मंज़िल की चाह में...


इंसान के भटकने का सफ़र शायद कभी ख़त्म नहीं हुआ करता... बरसों पहले इसी भटकाव पर एक नज़्म लिखी थी... 

नज़्म
मंज़िल की चाह में...

मैं
एक मुसाफ़िर थी
तपते रेगिस्तान की
बरहना सर पर
सूरज की दहकती धूप
पांव तले
सुलगते रेत के ज़र्रे
होठों पर
बरसों की प्यास
आंखों में अनदेखे सपने
दिल में अनछुआ अहसास...

मैं चली जा रही थी
ख़ुद से बेज़ार-सी
एक ऐसी मंज़िल की चाह में
जहां
मुहब्बत क़याम करती हो
अहसास का समंदर
हिलोरें लेता हो
बरसों की तिश्नगी को
बुझाने वाला
सावन बरसता हो...

तभी
तुम मुझे मिले
एक घने दरख़्त की तरह
मेरे बरहना सर को
तुम्हारे साये का
आंचल मिला
ज़ख़्मी पांव को
मुहब्बत की मेहंदी मिली...

मुझे लगा
जिसकी तलाश में
भटकती रही थी
दर-ब-दर
अब वही मंज़िल
मुझे अपनी आग़ोश में
समेटने के लिए
दोनों बांहें पसारे खड़ी है

दिल ख़ुशी से
झूम उठा
मैं ख़ुद को
संभाल नहीं पाई
और आगे बढ़ गई

तभी
मेरी रूह ने
मुझे बेदार किया
मैंने पाया
तुम वो नहीं थे
जिसके साये में
मैं ताउम्र बिता सकूं
क्यूंकि
तुम तो एक सराब थे
सराब !
हां, एक सराब
और
फिर शुरू हुआ सफ़र
भटकने का
उस मंज़िल की चाह में...
-फ़िरदौस ख़ान

तस्वीर : गूगल से साभार
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