ज्वलंत सवाल उठाता उपन्यास
फ़िरदौस ख़ान
दुनिया भर में महिलाओं को दोयम दर्जे पर रखा गया है. जन्म से लेकर मौत तक महिला कभी पिता पर, कभी पति पर और कभी अपने पुत्र पर निर्भर रही है. इसी निर्भरता की वजह से पुरुषों की नज़र में महिलाएं अबला और भोग्या बनकर रह गईं. लेकिन इतिहास गवाह है कि शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाओं ने पुरुषों के वर्चस्व से निकलकर ख़ुद अपनी अलग पहचान बनाई है. उषा प्रियंवदा का चर्चित उपन्यास शेष यात्रा भी एक ऐसी ही महिला की कहानी है, जो पति पर आश्रित है. यह उपन्यास 1984 में प्रकाशित हुआ था. तीन दशक बाद इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है. इस उपन्यास में एक ज्वलंत सवाल उठाया गया है कि क्या पुरुष पर आश्रित रहना ही नारी जीवन का यथार्थ है? पुरुष उसका अन्नदाता है, क्या सिर्फ़ इसीलिए उसे अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ नहीं है? उपन्यास में इस सवाल का जवाब भी दिया गया है कि नारी जीवन का यथार्थ उसका अपना स्वाभिमान और स्वावलंबन है. उपन्यास की नायिका अनुका यानी अनु एक छोटे से क़स्बे की लड़की है. पढ़ाई के दौरान ही अमेरिका में रहने वाले एक डाक्टर प्रणव से उसका विवाह हो जाता है. पति उसे हर सुख-सुविधा का सामान देता है, जिसके कारण वह हमेशा अपने भाग्य को सराहती है और पति के प्रति नतमस्तक रहती है. वह ख़ुद को पति के अनुरूप ढालने की कोशिश करती है. उसके लिए उसका पति और उसका घर ही उसकी दुनिया है. पति और घर के अलावा किसी और चीज़ के बारे में वह कभी सोचती तक नहीं है. जो ज़िम्मेदारी प्रणव ने उसे पकड़ाई थी, जो भूमिका दी गई थी, वह निभा रही थी. खाना बनाना, घर साफ़-सुथरा रखना,
प्रणव की पोज़िशन के अनुसार कपड़े पहनना, पार्टियों में चुपचाप मुस्कराते रहना. पहले यह सब उसे बहुत अच्छा लगता था, मगर जल्द ही वह पुरुष सत्ता की वास्तविकता को समझ जाती है, क्योंकि वक़्त के साथ-साथ प्रणव बदलने लगा. पहले तो वह देर से घर आने लगा और बाद में कई-कई दिन तक शहर से बाहर रहने लगा. इस दौरान अनु ने महसूस किया कि उसे शिफ़ौन की जगह रेशम अच्छा लगता है. नारंगी और पीले रंग की जगह बैंगनी और हरे रंग. फूल पत्ती के छापे की जगह ज्यामिति रेखाएं. लेकिन वह तो हमेशा ही पति की पसंद के अनुसार कपड़े पहनती आई है. प्रणव ने कभी उसकी पसंद-नापसंद जानने की कोशिश ही नहीं की. वह अपने लिए ऐसी पत्नी चाहता था, जिसकी अपनी कोई इच्छा न हो, वह बस एक यंत्र की तरह प्रणव के कहने पर उसके आदेश का पालन करती रहे. अनु के रूप में उसे ऐसी पत्नी मिल भी गई, लेकिन जल्द ही प्रणव का उससे मन भर गया. अब उसे कामकाजी पत्नी चाहिए थी, जो उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सके.
