तू मेरे गोकुल का कान्हा...

तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौगात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
-फ़िरदौस ख़ान
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7 Response to "तू मेरे गोकुल का कान्हा..."

  1. बेनामी Says:
    2 मार्च 2010 को 11:40 am बजे

    बेमिशाल - "तू मेरे गोकुल का कान्हा" और आपकी लेखनी को शत शत सलाम

  2. vandana gupta says:
    2 मार्च 2010 को 12:41 pm बजे

    firdauss ji

    is rachna ke liye to shabd bhi kam hain...........seedhe antarman mein utar gayi hai.........ek ek shabd aur ek ek pankti bemisaal hai..........gazab ki prastuti.

  3. संजय भास्‍कर says:
    2 मार्च 2010 को 2:24 pm बजे

    हर रंग को आपने बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

  4. शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' says:
    2 मार्च 2010 को 4:41 pm बजे

    मोहतरमा फ़िरदौस साहिबा, आदाब

    ....थाल सजाकर मन आंगन में......
    तड़प रही थी मन की मीरा....महामिलन के जल की प्यासी
    देह हुई वृंदावन........
    ....सोने जैसे दिवस हो गये...लगती हैं.....लगती हैं चांदी सी रातें...

    खूबसूरत अलफ़ाज़....नायाब रचना.

  5. बेनामी Says:
    2 मार्च 2010 को 5:50 pm बजे

    तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
    होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

    राधा कुंज भवन में जैसे
    सीता खड़ी हुई उपवन में
    खड़ी हुई थी सदियों से मैं
    थाल सजाकर मन-आंगन में
    जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
    होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

    तड़प रही थी मन की मीरा
    महा मिलन के जल की प्यासी
    प्रीतम तुम ही मेरे काबा
    मेरी मथुरा, मेरी काशी
    छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
    होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

    रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
    टांक गए अनबूझ कहानी
    तू मेरे गोकुल का कान्हा
    मैं हूं तेरी राधा रानी
    देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
    होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई

    सोने जैसे दिवस हो गए
    लगती हैं चांदी-सी रातें
    सपने सूरज जैसे चमके
    चन्दन वन-सी महकी रातें
    मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौगात ही गई
    होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई...

    एक-एक लफ़्ज़ में डूब जाना चाहता है यह दिल.......
    आप वाक़ई लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी हैं.......फ़िरदौस साहिबा, कोई जवाब नहीं आपका.......

  6. Satish Saxena says:
    2 मार्च 2010 को 8:35 pm बजे

    कमाल है फिरदौस जी !

    मैं पहली बार आपका छंद युक्त गीत पढ़ रहा हूँ , आनंद आगया , गज़ब की रचना के लिए मुबारकबाद स्वीकार करें ! लगता है बेहतरीन मूड में लिखी गयी है !

    जितनी हो तारीफ तुम्हारी,
    कम है , इन गीतों को पढ़कर
    लगता है रिमझिम रिमझिम,
    सी गीतों की बरसात हो गयी !

  7. अतुल मिश्र says:
    11 मार्च 2010 को 10:19 am बजे

    Bahut Sundar Prastutikaran Hai, Firdaus Ji !!

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