कुछ चेहरे

कुछ चेहरे ऐसे हुआ करते हैं, जिन्हें देखकर इंसान ख़ुद को भूल जाता है... हवासों पर बेख़ुदी तारी हो जाती है... दिल सजदे में झुक जाता है... शायद यही लम्हे हुआ करते हैं, जब बंदा अपने ख़ुदा के और भी क़रीब हो जाता है...
इंदीवर साहब ने क्या ख़ूब लिखा है-
अपना रूप दिखाने को तेरे रूप मे खुद ईश्वर होगा...
तुझे देख कर जग वाले पर यक़ीन नहीं क्यूं कर होगा
जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा...
(Firdaus Diary)
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तेरी एक भी सांस किसी और सांस में समाई तो...

कुछ अरसा पहले पंजाबी की एक नज़्म पढ़ी थी... जिसका एक-एक लफ़्ज़ दिल की गहराइयों में उतर गया... पेश है नज़्म का हिन्दी अनुवाद :

तेरी एक भी बूंद
कहीं और बरसी तो
मेरा बसंत
पतझड़ में बदल जाएगा...

तेरी एक भी किरन
किसी और आंख में चमकी तो
मेरी दुनिया
अंधी हो जाएगी...


तेरी एक भी सांस
किसी और सांस में समाई तो
मेरी ज़िन्दगी
तबाह हो जाएगी...

इस नज़्म में लड़की अपने महबूब से सवाल करती है. उसका महबूब उसे क्या जवाब देता है, यह तो हम नहीं जानते... लेकिन इतना ज़रूर है कि हर मुहब्बत करने वाली लड़की का अपने महबूब से शायद यही सवाल होता होगा... और न जाने कितनी ही लड़कियों को अपने महबूब से वो हक हासिल नहीं हो पाता होगा, जिसकी वो तलबगार हैं... और फिर उनकी ज़िन्दगी में बहार का मौसम शबाब पर आने से पहले ही पतझड़ मे बदल जाता है. मुहब्बत के जज़्बे से सराबोर उनकी दुनिया जुदाई के रंज से स्याह हो जाती है और उनकी ज़िन्दगी हमेशा के लिए तबाह हो जाती है...और यही दर्द लफ़्जों का रूप धारण करके गीत, नज़्म या ग़ज़ल बन जाता है..
कास्पियन सागर के पास काकेशिया के पर्वतों की उंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के पहाड़ी गांव में जन्मे मशहूर लोक-कवि रसूल हमज़ातोव भी कहते हैं गीतों का जन्म दिल में होता है. फिर दिल उन्हें ज़बान तक पहुंचाता है. उसके बाद ज़बान उन्हें सब लोगों के दिल तक पहुंचा देती है और सारे लोगों के दिल वो गीत आने वाली सदियों को सौंप देते हैं.

-फ़िरदौस ख़ान
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दुआएं...


दुआएं...
मायूसियों के अंधेरे में
उम्मीद की किरनें हैं...
मुश्किलों की धूप में
घने दरख़्त का साया हैं...
दुआएं...
जो हमेशा साथ रहती हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
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दलित गणतंत्र एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़

