ज़िन्दगी की हथेली पर मौत की लकीरें हैं...
मेरे महबूब !
तुमको पाना
और
खो देना
ज़िन्दगी के दो मौसम हैं
बिल्कुल
प्यास और समन्दर की तरह
या शायद
ज़िन्दगी और मौत की तरह
लेकिन
अज़ल से अबद तक
यही रिवायत है-
ज़िन्दगी की हथेली पर
मौत की लकीरें हैं...
और
सतरंगी ख़्वाबों की
स्याह ताबीरें हैं
मेरे महबूब !
तुमको पाना
और
खो देना
ज़िन्दगी के दो मौसम हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
शब्दार्थ
अज़ल - आदि
अबद - अंत
स्याह - काला
9 अक्टूबर 2008 को 12:08 pm बजे
सुब्हान अल्लाह... अरसे बाद आपकी नज़्म पढ़ने को मिली...बहूत ख़ूब...ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा चंद अल्फाज़ में आप ही बयां कर सकती हैं...
आपको लफ्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी नहीं, बल्कि हुस्न और कलाम की मलिका कहना ज़्यादा मुनासिब होगा...
9 अक्टूबर 2008 को 2:16 pm बजे
लेकिन
अज़ल से अबद तक
यही रिवायत है-
ज़िन्दगी की हथेली पर
मौत की लकीरें हैं...
और
सतरंगी ख़्वाबों की
स्याह ताबीरें हैं
बहुत खूब कहा आपने
9 अक्टूबर 2008 को 4:47 pm बजे
और ये महबूब न जाने किस मिट़टी के बने होते हैं इन्हें कोई मौसम भी समझ नहीं आता....
खै़र बहुत अच्छा लगा आपको पढ़ना।
9 अक्टूबर 2008 को 6:52 pm बजे
firdaus ji,
bade khoobsurat lafjon mein jindagi ka falsafa vayan kar diya-
ज़िन्दगी की हथेली पर
मौत की लकीरें हैं...
और
सतरंगी ख़्वाबों की
स्याह ताबीरें हैं
yahi sach hai.
9 अक्टूबर 2008 को 7:47 pm बजे
बहुत ख़ूब.
9 अक्टूबर 2008 को 8:17 pm बजे
बहुत खूब.
बाकई जिंदगी और मौत दो मौसमों की तरह हैं.
9 अक्टूबर 2008 को 9:13 pm बजे
link ke kiye dhanaivad.sayari aur kavita ki mujhe bahut kam samajh hai halaki manglesh dabral jaise kavi ka salo se sath raha hai.per bhookh bhukhmari ,kisan aur hidustan ke saval per jarur kuch karta raha ho.
ambrish_kumar2000@yahoo.com
10 अक्टूबर 2008 को 5:12 pm बजे
लेकिन
अज़ल से अबद तक
यही रिवायत है-
ज़िन्दगी की हथेली पर
मौत की लकीरें हैं...
और
सतरंगी ख़्वाबों की
स्याह ताबीरें हैं
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा चंद अल्फाज़ में ही बयां कर दिया!