पाश्चात्य काव्य-चिंतन पर एक दस्तावेज़ 


फ़िरदौस ख़ान
कविता का जन्म कब हुआ, इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है. मगर इतना ज़रूर है कि जब से इंसान ने बोलना सीखा और वह अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोने की कला में माहिर हुआ, तभी कविता का जन्म हुआ होगा. दुनिया की हर सभ्यता में काव्य को वह मुक़ाम हासिल है, जिसने इसे आसमान की बुलंदियों तक पहुंचा दिया. यह कहना ग़लत न होगा कि कविता भावनाओं की सबसे उत्कृष्ट कृति है.

प्राचीनकाल से ही हमें काव्य का ज्ञान मिलता है. ऋग्वेद के मंत्र भी काव्य शैली में हैं. भारतीय काव्य शास्त्र की परंपरा बेहद समृद्ध रही है. इसी की तरह पाश्चात्य काव्य-चिंतन की भी एक समृद्ध परंपरा है, जिसके विकास में पाश्चात्य विचारकों और काव्य आंदोलनों की अहम भूमिका रही है. दरअसल, पाश्चात्य काव्य चिंतन के क्षेत्र में कल्पना का वही स्थान है, जो भारतीय काव्यशास्त्र में प्रतिभा का है. प्लेटो ने कल्पना के लिए फैन्टेसिया शब्द का इस्तेमाल किया और एडिसन ने उसे मूर्ति विधान करने वाली शक्ति क़रार दिया.

राधाकृष्ण द्वारा प्रकाशित पुस्तक पाश्चात्य काव्य-चिंतन में लेखक करुणाशंकर उपाध्याय ने पाश्चात्य काव्य पर बारीकी से चिंतन किया है. दरअसल, लेखक ने पाश्चात्य काव्य-चिंतन के विविध आंदोलन विषय पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अध्येतावृत्ति पर शोध किया है. बक़ौल लेखक, पाश्चात्य विचारकों और आलोचकों ने अत्यंत प्राचीन काल और कलाकृतियों में निहित सौंदर्य-तत्व की विभिन्न दृष्टिकोणों से गहराई में जाकर छानबीन की है और काव्य-चिंतन के अनेक शिखर पार किए हैं. पाश्चात्य काव्य चिंतन के इस व्यापक फलक के निर्माण में विविध चिंतन सरणियों, विचारधाराओं, कवि स्वभाव, संस्कारों और देशकाल की परिस्थितियों का भी अहम योगदान रहा है. इस समीक्षा का बीजवपन प्राचीन यूनान और रोम के अंतवर्ती प्रदेशों के उन भूभागों में हुआ, जहां से पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति, कलादर्शन और काव्य मीमांसा, ज्ञान-विज्ञान और साहित्य तथा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों की पावन गंगोत्री प्रस्तावित हुई थी. ग़ौरतलब है कि जिस प्रकार वाल्मीकि को भारतवर्ष का आदि कवि और रामायण को आदि काव्य की प्रतिष्ठा प्राप्त है, उसी प्रकार यूरोप में होमर को प्रथम कवि और इलियड और ओडिसी नामक उनकी कृतियों को आदि काव्यों का गौरव हासिल है. इन काव्य ग्रंथों के विशाल आकार में निहित काव्यात्मकता, मानवीय भावानुभूति की सच्ची संपन्नता, संवेदनशील मन की अभिव्यक्तिगत विदग्धता, कलात्मकता, कल्पनात्मक छवियों का समारोह, युग विशेष की अपूर्व झांकियां, मनुष्य की सार्वभौम शाश्वत प्रवृत्तियों का निदर्शन तथा अलंकारों की समुचित योजना को देखकर ऐसा विश्वास ही नहीं होता कि ये श्रेष्ठ सर्जना की आरंभिक कृतियां हैं. महाकवि होमर ने अपना सृजन कला की अधिष्ठात्री देवी म्यूज के प्रति अपनी स्तुति से शुरू किया है. इस स्तुति का स्वरूप प्रेरणा से संबंध है, क्योंकि उसका विश्वास था कि उचित ईश्वरीय प्रेरणा के अभाव में काव्य-सृजन संभव ही नहीं होता. वस्तुत: प्रेरणा के इसी स्वरूप के साथ काव्य-चिंतन का सैद्धांतिक विवेचन शुरू होता है. अगर पाश्चात्य काव्य-चिंतन का बीजवपन होमर की कृतियों की झमकती हुई वर्षा में हुआ, तो उसका अंकुरण हेसिओद, सोलाने, सिमोनाइड, अरिस्तोफेनीस, पिंडार इत्यादि के सौम्य विचारों के प्रभातकालीन आलोक में हुआ.