फ़िरदौस ख़ान 
मीडिया स्टडीज़ ग्रुप द्वारा प्रकाशित पुस्तक दलित गणतंत्र लेखों का संग्रह है. इसके तमाम लेख दलित समाज से जुड़े कई ज्वलंत मुद्दों पर रौशनी डालते हैं. मीडिया स्टडीज़ ग्रुप के चेयरमैन अनिल चमड़िया ने अपने लेख वर्चस्व के ढांचे की पहचान में पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद की विचारधारा को समझाने का प्रयास किया है. लेखक का कहना है कि ब्राह्मणवाद एक जाति नहीं है. यह एक विचार है और उस पर आधारित एक व्यवस्था है. जैसे ही हम कहते हैं कि वह एक व्यवस्था है, तो व्यवस्था का अर्थ यह होता है कि उसके हर हिस्से को उसी विचारधारा के आधार पर निर्मित किया गया है. लेकिन आमतौर पर यह देखा जाता है और ब्राह्मणवाद को ब्राह्मण के पर्याय के रूप में पेश किया जाता है और ब्राह्मणवाद के पूरे ढांचे को मज़बूत करने की कोशिश होती है. ब्राह्मणवाद के विरोध का मतलब ब्राह्मणवाद नहीं हो सकता. जाति विरोधी आंदोलन यदि जाति की पहचान को स्थापित करने की लड़ाई में बदल जाते हैं, तो वह ब्राह्मणवाद के ही हित में होते हैं. वह अपने दूसरे लेख भारतीय मीडिया में दलित आदिवासी प्रतिनिधित्व के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हैं. दलित चिंतक डॊ. आनंद तेलतुम्डे ने अपने लेख अम्बेडकर सिर्फ़ एक राष्ट्रवादी थे, में बताया है कि किस तरह संघ परिवार ने डॊ. अम्बेडकर के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार किया. संघ परिवार का यह चिरपरिचित हथकंडा रहा है कि डॊ. अम्बेडकर को एक महान राष्ट्रवादी के तौर पर प्रस्तुत किया जाए. दरअसल, यह उनके बदले हुए रुख़ का परिचायक है. कुछ समय पहले तक छद्म बुद्धिजीवियों के ज़रिये उनकी तरफ़ से यह दुष्प्रचार चलाया जा रहा था कि डॊ. अम्बेडकर ब्रिटिश साम्राज्य के दलाल रहे हैं और भारत की आज़ादी के संघर्ष का उन्होंने लगातार विरोध किया. डॊ. अम्बेडकर को बदनाम करने की उनकी यह मुहिम ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी, क्योंकि तब तक वह दलितों के नायक बन चुके थे. डॊ. भीमराव अम्बेडकर के लेख क्या हिंदू धर्म बंधुत्व को मान्यता प्रदान करता है, में हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था और छुआछूत पर प्रकाश डाला गया है. डॊ. भीमराव अम्बेडकर के अनुसार जाति व्यवस्था की क्रमिक बनावट एक विशेष तरह की सामाजिक मानसिकता बनने और बनाने के लिए ज़िम्मेदार है, जिस पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए. प्रथम, इसके कारण विभिन्न जातियों के बीच एक-दूसरे के लिए द्वेष और घृणा की भावना पनपती है. इस द्वेष तथा घृणा की भावना ने न केवल कहावतों में ही स्थान प्राप्त नहीं किया, बल्कि उसे हिंदू साहित्य में भी स्थान मिला है. केवी रमन्ना अपने लेख ऐसे बनती गई जातियां, में जातियों के निर्माण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं. उनके अनुसार पुरुष-सूक्त से ही वर्णाक्रम एक पुरातन अतीत की तरह जाना जाता है. मैत्रीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण, कौस्तुभ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण और बादरायण उपनिषदों से लेकर महाभारत के शांति-पर्व तक चार स्तरीय वर्ग-वर्ण विभाजन ईश्वरीय द्वारा निर्मित बताए गए हैं. यहां तक कि चारों वर्णों के देवताओं तक का निर्धारण कर दिया गया. ब्राह्मणों के लिए अग्नि और बृहस्पति, क्षत्रियों के लिए वरुण, सोम और यम, वैश्यों के लिए देवता वसु, रुद्र, विश्वदेव और मरुत तथा शूद्रों के लिए पूषान देवता का निर्धारण किया गया था. मनुष्य की आर्थिक-सामाजिक स्थिति का निर्धारण स्वर्ग में हो जाता है. चंद्रभान प्रसाद अपने लेख में मेरिट की हिस्ट्री के बारे में जानकारी देते हैं कि किस तरह थर्ड डिविज़न की मांग करते हुए ब्राह्मण समाज का तर्क था कि ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली भारत के लिए एकदम नई है, इसलिए इसे अपनाने और समझने में कुछ वक़्त लगेगा. दरअसल, जब ब्रिटिश शासन ने भारत में मॊडर्न एजुकेशन की शुरुआत की, तो सिर्फ़ फ़स्ट और सैकेंड दो डिविज़न होती थीं. तब न्यूनतम अंक 40 प्रतिशत होते थे. तब न तो थर्ड डिविज़न थी और न ही 33 प्रतिशत की सुविधा. मधु लिमये अपने लेख आरक्षण विरोधी दंगे कौन उकसा रहा है, में कहते हैं कि आरक्षण-विरोधियों के प्रवक्ता नाटकबाज़ी कर रहे हैं कि उन्हें व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपना आंदोलन चलाने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. यह बिल्कुल झूठ है. वास्तव में सारी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था न केवल आरक्षण-विरोधी युवकों का समर्थन कर रही है, बल्कि उन्हें उकसा भी रही है. इसमें समाचार-पत्रों की भूमिका अग्रणी है, जिन पर धनी वर्गों का नियंत्रण है और जिन्हें चलाने वाले उच्च जातियों के प्रतिनिधि हैं. किताब में आरक्षण के इतिहास पर भी महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है. इसके साथ ही कृश्न चंदर की कहानी कालू भंगी और डॊ. सपना चमड़िया की कविता रैदास का आत्मविश्वास भी इसे ख़ास बनाती है.

