कितना भला लगता है पतझड़ भी कभी-कभी
कितना लुभावना होता है
पतझड़ भी कभी-कभी
बाग़ों में
ज़मीं पे बिखरे
सूखे ज़र्द पत्तों पर
चलना
कितना भला लगता है कभी-कभी
माहौल को रूमानी बनातीं
दरख़्तों की, वीरान शाख़ों पर
चहकते परिन्दों की आवाज़ें
कितनी भली लगती हैं कभी-कभी
क्यारियों में लगे
गेंदे और गुलाब के
खिलते फूलों की
भीनी-भीनी ख़ुशबू
आंगन में कच्ची दीवारों पर, चढ़ती धूप
कितनी भली लगती है, कभी-कभी
सच! पतझड़ का भी
अपना ही रंग
बसंत और बरसात की तरह...
-फ़िरदौस ख़ान
17 सितंबर 2008 को 8:48 am बजे
aap ne to mrityuatma ko apni bani ke dwara ivit kar dia hai.
17 सितंबर 2008 को 12:40 pm बजे
sundar kavita...sundar tasweer.
17 सितंबर 2008 को 2:09 pm बजे
क्यारियों में लगे
गेंदे और गुलाब के
खिलते फूलों की
भीनी-भीनी खुशबू
आंगन में कच्ची दीवारों पर, चढ़ती धूप
कितनी भली लगती है, कभी-कभी
सच! पतझड़ का भी
अपना ही रंग
बसंत और बरसात की तरह...
अब पतझड़ को नए नज़रिए से देखेंगे...बहुत शानदार नज़्म है...आपके अल्फाज़ ने पतझड़ को और भी खूबसूरत बना दिया है...
17 सितंबर 2008 को 4:26 pm बजे
बहुत सुंदर चित्रण किया है आपने ।
18 सितंबर 2008 को 3:24 am बजे
aap ke alfaz ne to patajhar me ek nai jaan dal di hai. Firdaus ji aap ke alfaz to khuda ki di hui ek mahtvapurn tofa hai. khuda hafiz