ईश प्रीत की छलकन है यह पुस्तक


सूफ़ी-संतों पर आधारित पुस्तक ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ फ़िरदौस ख़ान की ईश प्रीत की छलकन है. ऋषि सत्ताओं की विस्मृत वाणी को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को कैसे संत व फ़क़ीर जीते हैं, उसी को पुनः स्मृति में लाने का प्रयास है यह पुस्तक.

जैसे श्रीमद्भगवद्गीता पुनः अर्जुन के बहाने संसार को मिल रहा है, जबकि योगेश्वर कहते हैं कि सबसे पहले यह ज्ञान सूर्य को दिया था, जो काल के खेल में विलुप्त हो गया था.
ऋषि सत्ताओं ने धर्म की जगह विशेष के समूह को जीवन जीने का तरीक़ा दिया और ऋषियों, सूफ़ी, संतों व फ़क़ीरों ने उस जीवन जीने के तरीक़ों के उद्देश्य को जिया अर्थात आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त होना, अर्थात उस प्रकाश को पाना है जिससे यह कायनात है. अखिल ब्रह्मांड है, भीड़ और समूह सीढ़ियां छोड़ नहीं पाती हैं, जिससे भेद बना रहता है, बसा रहता है. मंज़िल पानी थी, न कि सिर पर सीढ़ियां लादे घूमना था. फ़क़ीरों-संतों का जीवन चीख़-चीख़ कर घोषणा करता है- ढाई आखर प्रेम का, पढ़या सो पंडित होय.
पहुंचना प्रीत सागर में है. सारी की सारी नदियों का गंतब्य क्या है, समुद्र.

गंगा-जमुनी मेल क्या है, संस्कृति क्या है, चलें सागर की ओर, मिलकर. संगम पाकर और विशाल-विस्तृत होकर. विराट मिलन के पूर्व का मिलन उस महामिलन की मौज की मस्ती के स्वाद का पता दे देता है. इसका बड़ा अच्छा उदाहरण लेखिका व आलिमा फ़िरदौस ख़ान ने प्रस्तुत किया है. सूफ़ी हज़रत इब्राहिम बिन अदहम के जीवन से-
-कौन ?
- तेरा परिचित.
-क्या खोज रहे हो?
- ऊंट.
बकवास... इतने ऊपर हमारे महल में ऊंट कैसे आ सकता है? परिचित बोलते हैं कि जब तू राजमहल में मालिक को ढूंढ सकता है, तो यहां हमारा ऊंट क्यों नहीं आ सकता है?
अर्थात राजस में रहकर सात्विक से भी (त्रिगुण मयी माया) पार की ख़बर का नाटक करना ही है. आज के दौर में कितना प्रासंगिक है. राजस जीवन जीकर धर्म की व्याख्या करना, पतन की पराकाष्ठा ही है.
वहीं जब महल को पुनः सराय कहता है परिचित, तब बादशाह की आंख पूरी खुल जाती है. राजस आने जाने वाली फ़ानी बादशाहत छोड़कर फ़क़ीरी जीवन जीने लगते हैं.

और सूफ़ी, संत, फ़क़ीर ही असली बादशाह हैं. मालिक की गोद में बैठकर असली मौज लेते रामकृष्ण परमहंस भी दिखते हैं और माँ के आशीष से सिंचित कर्मयोगी शहनाई वादक बिस्मिल्लाह ख़ान साहेब भी क्या हज़रत इब्राहिम बिन अदहम की तरह फ़क़ीरी में बादशाह नहीं हैं.
चाहे कबीर हों, रसखान हों, दादू हों सभी उस नूर, उस रौशनी की चर्चा अपनी सधुक्कड़ी भाषा में कर रहे हैं. 
लेखिका फ़िरदौस ख़ान उस ईश्वरीय नूर को जी रही हैं और इस तरह ईश प्रीत की उस छलकन की पहली श्रृंखला है यह पुस्तक, जिसे ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह) ने प्रकाशित किया है.

शुभकामनाएं अपार!
नन्दलाल सिंह

लेखक का परिचय 
नन्दलाल सिंह लेखक एवं अनिभेता हैं. वह रंगमंच, हिन्दी फ़ीचर फ़िल्मों के लिए लेखन करते हैं. उनकी कहानियां, लेख, उपन्यास एवं गांधी दर्शन पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वह महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, बनारस में भी नाट्य विभाग में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहे हैं. वह महात्मा गांधी के विचार एवं दर्शन पर कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देते हैं. 
संपर्क : गोरेगांव (पश्चिम), मुम्बई- 400104 (महाराष्ट्र)
ईमेल : sundharanandlal@gmail.com
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