..."

  1. डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) says:
    4 मई 2010 को 9:27 am बजे

    मैं तो बस आज इतना ही कहूँगा ... की आज की पोस्ट दिल को छू गयी..... कहीं अन्दर तक .........

  2. स्वप्न मञ्जूषा says:
    4 मई 2010 को 9:48 am बजे

    हकीकी-इश्क कहिये या मजाजे-इश्क,पर हमको
    ख़ुदा की बुत की तरह ही उसकी याद आती है
    मेरी कल की पोस्ट में ये शेर लिखा था...और सचमुच ऐसा है तो दोजख की आग मुझे भी मंज़ूर है....
    क्योंकि हम शायरी नहीं छोड़ सकते...
    बहुत सुन्दर लिखा है आपने...

  3. RAJENDRA says:
    4 मई 2010 को 10:02 am बजे

    इस पर टिपण्णी करने का हक उसको है जिसने इश्क का स्वाद चक्खा हो

  4. kunwarji's says:
    4 मई 2010 को 10:07 am बजे

    हमने भी सुना ही है जी के..."इश्क का रुतबा इश्क ही जाने....."

    कुंवर जी,

  5. IRFAN says:
    4 मई 2010 को 10:25 am बजे

    is post ko padhkar to har kisi ka dil dhadak jayega,yaqinan!

  6. Awadhesh Pandey says:
    4 मई 2010 को 10:35 am बजे

    post dil ko chhoo gayi, kabhi kabhi mahboob ya khud ko bhi jalana padta hai.
    yah ishk nahi asan, bas itna samjh lijiye.
    yah aag ka darya hai, aur tair kar jana hai.

  7. संजय भास्‍कर says:
    4 मई 2010 को 11:17 am बजे

    बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है

  8. SANJEEV RANA says:
    4 मई 2010 को 11:29 am बजे

    " ye ishq nhi aasaan, itna to samajh lijiye
    ek aag ka dariya h, aur doob ke jana h"



    "dil ka aa jana kisipe kisi ke bas ki baat kaha
    dil aajaye patthar pe to, heere ki aukat kaha"

  9. vandana gupta says:
    4 मई 2010 को 11:47 am बजे

    बहुत सुन्दर भाव……………………जिसने इश्क़ कर लिया वो फिर कहीं का नहीं रहता………………इश्क़ ही इश्क़ होता है और प्रीतम का दीदार होता है हर वक्त फिर चाहे उसे देखा हो या नही।

  10. दिनेशराय द्विवेदी says:
    4 मई 2010 को 5:12 pm बजे

    बहुत खूब! एम ए पास कर ने के लिए सबसे पहले पहली क्लास में भर्ती होना पड़ता है। हम तो अभी विद्यार्थी हैं। इश्के हक़ीक़ी तक पहुँचने में वक्त तो लगेगा।

  11. Udan Tashtari says:
    4 मई 2010 को 5:15 pm बजे

    बहुत उम्दा...अच्छा लगा पढ़कर.

  12. IRFAN says:
    4 मई 2010 को 5:36 pm बजे

    101 per dial karo!!

  13. संजय @ मो सम कौन... says:
    4 मई 2010 को 6:38 pm बजे

    आपकी पोस्ट पढ़कर टिप्पणी करने की इच्छा हो रही है\थी, राजेन्द्र जी की टिप्पणी पढ़कर हाथ रुक से गये हैं।

    अब ये टिप्पणी मानी जायेगी या नहीं?

    लिखा बहुत खूब है आपने।

    बधाई।

  14. Unknown says:
    4 मई 2010 को 6:58 pm बजे

    हमें इस आग में अब नहीं जलना क्योंकि हमें तो बतने इस्क की आग पहले ही जला कर शोला बना चुकी है।
    पर दो पंक्तियां जरूर लिखेंगे
    Love is slow poison
    Poison can take our life
    Life is nothing but bunch of emotions
    Emotions are meaningless without the emotion of Love
    बताओ बन्दा क्या करे
    कुछ भी नहीं
    सब खुदवाखुद हो जाता है

  15. shikha varshney says:
    4 मई 2010 को 7:46 pm बजे

    कहीं सुना था ...इश्क आग का दरिया है और डूब कर जाना है...

