नगमें रफ़ाक़तों के सुनाती हैं बारिशें...


नगमें रफ़ाक़तों के सुनाती हैं बारिशें
अरमान ख़ूब दिल में जगाती हैं बारिशें

बारिश में भीगती है कभी उसकी याद तो
इक आग-सी हवा में लगाती हैं बारिशें

मिस्ले-धनक जुदाई के ल्म्हाते-ज़िंदगी
रंगीन मेरे ख़्वाब बनाती हैं बारिशें

ख़ामोश घर की छत की मुंडेरों पे बैठकर
परदेसियों को आस बंधाती हैं बारिशें

जैसे बगैर रात के होती नहीं सहर
यूं साथ बादलों का निभाती हैं बारिशें

सहरा में खिल उठे कई महके हुए चमन
बंजर ज़मीं में फूल खिलाती हैं बारिशें

'फ़िरदौस' अब क़रीब मौसम बहार का
आ जाओ कब से तुमको बुलाती हैं बारिशें
-फ़िरदौस ख़ान
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बस, एक घर ऐसा हो...


घर...कितना सुकून समाया है, इस एक लफ्ज़ में... घर महज़ ईंट-गारे से बनी चारदीवारी पर टिकी छत का नाम नहीं है... और न ही उस छत का नाम है जिसके नीचे कई लोग रहते हैं... क्योंकि ऐसी जगह मकान तो हो सकती है, लेकिन घर क़तई नहीं... हमने बरसों पहले एक घर का तसव्वुर किया था और फिर उसी तसव्वुर को अल्फ़ाज़ में पिरोकर सहेज लिया था... बरसों तक सहेजकर रखे गए उसी तसव्वुर को आज एक दुआ के साथ पोस्ट कर रहे हैं... इंसान अपने लिए जैसा घर चाहता है, उसे वैसा घर नसीब हो... आमीन

घर
एक घर ऐसा हो
जिसकी बुनियाद
खुलूस की ईंटों से बनी हो
जिसके आंगन में
बेला और मेहंदी महकती हों
जिसकी क्यारियों में
रफ़ाक़तों के फूल खिलते हों
जिसकी दीवारें
क़ुर्बतों की सफ़ेदी से पुती हों
जिसकी छत पर
दुआएं
चांद-सितारे बनकर चमकती हों
जिसके दालान में
हसरतें अंगड़ाइयां लेती हों
जिसके दरवाज़ों पर
उम्र की हसीन रुतें
दस्तक देती हों
जिसकी खिड़कियों में
बच्चों-सी मासूम ख़ुशियां
मुस्कराती हों
और
जिसकी मुंडेरों पर
अरमानों के परिन्दे चहकते हों
बस, एक घर ऐसा हो
-फ़िरदौस ख़ान

Courtesy :  Image Mikki Senkarik 


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मानिंद मेरे उनका भी घरबार नहीं है


हमको तुम्हारी बात से इंकार नहीं है
तुमको हमारी हां में भी इक़रार नहीं है

रातों को भी जंगल में भटकते सदा जुगनू
मानिंद मेरे उनका भी घरबार नहीं है

मजबूरियों ने बेड़ियां डाली हैं बरगना
तुम जैसा मेरा मोनिसो-गमख्वार नहीं है

जो काम ज़िंदगी के उसूलों को ज़रर दे
एक बार नहीं, उससे तो सौ बार नहीं है

वह क़त्ल तो करते हैं ख़ुदा जाने किस तरह
हाथों में जिनके ख़ंजरो-तलवार नहीं है

'फ़िरदौस' तेरी कितनी अजब कश्ती-ए-हयात
चल तो रही है, मगर कोई पतवार नहीं है
-फ़िरदौस ख़ान
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ज़िन्दगी में मुहब्बत का मौसम हो...


काश! कभी ऐसा हो...
ज़िन्दगी में
मुहब्बत का मौसम हो...

सुबहें
उम्मीद की किरनों से
रौशन हों...

