दूध का रिश्ता...


फ़िरदौस ख़ान
कुछ बातें ज़िन्दगी में एक न भूलने वाला सबक़ दे जाती हैं, भले ही उनसे हमें कितनी ही तकलीफ़ क्यों न हो... कई साल पहले की बात है... तब हम एक अख़बार में जॊब करते थे... हम अपने से छोटों को नाम से पुकारते हैं और बड़ों को नाम के साथ 'भाई' कहकर बुलाते हैं... एक शख़्स का नाम शरीफ़ (बदला हुआ नाम) था, जिसे हम 'शरीफ़ भाई’ कहकर बुलाते थे...
एक रोज़ 'भाई' लफ़्ज़ का ज़िक्र छिड़ गया... 'शरीफ़ भाई' ने हमसे कहा कि तुम मुझे भाई कहती हो, लेकिन तुम्हारे भाई कहने से मैं तुम्हारा 'भाई' नहीं हो गया... हमारे मज़हब में तो सिर्फ़ दूध का रिश्ता ही छोड़ा जाता है... यानी चचेरे, ममेरे, ख़लेरे, फुफेरे भाई-बहनों में आपस में निकाह जायज़ है... जो लोग पहले एक-दूसरे को 'भाई-बहन' कहते हैं, बाद में वही लोग निकाह के बाद 'मियां-बीवी' बन जाते हैं... उसकी बात तो सही थी... सबके अपने-अपने रीति-रिवाज हैं... यहां हम इस प्रथा को ग़लत या सही नहीं ठहरा रहे हैं...

हम उसे 'भाई' कहते थे, तो उसे 'भाई' मानते भी थे... उसकी बात से हमें बहुत तकलीफ़ हुई... इस वाक़िये के बाद हमने उससे बात करना ही बंद कर दिया...
एक दिन दफ़्तर में सबने देर तक काम किया... ऒफ़िस की गाड़ी आई नहीं थी... हमारे सीनियर ने कहा कि गाड़ी पता नहीं कब तक आए, तुम 'शरीफ़' के साथ चली जाओ... मैं उससे कह देता हूं... हमने कहा कि हम गाड़ी का इंतज़ार कर लेंगे, लेकिन ’शरीफ़' के साथ नहीं जाएंगे... सीनियर ने हैरान होकर वजह पूछी, तो हमने भाई वाला वाक़िया सुना दिया...
उस दिन हम देर तक गाड़ी का इंतज़ार करते रहे...जब गाड़ी नहीं आई, तो हमारे सीनियर ने ही हमें घर पहुंचाया...

शरीफ़ की बात से हमें बहुत तकलीफ़ हुई, लेकिन उसने ज़िन्दगी में कभी न भूलने वाला सबक़ भी दे दिया... इंसान अच्छे लोगों से इतना नहीं सीखता, जितना बुरे लोग उसे सिखा देते हैं... अब हम किसी को 'भाई' कहने से पहले ये देख लेते हैं कि वो 'भाई' कहलाने के लायक़ है भी या नहीं...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

तस्वीर गूगल से साभार

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