बहरहाल, एक दिन अनु को ज्योतसना बेन से पता चलता है कि प्रणव शिकागो में एक महिला के साथ रहता है. शादी से पहले भी कई महिलाओं के साथ उसके संबंध रह चुके हैं और शादी के बाद भी वह अनेक महिलाओं के साथ संबंध बनाए हुए है. यानी वह शादी के बाद भी नहीं सुधरा. यह सब जानकर अनु बुरी तरह टूट जाती है. उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है. इसलिए कुछ वक़्त तक उसे पागलख़ाने में भी रहना पड़ा. मानसिक स्थिति ठीक होने पर वह घर लौट आती है. वह प्रणव से इस बारे में बात करना चाहती है, तो वह उससे साफ़-साफ़ कह देता है कि वह अब उसके साथ और नहीं रह सकता. इसलिए बेहतर है कि दोनों अपने-अपने रास्ते चुन लें. वह प्रणव को मनाने की बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह नहीं मानता. आख़िरकार दोनों अलग हो जाते हैं. अनु की दुनिया उजड़ जाती है. उसे अपने चारों तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आता है. उसे कहीं कोई अपना नज़र नहीं आता. वह अपने ननिहाल लौटना नहीं चाहती, क्योंकि वह जानती है कि समाज उसे चैन से जीने नहें देगा. उसे बहुत-सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. लेकिन वह हार नहीं मानती और डाक्टरी की पढ़ाई शुरू कर देती है. वह अपनी सहेली दिव्या के भाई दीपांकर से विवाह कर लेती है. दीपांकर भी डाक्टर है, लेकिन वह प्रणव जैसा नहीं है. वह डाक्टर बन जाती है. उसकी एक बेटी होती है. अब उसका अपना भरा पूरा परिवार है. दीपांकर के साथ वह स्वावलंबन का जीवन जीती है.
बेशक, महिला जब तब तक ही कमज़ोर है, जब तक वह ख़ुद को कमज़ोर समझती है. अगर वह हिम्मत के साथ हालात का सामना करे, तो यक़ीनन जीत उसी की होगी. यह उपन्यास नारी-विमर्श की बहस के दौरान उठाए जाने वाले सवालों के जवाब देता नज़र आता है.
समीक्ष्य कृति : शेष यात्रा
लेखिका : उषा प्रियम्वदा
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
दुनिया भर में महिलाओं को दोयम दर्जे पर रखा गया है. जन्म से लेकर मौत तक महिला कभी पिता पर, कभी पति पर और कभी अपने पुत्र पर निर्भर रही है. इसी निर्भरता की वजह से पुरुषों की नज़र में महिलाएं अबला और भोग्या बनकर रह गईं. लेकिन इतिहास गवाह है कि शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाओं ने पुरुषों के वर्चस्व से निकलकर ख़ुद अपनी अलग पहचान बनाई है. उषा प्रियंवदा का चर्चित उपन्यास शेष यात्रा भी एक ऐसी ही महिला की कहानी है, जो पति पर आश्रित है. यह उपन्यास 1984 में प्रकाशित हुआ था. तीन दशक बाद इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है. इस उपन्यास में एक ज्वलंत सवाल उठाया गया है कि क्या पुरुष पर आश्रित रहना ही नारी जीवन का यथार्थ है? पुरुष उसका अन्नदाता है, क्या सिर्फ़ इसीलिए उसे अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ नहीं है? उपन्यास में इस सवाल का जवाब भी दिया गया है कि नारी जीवन का यथार्थ उसका अपना स्वाभिमान और स्वावलंबन है. उपन्यास की नायिका अनुका यानी अनु एक छोटे से क़स्बे की लड़की है. पढ़ाई के दौरान ही अमेरिका में रहने वाले एक डाक्टर प्रणव से उसका विवाह हो जाता है. पति उसे हर सुख-सुविधा का सामान देता है, जिसके कारण वह हमेशा अपने भाग्य को सराहती है और पति के प्रति नतमस्तक रहती है. वह ख़ुद को पति के अनुरूप ढालने की कोशिश करती है. उसके लिए उसका पति और उसका घर ही उसकी दुनिया है. पति और घर के अलावा किसी और चीज़ के बारे में वह कभी सोचती तक नहीं है. जो ज़िम्मेदारी प्रणव ने उसे पकड़ाई थी, जो भूमिका दी गई थी, वह निभा रही थी. खाना बनाना, घर साफ़-सुथरा रखना,
