ख़ानज़ादा : एक संग्रहणीय दस्तावेज़


फ़िरदौस ख़ान 
पिछले दिनों राजकमल प्रकाशन की तरफ़ से एक उपन्यास मिला, जिसका नाम था ख़ानज़ादा. यह भगवानदास मोरवाल का उपन्यास है. यह मेवात की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित है. दरअसल यह फ़िरोज़शाह तुग़लक़, सादात, इब्राहीम लोदी और मुग़ल बादशाहों से मुक़ाबला करने वाले मेवात के वीरों की गाथा है. ये उन मेवातियों की गाथा है, जिन्होंने बादशाहों के सामने घुटने नहीं टेके और उनसे जमकर लोहा लिया.  इन्हीं में से एक थे हसन ख़ां मेवाती. फ़िरोज़शाह तुग़लक ने राजा नाहर ख़ान को मेवात का आधिपत्य सौंपा था. उन्होंने मेवात रियासत क़ायम की. राजा नाहर ख़ान को कोटला के राजा समरपाल के नाम से भी जाना जाता है. वे ख़ानज़ादा राजपूतों के पूर्वज थे. उनके ख़ानदान ने मेवात पर दो सौ सालों तक हुकूमत की. हसन ख़ां मेवाती इसी ख़ानदान के आख़िरी हुकुमरान थे. उन्होंने अपनी जान क़ुर्बान कर दी, लेकिन किसी विदेशी हमलावर का साथ नहीं दिया.   

दरअसल मेवात एक अंचल का नाम है, जो उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सीमाओं में फैला हुआ है. प्राचीन काल में इस इलाक़े को मत्स्य प्रदेश के नाम से जाना जाता था. इसका धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से बहुत महत्व है. वेद और पुराणों में ब्रज की चौरासी कोस की परिक्रमा का उल्लेख मिलता है. इस परिक्रमा में होडल, मधुवन, तालवन, बहुलावन, शांतनु कुंड, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, जतीपुरा, डीग, कामवन, बरसाना, नंदगांव, कोकिलायन, जाप, कोटवन, पैगांव, शेरगढ़, चीरभाट, बड़गांव, वृंदावन, लोहवन, गोकुल और मथुरा भी आता है. इस परिकमा में श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़े स्थल, सरोवर, वन, मन्दिर और कुंड आदि का भ्रमण किया जाता है. इस दौरान कृष्ण भक्त भजन-कीर्तन एवं अन्य धार्मिक अनुष्ठान करते हुए परिक्रमा पूरी करते हैं. वे इसे मोक्षदायिनी मानते हैं. 

मेवात का भव्य एवं गौरवशाली इतिहास रहा है. इस उपन्यास के ज़रिये लेखक ने मेवात के इतिहास के साथ-साथ यहां की लोक संस्कृति को भी बख़ूबी पेश किया है. उपन्यास की भाषा सरल और सहज है. इसे पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि चलचित्र की मानिन्द सबकुछ आंखों के सामने ही घटित हो रहा है. उपन्यास की भाषा शैली पाठक को बांधे रखती है. बानगी देखें-
“चौदहवीं सदी का उत्तरार्द्ध. अरावली के शिखर पर बना परकोटा. एक ऐसा परकोटा जिसमें चूने का कोई अता-पता नहीं, मगर फिर भी यह कहलाया गया क़िला. एक ऐसा दुर्गम क़िला कि ऊपर पहुंचते-पहुंचते सांस फूलने लग जाए. यहां से चारों तरफ़ जहां तक नज़र जाती, इसके स्याह पत्थरों की दरारों के बीच बबूल. कीकर, बेर और दूसरी कंटीली झाड़ियों के बीच विशाल बरगद, पीपल सहित दूर तक बिछी हरियाली की चादर दिखाई देती. एकदम सीधे खड़े इस पहाड़ पर चढ़ने की यहां के स्थानीय लोगों की भी हिम्मत नहीं होती.“           

इतिहास के बारे में लिखना कोई आसान काम नहीं है. इसमें लेखक का ईमानदार होना निहायत ही ज़रूरी है, जो बिना किसी पक्षपात और भेदभाव के पूरी निष्ठा के साथ अपने काम को अंजाम दे. पिछले कुछ अरसे से जिस तरह पाठ्य पुस्तकों से इतिहास से वाबस्ता अध्याय हटाए जा रहे हैं, इससे विद्यार्थी इनसे अनजान ही रहेंगे. लेकिन भला हो उन इतिहासकारों और लेखकों का जो अपनी लेखनी के ज़रिये इतिहास और ऐतिहासिक किरदारों को ज़िन्दा रखे हुए हैं.  
लेखक भगवानदास मोरवाल कहते हैं- “कोई बात नहीं मुग़ल इतिहास संबंधी अध्याय ही तो पाठ्यक्रमों से हटाए जा रहे हैं, पुस्तकें तो ख़त्म नहीं हो जाएंगी. इसलिए यदि आपको यह नहीं पता कि बाबर को इस देश में कौन-से हिन्दू राजा ने बुलाया था और उसके आने के बाद खानवा के दूसरे युद्ध से पहले हसन ख़ां मेवाती ने बाबर की पेशकश क्या कहते हुए ठुकरा दी थी, तो यह जानने के लिए यह उपन्यास आपका इंतज़ार कर रहा है.”
लेखक ने सही कहा है. पाठक इस उपन्यास के ज़रिये मेवात के इतिहास को भली-भांति जान पाएंगे. 


क़ाबिले- ग़ौर है कि पाकिस्तान के लाहौर के मशहूर प्रकाशन गृह फ़िक्शन हाउस और नई दिल्ली के एमआर पब्लिकेशन्स ने ख़ानज़ादा का उर्दू संस्करण प्रकाशित किया है. इससे उर्दू भाषी लोग इस ऐतिहासिक उपन्यास को पढ़ पा रहे हैं.  


बहरहाल, यह उपन्यास मेवात के उन नायकों से पाठकों को रूबरू करवाता है, जिनके बारे में बहुत कम लिखा गया है. यह एक ऐतिहासक और संग्रहणीय दस्तावेज़ है, जो इतिहास के छात्रों के लिए बहुत ही उपयोगी साबित होगा. 

समीक्ष्य कृति : ख़ानज़ादा
लेखक : भगवानदास मोरवाल   
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ : 392
मूल्य : 399 रुपये


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