वो मेरे महबूब हैं
महबूब... महबूब और इश्क़... इश्क़ और इबादत... इबादत और ख़ुदा... आसमान के काग़ज़ पर चांदनी की रौशनाई से महबूब का तअरुफ़ लिखने बैठें, तो कायनात की हर शय छोटी पड़ जाए...
महबूब में ख़ुदा दिखता है... और जिसमें ख़ुदा दिखता है, उसका तअरुफ़ अल्फ़ाज़ में भला कोई कैसे कराए... अहसासात, जज़्बात... हरुफ़ की दुनिया से परे हैं... क्या कोई खिली धूप को बांध पाया है, क्या कोई चांदनी को पकड़ पाया है... नहीं... क़तई नहीं...
फिर भी हमने कोशिश की है, उनका तअरुफ़ लिखने की... मुलाहिज़ा फ़रमाएं..
मेरे महबूब !
तुम्हारा चेहरा
मेरा क़ुरान है
जिसे मैं
अज़ल से अबद तक
पढ़ते रहना चाहता हूं…
तुम्हारा ज़िक्र
मेरी नमाज़ है
जिसे मैं
रोज़े-हश्र तक
अदा करते रहना चाहती हूं…
तुम्हारा हर लफ़्ज़
मेरे लिए
कलामे-इलाही की मानिन्द है
तुम्हारी हर बात पर
लब्बैक कहना चाहती हूं...
मेरे महबूब !
तुमसे मिलने की चाह में
दोज़ख़ से भी गुज़र हो तो
गुज़र जाना चाहती हूं…
तुम्हारी परस्तिश ही
मेरी रूह की तस्कीन है
तुम्हारे इश्क़ में
फ़ना होना चाहती हूं…
-फ़िरदौस ख़ान
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