पापा की तस्बीह


कुछ चीज़ें ऐसी हुआ करती हैं, जिन्हें इंसान बहुत संभालकर रखता है. इन चीज़ों से इंसान की यादें वाबस्ता होती हैं, उसके जज़्बात जुड़े होते हैं.
हमारे पास भी ऐसी कई चीज़ें हैं, जैसे पीतल-तांबे के बहुत से बर्तन जो अम्मी ने हमें दिए. वो बर्तन अम्मी को उनकी अम्मी ने दिए थे. फ़िलहाल बात तस्बीह की करते हैं. एक तस्बीह जो हमें बहुत अज़ीज़ है. ये वो तस्बीह है, जो अकसर पापा के हाथ में हुआ करती थी. और पापा क़ुरैशिये से बनी टोपी ओढ़कर तस्बीह पर कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे. ये टोपी हमने उस वक़्त बुनी थी, जब हम छठी जमात में पढ़ते थे. पापा को इस टोपी से बहुत प्यार था. ख़्वाब में पापा नज़र आते हैं, तो यही टोपी पहने होते हैं.
पापा के जाने के बाद पापा की ख़ास चीज़ें हम भाई-बहनों ने आपस में बांट लीं. जैसे टोपी, तस्बीह, शिनाख़्ती कार्ड वग़ैरह. हमारे हिस्से में तस्बीह आई. हमने अपनी तस्बीह छोड़कर इस तस्बीह पर पढ़ना शुरू किया. क़रीब साल भर पहले की बात है, तस्बीह खो गई. यूं लगा जैसे किसी ने हमारी रूह को जिस्म से अलग कर दिया है. हम बदहवास होकर तस्बीह ढूंढने लगे. हम सफ़र में अकसर तस्बीह पढ़ते रहते हैं. एक मर्तबा लगा कि शायद तस्बीह बस में छूट गई, ये सोच कर जान हल्कान होने लगी. हमने दरूद शरीफ़ पढ़ते हुए तस्बीह तलाशनी शुरू की. कहा जाता है कि कोई चीज़ गुम हो जाए, तो दरूद शरीफ़ पढ़ते हुए उसे ढूंढो, चीज़ फ़ौरन नज़र के सामने आ जाएगी. अल्लाह का शुक्र कि तस्बीह हमें मिल गई.
हमने तस्बीह संभालकर रख दी. उस ताक़ में जहां कलाम पाक, दीगर किताबें और इत्र वग़ैरह रखा रहता है. हम अब उस तस्बीह पर नहीं पढ़ते. ख़ौफ़ आता है कि कहीं फिर से वो गुम न हो जाए. पापा की तस्बीह हमें बहुत अज़ीज़ है. उसके हर दाने में पापा की अंगुलियों ला लम्स (छुअन) है.
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
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