बरसात का मौसम...

नज़्म
गर्मियों का मौसम भी
बिलकुल
ज़िन्दगी के मौसम-सा लगता है...
भटकते बंजारे से
दहकते आवारा दिन
और
विरह में तड़पती जोगन-सी
सुलगती लम्बी रातें...
काश!
कभी ज़िन्दगी के आंगन में
आकर ठहर जाए
बरसात का मौसम...
-फ़िरदौस ख़ान
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10 Response to "बरसात का मौसम..."

  1. Shekhar Kumawat says:
    30 मार्च 2010 को 8:02 pm बजे

    BAHUT SUNDAR RACHANA


    SHEKHAR KUMAWAT

    http://rajasthanikavitakosh.blogspot.com/

  2. Taarkeshwar Giri says:
    30 मार्च 2010 को 9:17 pm बजे

    Kya bat hai FIRDAUS ji . bahut acchi lagi aapki ye Najjm

  3. Arvind Mishra says:
    30 मार्च 2010 को 10:19 pm बजे

    अभी तो तपन ही तपन है अगन है और जलन है -बरखा बहार तो बहुत दूर है -अच्छी कविता !

  4. संजय भास्‍कर says:
    30 मार्च 2010 को 11:32 pm बजे

    वाह ....Firdaus जी गज़ब का लिखतीं हैं आप .......!!

  5. संजय भास्‍कर says:
    30 मार्च 2010 को 11:34 pm बजे

    बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

  6. शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' says:
    31 मार्च 2010 को 12:57 am बजे

    काश ज़िन्दगी के आंगन में
    आकर ठहर जाये... बरसात का मौसम
    आपका लेखन, ये शैली....और शब्दों को इतने खूबसूरत अंदाज़ में पेश करने का फ़न....
    आपकी नज़्मों का इंतज़ार करने पर मजबूर कर देता है.

  7. Unknown says:
    2 अप्रैल 2010 को 8:43 pm बजे

    काश
    ज़िन्दगी के आंगन में
    आकर ठहर जाए
    बरसात का मौसम...

    मोहतरमा, जवाब नहीं आपका. शाहिद साहब से सहमत हैं.....
    हमें भी आपकी नज़्मों का बेसब्री से इंतज़ार रहता है.....

  8. "अर्श" says:
    4 अप्रैल 2010 को 10:42 pm बजे

    माहिर हैं आप नज़्म कहने के फन में खुबसूरत बातें करतीं है आप अपनी नज्मों में और तभी सही है के आप बातें वो करें जो आम इंसान तक आपकी बातें पहुंचे!
    आपको badhaaee...

    अर्श

  9. Unknown says:
    6 अप्रैल 2010 को 8:13 am बजे

    काश!
    कभी ज़िन्दगी के आंगन में
    आकर ठहर जाए
    बरसात का मौसम...
    हमेशा की तरह आपका सबसे जुदा अंदाज़.....
    हम जब भी आपकी नज़्में पढ़ते हैं.....
    बेचैन हो उठते हैं....और यह बेचैनी एक लंबे अरसे तक महसूस करते हैं....

  10. दीपिका रानी says:
    28 मार्च 2012 को 9:15 pm बजे

    क्या बात है! आज फेसबुक पर अविनाश वाचस्पतिजी ने यह नज्‍म लगाई थी, वहीं से पीछा करते-करते यहां तक आ गई। बहुत बढ़िया..

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