माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं


होठों पे नरम धूप सजाते रहे हैं हम
आंखों में जुगनुओं को छुपाते रहे हैं हम

माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं
पलकों पे इनको फिर भी सजाते रहे हैं हम

हक़ दोस्ती का यूं तो अदा हो नहीं सका
ख़ुद को मगर ज़रूर मिटाते रहे हैं हम

ख़ुद अपनी ज़िन्दगी तो सज़ा बनके रह गई
राहे-वफ़ा जहां को दिखाते रहे हैं हम

भूली हुई गली में वो शायद कि आ ही जाए
इस आस में चराग़ जलाते रहे हैं हम

दो पल की ज़िन्दगी की ख़ुशी के लिए सदा
'फ़िरदौस' आंसुओं में नहाते रहे हैं हम
-फ़िरदौस ख़ान
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

13 Response to "माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं"

  1. rakhshanda says:
    19 सितंबर 2008 को 11:14 am बजे

    माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं
    पलकों पे इनको फिर भी सजाते रहे हैं हम

    हक़ दोस्ती का यूं तो अदा हो नहीं सका
    ख़ुद को मगर ज़रूर मिटाते रहे हैं हम

    very beautiful..

  2. Advocate Rashmi saurana says:
    19 सितंबर 2008 को 12:26 pm बजे

    ख़ुद अपनी ज़िन्दगी तो सज़ा बनके रह गई
    राहे-वफ़ा जहां को दिखाते रहे हैं हम
    vah vah. bhut sundar. likhati rhe.

  3. Advocate Rashmi saurana says:
    19 सितंबर 2008 को 12:28 pm बजे

    ख़ुद अपनी ज़िन्दगी तो सज़ा बनके रह गई
    राहे-वफ़ा जहां को दिखाते रहे हैं हम
    vah vah. bhut sundar. likhti rhe.

  4. Advocate Rashmi saurana says:
    19 सितंबर 2008 को 12:42 pm बजे

    ख़ुद अपनी ज़िन्दगी तो सज़ा बनके रह गई
    राहे-वफ़ा जहां को दिखाते रहे हैं हम
    vah bhut sundar jari rhe.

  5. बेनामी Says:
    19 सितंबर 2008 को 12:57 pm बजे

    होठों पे नरम धूप सजाते रहे हैं हम
    आंखों में जुगनुओं को छुपाते रहे हैं हम

    माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं
    पलकों पे इनको फिर भी सजाते रहे हैं हम

    हक़ दोस्ती का यूं तो अदा हो नहीं सका
    ख़ुद को मगर ज़रूर मिटाते रहे हैं हम

    ख़ुद अपनी ज़िन्दगी तो सज़ा बनके रह गई
    राहे-वफ़ा जहां को दिखाते रहे हैं हम

    जिंदगी का फ़लसफ़ा को बयां करती ख़ूबसूरत ग़ज़ल है...

  6. pallavi trivedi says:
    19 सितंबर 2008 को 1:54 pm बजे

    होठों पे नरम धूप सजाते रहे हैं हम
    आंखों में जुगनुओं को छुपाते रहे हैं हम

    माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं
    पलकों पे इनको फिर भी सजाते रहे हैं हम
    khoobsurat sher hain....

  7. Udan Tashtari says:
    19 सितंबर 2008 को 3:50 pm बजे

    माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं
    पलकों पे इनको फिर भी सजाते रहे हैं हम

    -बेहतरीन!!!

  8. श्रद्धा जैन says:
    19 सितंबर 2008 को 5:17 pm बजे

    pahli baar padha bhaut sunder bhaut ghara likhte hain

    likhte rahe ab aana hota rahega

  9. Ashish says:
    19 सितंबर 2008 को 10:55 pm बजे

    बहुत उम्दा लिखा है। लिखती रहिए

  10. Dr. Ashok Kumar Mishra says:
    20 सितंबर 2008 को 12:23 am बजे

    bahut pukhta gazal kahi hai aapney. isi zameen sey juda ek sher-
    aankhein bhi chamak uthti hain sote mein hamari,
    palkon ko abhi khawab chipaney nahin aate.

  11. अमिताभ मीत says:
    20 सितंबर 2008 को 7:05 am बजे

    माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं
    पलकों पे इनको फिर भी सजाते रहे हैं हम

    बहुत ख़ूब. हर शेर लाजवाब.

  12. Satish Saxena says:
    25 सितंबर 2008 को 3:29 pm बजे

    भूली हुई गली में वो शायद कि आ ही जाए
    इस आस में चराग़ जलाते रहे हैं हम

  13. daanish says:
    14 नवंबर 2008 को 7:51 pm बजे

    "khud apni zindgi to sazaa bn ke reh gayi, raah.e.wfa jahaaN ko dikhaate rahe haiN hm.." bahot achhaa ! Aapka qalam aapke jazbaat ki tarjumaani karne mei kaafi maahir hai.. usse rokiyega mt. Aur "bhooli hui gali mei..." zra khatkaa sa lagta hai kaheeN... kya aise nahi ho sakta..("bhoole se aa hi jaae kaheeN iss gali mei wo"..??) WITH REGARDS ---MUFLIS---

एक टिप्पणी भेजें