समीक्ष्य कृति : दलित गणतंत्र
प्रकाशक : मीडिया स्टडीज़ ग्रुप
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सुनने की फुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में

फ़िरदौस ख़ान
ये कहानी है दिल्ली के ’शहज़ादे’ और हिसार की ’शहज़ादी’ की. उनकी मुहब्बत की. गूजरी महल की तामीर का तसव्वुर सुलतान फ़िरोज़शाह तुगलक़ ने अपनी महबूबा के रहने के लिए किया था...शायद यह किसी भी महबूब का अपनी महबूबा को परिस्तान में बसाने का ख़्वाब ही हो सकता था और जब गूहरी महल की तामीर की गई होगी...तब इसकी बनावट, इसकी नक्क़ाशी और इसकी ख़ूबसूरती को देखकर ख़ुद भी इस पर मोहित हुए बिना न रह सका होगा...

हरियाणा के हिसार क़िले में स्थित गूजरी महल आज भी सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की अमर प्रेमकथा की गवाही दे रहा है. गूजरी महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है. ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में 1631 में बनवाना शुरू किया था, जो 22 साल बाद बनकर तैयार हो सका. हिसार का गूजरी महल 1354 में फ़िरोज़शाह तुग़लक ने अपनी प्रेमिका गूजरी के प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया. गूजरी महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है. इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था. ताज एक मक़बरा है, जबकि गूजरी महल फ़िरोज़शाह तुग़लक ने गूजरी के रहने के लिए बनवाया था, जो महल ही है.

गूजरी महल की स्थापना के लिए बादशाह फ़िरोज़शाह तुग़लक ने क़िला बनवाया. यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया. क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गूजरी महल मौजूद हैं. दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फ़िरोज़शाह तुग़लक का महल बताई जाती है. इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है. फ़िरोज़शाह तुग़लक के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है. अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था. गूजरी महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी.

सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है. हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते. यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है. फ़िरोज़शाह तुग़लक दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फ़िरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे. शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे. उस वक्त यहां गूजर जाति के लोग रहते थे. दुधारू पशु पालन ही उनका मुख्य व्यवसाय था. उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी. चारों तरफ़ घना जंगल था. गूजरों की कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था. आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी. इस डेरे पर एक गूजरी दूध देने आती थी. डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे. डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था.

एक दिन शहज़ादा फ़िरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा. उसने गूजर कन्या को डेरे से बाहर निकलते देखा तो उस पर मोहित हो गया. गूजर कन्या भी शहज़ादा फ़िरोज़ से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. अब तो फ़िरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया. फिरोज़ ने गूजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा तो उस गूजर कन्या ने विवाह की मंजरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती. फ़िरोज़ ने गूजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा.

1309 में दयालपुल में जन्मा फ़िरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना. फ़िरोज़ की मां हिन्दू थी और पिता तुर्क मुसलमान था. सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया. उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, किलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की. उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए. उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे.

दिल्ली का सम्राट बनते ही फ़िरोज़शाह तुग़लक ने महल हिसार इलांके में महल बनवाने की योजना बनाई. महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों. यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया. बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी. दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी. तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था.

किवदंती है कि गूजरी दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई. दिल्ली के कोटला फिरोज़शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गूजरी रानी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं. तभी हिसार के गूजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है.

क़ाबिले-गौर है कि हिसार को फ़िरोज़शाह तुग़लक के वक्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फिरोज़ा नामक क़िला बनवाया था. 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'. इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था. अब गूजरी महल खंडहर हो चुका है. इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-
सुनने की फुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियां बोलती हैं...