प्रणव की पोज़िशन के अनुसार कपड़े पहनना, पार्टियों में चुपचाप मुस्कराते रहना. पहले यह सब उसे बहुत अच्छा लगता था, मगर जल्द ही वह पुरुष सत्ता की वास्तविकता को समझ जाती है, क्योंकि वक़्त के साथ-साथ प्रणव बदलने लगा. पहले तो वह देर से घर आने लगा और बाद में कई-कई दिन तक शहर से बाहर रहने लगा. इस दौरान अनु ने महसूस किया कि उसे शिफ़ौन की जगह रेशम अच्छा लगता है. नारंगी और पीले रंग की जगह बैंगनी और हरे रंग. फूल पत्ती के छापे की जगह ज्यामिति रेखाएं. लेकिन वह तो हमेशा ही पति की पसंद के अनुसार कपड़े पहनती आई है. प्रणव ने कभी उसकी पसंद-नापसंद जानने की कोशिश ही नहीं की. वह अपने लिए ऐसी पत्नी चाहता था, जिसकी अपनी कोई इच्छा न हो, वह बस एक यंत्र की तरह प्रणव के कहने पर उसके आदेश का पालन करती रहे. अनु के रूप में उसे ऐसी पत्नी मिल भी गई, लेकिन जल्द ही प्रणव का उससे मन भर गया. अब उसे कामकाजी पत्नी चाहिए थी, जो उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सके.
बहरहाल, एक दिन अनु को ज्योतसना बेन से पता चलता है कि प्रणव शिकागो में एक महिला के साथ रहता है. शादी से पहले भी कई महिलाओं के साथ उसके संबंध रह चुके हैं और शादी के बाद भी वह अनेक महिलाओं के साथ संबंध बनाए हुए है. यानी वह शादी के बाद भी नहीं सुधरा. यह सब जानकर अनु बुरी तरह टूट जाती है. उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है. इसलिए कुछ वक़्त तक उसे पागलख़ाने में भी रहना पड़ा. मानसिक स्थिति ठीक होने पर वह घर लौट आती है. वह प्रणव से इस बारे में बात करना चाहती है, तो वह उससे साफ़-साफ़ कह देता है कि वह अब उसके साथ और नहीं रह सकता. इसलिए बेहतर है कि दोनों अपने-अपने रास्ते चुन लें. वह प्रणव को मनाने की बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह नहीं मानता. आख़िरकार दोनों अलग हो जाते हैं. अनु की दुनिया उजड़ जाती है. उसे अपने चारों तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आता है. उसे कहीं कोई अपना नज़र नहीं आता. वह अपने ननिहाल लौटना नहीं चाहती, क्योंकि वह जानती है कि समाज उसे चैन से जीने नहें देगा. उसे बहुत-सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. लेकिन वह हार नहीं मानती और डाक्टरी की पढ़ाई शुरू कर देती है. वह अपनी सहेली दिव्या के भाई दीपांकर से विवाह कर लेती है. दीपांकर भी डाक्टर है, लेकिन वह प्रणव जैसा नहीं है. वह डाक्टर बन जाती है. उसकी एक बेटी होती है. अब उसका अपना भरा पूरा परिवार है. दीपांकर के साथ वह स्वावलंबन का जीवन जीती है.
बेशक, महिला जब तब तक ही कमज़ोर है, जब तक वह ख़ुद को कमज़ोर समझती है. अगर वह हिम्मत के साथ हालात का सामना करे, तो यक़ीनन जीत उसी की होगी. यह उपन्यास नारी-विमर्श की बहस के दौरान उठाए जाने वाले सवालों के जवाब देता नज़र आता है.
समीक्ष्य कृति : शेष यात्रा
लेखिका : उषा प्रियम्वदा
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
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