  16. Unknown says:
    4 मई 2010 को 9:46 pm बजे

    इश्क़ पर आपकी बातों ने प्रभावित किया

    मगर फिरदौस जी

    मेरा मानना है

    आदमी को इश्क़ हुआ तो क्या हुआ ?
    बात तो तब है जब आदमी ख़ुद इश्क़ हो जाये

    बन्दे का वजूद ही क्या है
    वजूद इश्क़ का रहे
    वजूद आशिकी का रहे

  17. दिगम्बर नासवा says:
    5 मई 2010 को 6:32 pm बजे

    वाह ... बहुत कमाल का लिखा है ... सच है अगर इश्क में दोजख मिलता है तो खुदा भी तो वहीं मिलेगा .... वो भी तो इश्क़ करता है ........

  18. बेनामी Says:
    7 मई 2010 को 7:29 pm बजे

    एक-एक लफ्ज़ रूहानियत से सराबोर..... जिसने इश्क़ को समझा हो, जाना हो, पहचाना..... वही इतनी गहराई से लिख सकता है.....

    आपकी तहरीर में पाकीज़गी होती है.... जब भी पढ़ता हूं दिल को सुकून मिलता है..... और कई दिनों तक आपकी तहरीर में खोया रहता हूं.....

    बेशक, आपके ब्लॉग पर आकर ज़बान पर यह शेअर आ जाता है..... गर फ़िरदौस बर रू-ए- ज़मीं अस्त, हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त.....

    जिसने भी आपका नाम 'फ़िरदौस' रखा है..... बिलकुल सही रखा है.....

  19. vedvyathit says:
    8 मई 2010 को 9:23 pm बजे

    prem gali ati sankri ja me do n smayen

    prem [ishk ]ka pnth to tlvar ki dhar p dhavno hai

    prm chhipaya n chhipe ja ghy prgt hoye

    prem pnth soodo bhuri kthin khdg ki dhar

    hr sans me to hi hai
    prem to pani me rh kr meen ki pyas hai
    chhchhiya bhri chhach ka nach hai
    aankhdiyon ki jhain hai jibdiya ka chhala hai
    yh sans usi ko atki hai
    jo pyar me mujhe dubayega
    aao usi ke prem me hm dubki lgate rhen
    bhn bhut achchalikh hai
    dr. ved vyathit

  20. ePandit says:
    9 मई 2010 को 5:16 pm बजे

    इश्क पर आपके ख्याल बहुत सटीक बैठते हैं लेकिन हमने देखा है कि अक्सर इश्क का भूत समय (कभी छोटा कभी लम्बा) के साथ उतर जाता है (बेशक धीरे-धीरे)। जो इश्क ताउम्र कायम रहे वही सच्चा इश्क होता है। हाँ ये बात अलग कि हर छोटा बड़ा आशिक अपने इश्क को सच्चा समझता है।

    और हाँ सबसे ऊँचा, पाक, महान और आनन्ददायक इश्क है खुदा/भगवान से इश्क। एक बार इस इश्क का मजा जिसने चख लिया इंसानी इश्क उसके लिये कुछ नहीं। हाँ ये अवश्य है कि किसी इंसान से किया इश्क भी ईश्वर से इश्क का अंदाजा करा देता है।

  21. सम्वेदना के स्वर says:
    9 मई 2010 को 8:44 pm बजे

    मेरे माशूक

    नज़र में मेरी बस तू ही है!

    और दिखता नहीं कोई भी मुझे तेरे सिवा।

    ख़त्म सब हो गयी दुःख की बदली

    अब अँधेरा कहीं कोई न रहा।

    सिर्फ आनंद है और रौशनी का सागर है

    हर तरफ तेरे ही होने का है भरम होता

    "तुम मेरे पास होते हो गोया

    जब कोई दूसरा नहीं होता."