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कुछ यादें...

नज़्म
कुछ यादें
उन हसीं लम्हों की
अमानत होती हैं
जब ज़मीन पर
चांदनी की चादर बिछ जाती है
फूल अपनी-अपनी भीनी-भीनी महक से
फ़िज़ा को रूमानी कर देते हैं
हर सिम्त मुहब्बत का मौसम
अंगड़ाइयां लेने लगता है
पलकें
सुरूर से बोझल हो जाती हैं
और
दिल चाहता है
ये वक़्त यहीं ठहर जाए
एक पल में
कई सदियां गुज़र जाएं...
-फ़िरदौस ख़ान
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लोहड़ी, जो रस्म ही रह गई...

फ़िरदौस ख़ान
तीज-त्यौहार हमारी तहज़ीब और रवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. ये ख़ुशियों के ख़ज़ाने भी हैं. ये हमें ख़ुशी के मौक़े देते हैं. ख़ुश होने के बहाने देते हैं. ये लोक जीवन का एक अहम हिस्सा हैं. इनसे किसी भी देश और समाज की संस्कृति व सभ्यता का पता चलता है. मगर बदलते वक़्त के साथ तीज-त्यौहार भी पीछे छूट रहे हैं. कुछ दशकों पहले तक जो त्यौहार बहुत ही धूमधाम के साथ मनाए जाते थे, अब वे महज़ रस्म अदायगी तक ही सिमट कर रह गए हैं. इन्हीं में से एक त्यौहार है लोहड़ी.
लोहड़ी उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा और पंजाब का एक प्रसिद्ध त्यौहार है. लोहड़ी के की शाम को लोग सामूहिक रूप से आग जलाकर उसकी पूजा करते हैं. महिलाएं आग के चारों और चक्कर काट-काटकर लोकगीत गाती हैं. लोहड़ी का एक विशेष गीत है. जिसके बारे में कहा जाता है कि एक मुस्लिम फ़कीर था. उसने एक हिन्दू अनाथ लड़की को पाला था. फिर जब वो जवान हुई तो उस फ़क़ीर ने उस लड़की की शादी के लिए घूम-घूम के पैसे इकट्ठे किए और फिर धूमधाम से उसका विवाह किया. इस त्यौहार से जुड़ी और भी कई किवदंतियां हैं. कहा जाता है कि सम्राट अकबर के जमाने में लाहौर से उत्तर की ओर पंजाब के इलाकों में दुल्ला भट्टी नामक एक दस्यु या डाकू हुआ था, जो धनी ज़मींदारों को लूटकर ग़रीबों की मदद करता था.
जो भी हो, लेकिन इस गीत का नाता एक लड़की से ज़रूर है. यह गीत आज भी लोहड़ी के मौक़े पर खूब गया जाता है.
लोहड़ी का गीत
सुंदर मुंदरीए होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
दुल्ले धी ब्याही होए
सेर शक्कर पाई होए
कुड़ी दे लेखे लाई होए
घर घर पवे बधाई होए
कुड़ी दा लाल पटाका होए
कुड़ी दा शालू पाटा होए
शालू कौन समेटे होए
अल्ला भट्टी भेजे होए
चाचे चूरी कुट्टी होए
ज़िमींदारां लुट्टी होए
दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए
ज़िमींदारां सदाए होए
विच्च पंचायत बिठाए होए
जिन जिन पोले लाई होए
सी इक पोला रह गया
सिपाही फड़ के ले गया
आखो मुंडेयो टाणा टाणा
मकई दा दाणा दाणा
फकीर दी झोली पाणा पाणा
असां थाणे नहीं जाणा जाणा
सिपाही बड्डी खाणा खाणा
अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा
यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा
लोहड़ी दियां सबनां नूं बधाइयां...
यह गीत आज भी प्रासंगिक हो, जो मानवता का संदेश देता है.
एक अन्य किवदंती के मुताबिक़ क़रीब ढाई हज़ार साल पहले पूर्व पंजाब के एक छोटे से उत्तरी भाग पर एक लोहड़ी नाम के राजा-गण का राज्य था. उसके दो बेटे थे, जो वे हमेशा आपस में लड़ते और इसी तरह मारे गए. राजा बेटों के वियोग में दुखी रहने लगा. इसी हताशा में उसने अपने राज्य में कोई भी ख़ुशी न मनाए की घोषणा कर दी. प्रजा राजा से दुखी थी. राजा के अत्याचार दिनों-दिन बढ़ रहे थे. आखिर तंग आकर जनता ने राजा हो हटाने का फैसला कर लिया. राजा के बड़ी सेना होने के बावजूद जनता ने एक योजना के तहत राजा को पकड़ लिया और एक सूखे पेड़ से बांधकर उसे जला दिया. इस तरह अत्याचारी राजा मारा गया और जनता के दुखों का भी अंत हो गया. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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किताबे-इश्क़ की पाक आयतें...