आभिजात्यवाद से लेकर उत्तरआधुनिकतावाद तक के काव्य आंदोलन इस बात के सबूत हैं कि पाश्चात्य काव्यशास्त्र इस नज़रिये से कितना समृद्ध और विविधतापूर्ण है. पाश्चात्य काव्य-चिंतन के काव्य आंदोलनों को ऐतिहासिक क्रम में कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, जिनमें आभिजात्यवाद युग, अंधकार युग, पुनर्जागरण युग, नवआभिजात्यवाद, स्वच्छंदतावाद, कलावाद, मार्क्सवाद, प्रतीकवाद, बिम्बवाद, अतियथार्थवाद, अस्तित्ववाद, नई समीक्षा, संरचनावाद और उत्तरआधुनिकतावाद शामिल है. स्वच्छंदतावाद बौद्धिक ज्ञान की अपेक्षा भाव सौंदर्य को विशेष महत्व देता है. विंकिलमैन, लेसिंग, शिलर, गेटे आदि जर्मनी में स्वच्छंदतावाद के प्रमुख पोषक हुए हैं. जर्मनी से स्वच्छंदतावाद इंग्लैंड और फ्रांस पहुंचा. इंग्लैंड में उसने उपलब्धियों के अनेक शिखर पार किए. यह अंग्रेज़ी कविता का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन माना जाता है. इंग्लैंड में वड्‌र्सवर्थ, कॉलरिज, बायरन, शेली और लेहंट इसके उन्नायक हुए. ये सब कवि और विचारक दोनों थे. इसलिए इन्होंने सिद्धांत और व्यवहार दोनों में स्वच्छंदतावाद का स्वरूप स्पष्ट किया है.
कविवर डब्ल्यू यूए लैंडर की कविता दर्शनीय है-
न किसी से मैंने स्पर्धा की, स्पर्धा के योग्य न था कोई
प्रकृति से मैंने प्यार किया, प्रकृति के बाद कला हो ली
सेंके हैं जी भर, जीवन-ज्वाला से हाथ मैंने दोनों
अब वह मद्धम होती जाती, प्रस्थान हेतु प्रस्तुत मैं भी 

इसी तरह प्रतीकवाद फ्रांसीसी कविता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक है, जिसने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में फ्रांस के साहित्य और कला के सभी अंगों-उपांगों को प्रभावित किया. इसे यथार्थवाद का विरोधी आंदोलन माना जाता है. हालांकि उन्नीसवीं शताब्दी को फ्रांसीसी काव्य आंदोलनों की शताब्दी माना जा सकता है, क्योंकि इस शताब्दी के शुरू में नवआभिजात्यवाद अपने प्रकर्ष पर था, जिसकी प्रतिक्रिया में स्वच्छंदतावाद का अभ्युदय हुआ. स्वच्छंदतावाद का स्वाभाविक विकास कलावाद में हुआ, जिसने यथार्थवाद के आविर्भाव के लिए ज़मीन तैयार की. यथार्थवाद की स्वाभाविक परिणति प्रकृतवाद में हुई. प्रकृतवाद अपनी ज़डें मज़बूत करने का प्रयास कर ही रहा था कि प्रतीकवाद का ज्वार आ गया. प्रतीकवाद इस सदी का अंतिम साहित्यिक और कलात्मक विवर्तन था. कतिपय विद्वानों की दृष्टि में प्रतीकवाद स्वच्छंदतावाद की अत्युन्नत एवं विकसित शाखा है, जिसमें प्रतीकों का सचेत प्रयोग किया गया. वैसे तो प्रतीकवादी काव्य-धारा का प्रवर्तन फ्रांसीसी रचनाकारों बॉदलेयर, वर्लेन, मलार्मे, रिम्बो, क्लाउडेल और पॉल वालेरी द्वारा हुआ, लेकिन इसका प्रभाव जर्मन कवि रिल्के, रूसी लेखक ब्लोक, आयरिश कवि यीट्‌स, अमेरिकन कवि हत्थॉर्न और वाल्ट व्हिटमैन आदि पर भी प़डा. मलार्मे ने लिखा है, प्रेम का चित्रण प्रेमी या प्रेमिका के मिलन या विरह का चित्रण नहीं होता, उसे बराबर उन सूक्ष्म भंगिमाओं का चित्रण होना चाहिए, जो प्रेम के साथ अदृश्य रूप से लिपटी होती हैं-
चांद का चेहरा उदास था
कामदेव की आंखों में आंसू और स्वप्न
वह हाथ में धनुष धरे
उफनाते हुए फूलों की शांति में खड़ा
प्रियमाण वीणा से
उजली सिसकियां खींच रहा था
उजली सिसकियां, जो फूलों के
नील दलों में समा रही थी
यह तुम्हारे चुंबन का प्रथम दिन था
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रतीकों के माध्यम से सूक्ष्म भावनात्मक प्रभाव उत्पन्न कर देना मलार्मे की कविता का मक़सद था.

