दोस्तियां...
कुछ लोग सिर्फ़ सोशल साइट्स तक ही महदूद हुआ करते हैं, सोशल साइट्स पर आए, तो दुआ-सलाम हो गया, वरना तुम अपने घर और हम अपने घर. कुछ लोग कारोबार यानी दफ़्तर तक की महदूद होते हैं. आमना-सामना हुआ, तो हाय-हैलो हो गई. कुछ लोग सोशल फ़ील्ड तक ही महदूद रहा करते हैं.
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो मेहमानों की तरह घर पर भी आ जाते है, और मेहमान नवाज़ी के बाद रुख़्सत हो जाते हैं. इन सबके बीच कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो हमारे बावर्चीख़ाने तक आते हैं. यक़ीन मानिये, जो दोस्तियां या रिश्ते घर के बावर्चीख़ाने तक पहुंच जाते हैंहैं, वह ताउम्र के हो जाते हैं.
हमारी बचपन से एक आदत रही है. स्कूल से कॊलेज और कॊलेज से दफ़्तर तक जिन लोगों से हमारी आशनाई रही है, उनसे हमने घर तक का रिश्ता रखा. यानी हमारे घरवाले उन सभी लोगों को जानते हैं, और उन लोगों के घरवाले भी हमसे वाक़िफ़ हैं. ये हमने अपने परिवार से ही सीखा. पापा के दोस्तों के घरवाले और हमारी अम्मी की सहेलियों के घरवालों का हमारे घर आना-जाना रहता था. हमने भी ऐसा ही किया. त्यौहारों पर अपनी सहेलियों, अपने दफ़्तर के सहकर्मियों को घर पर बुलाना. उनके घर जाना. इस तरह सब हमारे पारिवारिक दोस्त होकर रहे. फ़ेसबुक पर ऐसे कई लोग हैं, जो हमारे पारिवारिक मित्र हैं. अगर हमारा फ़ोन ना मिले, तो वे हमारे घर के नंबर पर फ़ोन कर लेते हैं. फ़ेसबुक पर एक ऐसे पारिवारिक मित्र भी हैं, जिन्हें हम अपनी दूसरी मां कहते हैं. क्योंकि वो हमारी इतनी ही फ़िक्र करते हैं, जितनी कोई मां अपने बच्चे की करती है.
कई साल पहली की बात है. हमारे एक आशनाई अपनी बहन के साथ घर आए. हमारी तबीयत ठीक नहीं थी. वह बोले कि भूख लग रही है. हमने कहा कि आज हमने खाना नहीं पकाया. आप शिबली से पकवा लें. कहने लगे कि अब हंस कर पकाओ या रोकर, पर खाना तुम्हारे हाथ का ही खाऊंगा. इसलिए उठो, और कुछ पका लो.
हमने मन न होते हुए भी बिरयानी पकाकर दी. उनकी बहन भी कम नहीं थी. छुट्टी के दिन आ जाती और कहती कि आज कुछ नई चीज़ खाने का मन है. चलो, कुछ पकाकर खिलाओ. हम नये-नये पकवान बनाते. कभी कोई मुग़लई पकवान बनाते, तो कभी दक्षिणी भारयीय व्यंजन. वह खाकर कहती, किसी होटल में शेफ़ थी क्या 🙂
हम मूवी देखते. कॊल्ड ड्रिंक्स पीते. बहुत अच्छा वक़्त बीतता.
जिस दिन उनकी अम्मी बिरयानी बनातीं, अल सुबह ही हमारे पास कॊल आ जाती कि शाम को घर पर बिरयानी पक रही है. इसलिए दफ़्तर से सीधा घर आ जाना. और दिन भर न जाने कितनी कॊल्स आतीं.
हमने घर तक का रिश्ता रखा, इसलिए स्कूल के दिनों तक की दोस्तियां आज भी क़ायम हैं. रिश्तों में उतनी ही शिद्दत और ताज़गी है, जितनी शुरू में हुआ करती है.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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