  22. माधव( Madhav) says:
    10 मई 2010 को 4:53 pm बजे

    एक अच्छा ,उपयोगी और ज्ञानवर्धक ब्लॉग है जो हमें नई नई चीजे सीखाता है

    इंसान बनाता है




    http://madhavrai.blogspot.com/

    http://qsba.blogspot.com

  23. Fauziya Reyaz says:
    11 मई 2010 को 3:02 pm बजे

    firdosji...kya kahun... kya khoob kaha aapne...
    ishq ka rutbaa ishq hi jaane

  24. Unknown says:
    18 मई 2010 को 7:14 pm बजे

    इश्क एक खामोश इबादत है.........जिसकी मंजिल जन्नत नहीं दीदार-ए-महबूब है....
    सच कहा है.....
    सच्चा आशिक महबूब की खातिर जन्नत को नहीं चाहता.
    महबूब का दीदार हुआ हो या न हो. इश्क कायम रहता है यकीन कायम रहता है और... यह यकीन ही महबूब की ताक़त होती है...
    उसे हौसला और ख्वाब मयस्सर कराती है.

  25. Unknown says:
    23 मई 2010 को 1:39 pm बजे

    ishq to khuda k liye he hona chahiye.. kyuki sirf vo he is k kaabil hai.beshak khuda apne chane walo may meherbaan hote hai. aur na manne walo par shakt azab hai.. iske alava jisko khuda chahe use zannat denge aur jise khuda chahe use zahannam ka mustahik bana de..

  26. बेनामी Says:
    23 मई 2010 को 6:51 pm बजे

    ye to sufiyana kalaam sa lagta hai, in sufiyo ne islaam ko jitna nuksaan pahuchaya hai utna to yahudi nasara aur mushriko ne bhi nahi pahuchaya hai, andar hi andar islam ki har cheez badal daali yahaan tak ki tauheed bhi badal daali

    http://searchtruepath.blogspot.com/2010/05/haqeeqat-deobandi.html

  27. अनुराग मुस्कान says:
    29 मई 2010 को 2:41 pm बजे
    इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
  28. अनुराग मुस्कान says:
    29 मई 2010 को 3:09 pm बजे

    पिछले कमेंट में कुछ त्रुटियां थीं, ये रहा नया कमेंट- ...दोज़क़ की अच्छी पब्लिकसिटी की है आपने... वैसे तो दज़क़ और जन्नत किसने देखे? मुहब्बत करने वाले ये सब सोचते भी कहां हैं... और फिर मुहब्बत भी तो ख़ुदा ही है... अच्छा लिखा है आपने...

  29. Girish Kumar Billore says:
    21 नवंबर 2010 को 12:02 am बजे

    इश्क नचाए जिसको यार उसपे दवा दारू बेकार

  30. Asha Lata Saxena says:
    21 नवंबर 2010 को 2:48 pm बजे

    इश्क का अनुभव ही उसे बयां करने का सिला बन पाया है |बहुत अच्छा लिखा है |
    बधाई |
    आशा

  31. Crazy Codes says:
    22 दिसंबर 2010 को 11:17 am बजे

    pyaar ko bade karib se mahsoos kiya hai aapne... laajawaab rachna thi... pahli baar aapke blog par aaya hun aur afsos ho raha hai ki itne dino se main kya kar raha tha... kabhi samay mile to mere blog par mujhse milne v aaiyega...

  32. ZEAL says:
    27 दिसंबर 2010 को 6:55 am बजे

    जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए तो वो ख़ुद ब ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है... इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है... जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है..

    एक उम्दा आलेख ।
    आभार।

    .

  33. बेनामी Says:
    29 दिसंबर 2010 को 12:40 pm बजे

    आपके लेख ने हृदय को कहीं गहराई में छू लिया है|

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