आख़िरी लम्हे

मेरे महबूब !
मैं अकसर ज़िन्दगी के उन आख़िरी लम्हों के बारे में सोचा करती हूं, जब मौत सिरहाने ख़ड़ी होगी... सांसें थम रही होंगी... धड़कनें भी धीमी हो जाएंगी... ख़ून रगों में जमने लगेगा और जिस्म ठंडा पड़ना शुरू हो जाएगा...
उस वक़्त मैं किस हाल में रहूंगी... तुम्हें लेकर क्या कुछ दिलो-दिमाग़ में चल रहा होगा... क्या उस वक़्त तुम मेरे क़रीब रहोगे... मेरा हाथ अपने हाथ में थामे... तुम्हारी निगाहें मुझसे क्या कुछ कह रही होंगी...

या मेरी निगाहें तुम्हें ढूंढ रही होंगी... आख़िर तुम्हें पाने के लिए मुझे कितने जनम लेने होंगे... जन्म-जन्मांतर मेरे वजूद पर सिर्फ़ तुम्हारा ही हक़ रहेगा...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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