दोपहरें
पलाश-वन सी
दहकी हों...

शामें
सुर्ख़ गुलाबों-सी
महकी हों...

और
रातें
मुहब्बत की चांदनी में
भीगी हों...

काश! कभी ऐसा हो...
ज़िन्दगी में
मुहब्बत का मौसम हो...
-फ़िरदौस ख़ान
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मरने वाले के नाम की जगह मेरा नाम लिखा होगा...

नज़्म
जब कभी
अख़बार में पढ़ती हूं
खुदकुशी की कोई ख़बर
तो अकसर
यह सोचने लगती हूं
क्या कभी ऐसा होगा
मरने वाले के नाम की जगह
मेरा नाम लिखा होगा
और
मौत की वजह 'नामालूम' होगी
क्या कभी ऐसा होगा...?
-फ़िरदौस ख़ान
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तुमको जब भी क़रीब पाती हूं

तुमको जब भी क़रीब पाती हूं
दर्दो-ग़म सारे भूल जाती हूं
निज़्द जाकर तेरे ख़्यालों के
मैं ख़ुदा को भी भूल जाती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान
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ज़िन्दगी अमावस की स्याह रात है

ज़िन्दगी
अमावस की
स्याह रात है
जिसमें
रौशन हैं
उम्मीदों के
हज़ारों दीये...

दुख और तकलीफ़ों का अंधेरा
कितना ही घना
क्यूं न हो...

एक न एक दिन
सुख और खुशियों
के उजाले को
ज़िन्दगी के आंगन में
छा ही जाना होता है
बिल्कुल
पहले पहर की
उजली धूप की तरह...
फ़िरदौस ख़ान
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फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में


जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बगैर कितने ज़माने गुज़र गए

फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह

मैं उस तरफ़ से अब भी गुज़रती तो हूं मगर
वो जुस्तजू, वो मोड़, वो संदल नहीं रहा

आप अगर यूं ही मुझे तकते रहे
नाम अपना आइना रख लूंगी मैं

रातभर दर्द के जंगल में घुमाती है मुझे
याद उस शख्स की हर रोज़ रुलाती है मुझे

देख लेना मेरी तक़दीर भी चमकेगी ज़रूर
मेरी आवाज़ से रौशन ये ज़माना होगा

जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन
हर इक क़तरा मेरी जां कतरा-ए-शबनम नहीं होता

आज अपनी पसंद के चंद अशआर पोस्ट कर रही हूं...उम्मीद करती हूं पढ़ने वालों को पसंद आएंगे...
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इस देस को 'फ़िरदौस' जफ़ाएं नहीं आतीं


ख़ुशहाल घरों में यूं बलाएं नहीं आतीं
भारत में मेरे जंग की हवाएं नहीं आतीं

ग़ुरबत में ग़रीबों का ये क्या हाल हुआ है
लाचार के होंठों पे दुआएं नहीं आतीं

सरकार बनाने से क़बल खाते हैं क़समें
पर सबको पता, इनको वफ़ाएं नहीं आतीं

बादल तो गरजते हैं, मगर ये भी हक़ीक़त
आंगन में ग़रीबों के घटाएं नहीं आतीं

आज़ाद वतन है मेरा आज़ाद फ़िज़ाएं
पर फिर भी सुरीली-सी सदाएं नहीं आतीं

दुनिया को सिखानी है, यही एक रिवायत
इस देस को 'फ़िरदौस' जफ़ाएं नहीं आतीं
-फ़िरदौस ख़ान
शब्दार्थ = गुरबत - ग़रीबी, सदाएं - आवाज़ें
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तुम क्यूं चले जाते हो, मुझसे दूर, बहुत दूर...

ऐ दोस्त !
तुम क्यूं चले जाते हो
मुझसे दूर, बहुत दूर...
अकसर
उस वक़्त
जब मुझे
तुम्हारी बहुत ज़रूरत होती है...
-फ़िरदौस ख़ान
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