मार्क्स ने जिस मूल्य-सिद्धांत की बात की थी, मार्क्सवादी उसके आधार पर साहित्य की विचारधारा, शिल्प और मूल्य-चेतना पर विचार करते हैं. अधिकांश विद्वान, जो इस विचारधारा के समर्थक हैं, वे साहित्य का अध्ययन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांतों की सहायता से करते हैं. इस सिद्धांत के अनुयाइयों का मानना है कि सामाजिक और राजनीतिक शक्तियों में आर्थिक व्यवस्था, वर्ग-संघर्ष का विशेष हाथ होता है. वे मानते हैं कि साहित्य रूप या सृजन की साहित्यिक पृष्ठभूमि का अध्ययन, दोनों को आर्थिक-सामाजिक प्रवृत्तियों के आधार पर ही समझा जा सकता है.
मार्क्सवाद उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी की सबसे शक्तिशाली विचारधाराओं में से एक है. मार्क्सवाद साहित्य को भी समाज के परिवर्तन के एक टूल के रूप में मानता है. उसका मानना है कि लोगों में जागरण साहित्य द्वारा पैदा किया जा सकता है. मार्क्सवाद विचारधारा के समर्थक कहते हैं कि साहित्य का उद्देश्य कृति की मूल्य-व्यवस्था पर ध्यान देना है, क्योंकि संघर्षपरक, समाज-सापेक्ष, लोकमंगलकारी मूल्य मानव-समाज को आगे बढ़ाते हैं. इस सिद्धांत के मानने वालों के अनुसार आनंदवादी, रीतिवादी मूल्य मानव को विकृत करते हैं. साहित्य का वास्तविक प्रयोजन तो जीवन-यथार्थ का वास्तविक उद्‌घाटन है.
काडवेल से लेकर जार्ज लूकाच तक सभी मार्क्सवादी चिंतक काव्य का प्रयोजन मानव-कल्याण की भावना की अभिव्यक्ति मानते रहे हैं. किसी भी रचना के मूल्य और मूल्यांकन में ही उसका प्रयोजन निहित रहता है. इस प्रकार हम देखते हैं कि मार्क्सवाद चिंतन में कलावादी मूल्यों से अधिक मानववादी, मानवतावादी, नैतिक उपयोगितावादी या यूं कहें कि सामाजिक मूल्यों का अधिक महत्व दिया गया है.

दरअसल, अलग-अलग कालखंडों में काव्य के अलग-अलग रूप देखने को मिले हैं. काव्य आंदोलनों का यह सफ़र आगे भी बदस्तूर जारी रहेगा. बहरहाल, यह किताब पाश्चात्य काव्य-चिंतन पर आधारित एक बेहतरीन दस्तावेज़ है, जिससे विभिन्न पाश्चात्य देशों के काव्य को बेहद क़रीब से जानने का मौक़ा मिलता है. चूंकि यह किताब शोधग्रंथ पर आधारित है, इसलिए इसकी भाषा थो़डी संस्कृतनुमा है, जिससे आम पाठकों को इसे समझने में थोड़ी परेशानी हो सकती है. कुल मिलाकर यह एक बेहतरीन और उपयोगी किताब है.  (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : पाश्चात्य काव्य चिंतन
लेखक:  करुणाशंकर उपाध्याय 
प्रकाशक : राधाकृष्ण
क़ीमत : 450 रुपये

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