छत और बारिश


फ़िरदौस ख़ान
पिछले साल सर्दियों की बात है... हमारे मायके में दूसरी मंज़िल बनाई गई... जगह काफ़ी बड़ी थी... दीवारें बनकर तैयार हो चुकी थीं... जिस दिन काम पूरा हुआ, उसी दिन शाम को बारिश शुरू हो गई... सब बहुत परेशान थे... सीमेंट बह जाने का डर, ऐसे में तो दीवारें गिर जाएंगी... तभी जल्दी-जल्दी सबने मिलकर दीवारों पर प्लास्टिक की शीटें, पन्नी और सीमेंट के ख़ाली कट्टे डालने शुरू कर दिए... सभी दुआ मांग रहे कि बारिश रुक जाए... अल्लाह के करम से बारिश रुक गई...

कुछ दिन बाद लैंटर डला... लेबर के जाते ही थोड़ी देर बाद फिर बूंदाबांदी शुरू हो गई... अब क्या हो... सब फिर परेशान... दुआ मांगने लगे कि बारिश रुक जाए, वरना छत ख़राब हो जाएगी... थोड़े देर बाद बारिश रुक गई... सबने अल्लाह का शुक्र अदा किया और राहत की सांस ली...  हालांकि अगले दिन शाम को फिर हल्की बारिश हुई, लेकिन अब ख़तरा नहीं था...

कुछ दिन बाद हमारी गली में दस-बारह घर छोड़ कर किसी ने छत पर कमरा बनवाया... शायद पंडितों का घर था... वहां सब इसी तरह बोलते हैं, यानी इसका घर, उसका घर, ख़ैर...
हमने छत से देखा, लैंटर डल रहा था... उसी दिन शाम को फिर बारिश शुरू हो गई... हर रोज़ का यही मामूल बन गया था... जब देखो बूंदा-बंदी... हमने अम्मी से कहा कि आज ही पड़ौस में लैंटर डला है और बारिश होने लगी... अम्मी दुआ करने लगी कि बारिश रुक जाए, वरना उनकी छत ख़राब हो जाएगी...
अम्मी को इस तरह दुआ मांगते देखकर बहुत अच्छा लगा... दूसरों के लिए भी इतनी फ़िक्र करने वाले भला कितने लोग होते होंगे... भले ही कम हों, लेकिन हैं तो सही... नेक लोगों की वजह से ही अभी तक दुनिया क़ायम है... जिस दिन नेकी ख़्त्म हो जाएगी, दुनिया भी नेस्तनाबूद हो जाएगी...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

तस्वीर गूगल से साभार
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