मेरे महबूब
मुझे आज भी याद हैं
वो लम्हे
जब तुमने कहा था-
तुम्हारी नज़्में
महज़ नज़्में नहीं हैं
ये तो किताबे-इश्क़ की
पाक आयतें हैं...
जिन्हें मैंने हिफ़्ज़ कर लिया है...
और
मैं सोचने लगी-
मेरे लिए तो
तुम्हारा हर लफ़्ज़ ही
कलामे-इलाही की मानिंद है
जिसे मैं कलमे की तरह
हमेशा पढ़ते रहना चाहती हूं...
-फ़िरदौस ख़ान




शब्दार्थ हिफ़्ज़ - याद करना
*तस्वीर गूगल से साभार
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दीदार...

तारीख़ 8 जनवरी 2017... इस्लामी हिजरी 1437, 9 रबीउल आख़िर,
दिन इतवार... वक़्त इशराक़... जगह दिल्ली...

हमारी एक रूहानी नज़्म
दीदार...
मेरे मौला !
न तू मुझसे ग़ाफ़िल
न मैं तुझसे ग़ाफ़िल
न तू मुझसे जुदा
न मैं तुझसे जुदा
तू मुझ में है
और मैं तुझ में...
दरमियां हमारे
कोई पर्दा न रहा
मैंने
कायनात के हर ज़र्रे में
तेरा दीदार किया है...
-फ़िरदौस ख़ान


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इंतज़ार

इंतज़ार के लम्हे कितने अज़ाब हुआ करते हैं... एक-एक लम्हा सदियों सा गुज़रता है... लगता है कि वक़्त कहीं ठहर गया है... आंखें सिर्फ़ उन्हें ही देखना चाहती हैं, कान उनकी दिलकश आवाज़ सुनने को तरसते रहते हैं... हवा का शोख़ झोंका उनके लम्स का अहसास बनकर रूह की गहराइयों में उतर जाता है... और फिर सारा वजूद कांप उठता है...
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नजूमी...


कुछ अरसे पहले की बात है... हमें एक नजूमी मिला,  जिसकी बातों में सहर था... उसके बात करने का अंदाज़ बहुत दिलकश था... कुछ ऐसा कि कोई परेशान हाल शख़्स उससे बात करे, तो अपनी परेशानी भूल जाए... उसकी बातों के सहर से ख़ुद को जुदा करना मुश्किल था...
उसने हमसे बात की... कुछ कहा, कुछ सुना... यानी सुना कम और कहा ज़्यादा... क्योंकि वह सामने वाले को बोलने का मौक़ा ही नहीं देता था... और सुनने वाला भी बस उसे सुनता ही रह जाए...
उसके बात करने का अंदाज़ कुछ ऐसा होता था कि इंसान चांद की तमन्ना करे, तो वो उसे अहसास करा दे कि चांद ख़ुद उसके आंचल में आकर सिमट जाए...
चांद तो आसमान की अमानत है, भला वह ज़मीन पर कैसे आ सकता है... ये बात सुनने वाला भी जानता है और कहने वाला भी...
लेकिन चांद को अपने आंचल में समेट लेना का कुछ पल का अहसास इंसान को वो ख़ुशी दे जाता है, जिसे लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता... चांद को पाने के ये लम्हे और इन लम्हों के अहसास की शिद्दत रूह की गहराइयों में उतर जाती है...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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रूह परदेस में

मेरे महबूब !
जिस्म देस में है
और
रूह परदेस में...
-फ़िरदौस ख़ान

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