ज़ात, मज़हब एह इश्क़ ना पुछदा...



फ़िरदौस ख़ान
अल इश्क़ो नारून, युहर्री को मा सवीयिल महबूब यानी इश्क़ वो आग है, जो महबूब के सिवा सब कुछ जला डालती है…

इश्क़ वह आग है, जिससे दोज़ख़ भी पनाह मांगती है. कहते हैं, इश्क़ की एक चिंगारी से ही दोज़ख़ की आग दहकायी गई है. जिसके सीने में पहले ही इश्क़ की आग दहकती हो, उसे दोज़ख़ की आग का क्या खौफ़. जब किसी से इश्क़ हो जाता है, तो हो जाता है. इसमें लाज़िम है महबूब का होना (क़रीब) या न होना, क्योंकि इश्क़ तो उससे हुआ है. उसकी ज़ात (अस्तित्व) से हुआ है. उस महबूब से जो सिर्फ़ जिस्म नहीं है. वह तो ख़ुदा के नूर का वह क़तरा है, जिसकी एक बूंद के आगे सारी कायनात बेनूर लगती है. इश्क़ इंसान को ख़ुदा के बेहद क़रीब कर देता है. इश्क़ में रूहानियत होती है. इश्क़, बस इश्क़ होता है. किसी इंसान से हो या ख़ुदा से. जब इश्क़े-मजाज़ी (इंसान से इश्क़) हद से गुज़र जाए तो वह ख़ुद-ब-ख़ुद इश्क़े-हक़ीक़ी (ख़ुदा से इश्क़) हो जाता है. इश्क़ एक ख़ामोश इबादत है, जिसकी मंज़िल जन्नत नहीं, दीदारे-महबूब है. हज़रत राबिया बसरी कहती हैं- इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ. सूफ़ियों ने इश्क़ को इबादत का दर्जा दिया है.
विसाले-हक़ हुआ. सूफ़ियों ने इश्क़ को इबादत का दर्जा दिया है.

पंजाबी के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि बुल्ले शाह कहते हैं-
करम शरा दे धरम बतावन
संगल पावन पैरी
ज़ात, मज़हब एह इश्क़ ना पुछदा
इश्क़ शरा दा वैरी

वह तो अल्लाह को पाना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने प्रेम के मार्ग को अपनाया, क्योंकि प्रेम किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करता. बुल्ले शाह के जन्म स्थान और समय को लेकर विद्वान एक मत नहीं हैं, लेकिन ज़्यादातर विद्वानों ने उनका जीवनकाल 1680 ईस्वी से 1758 ईस्वी तक माना है. तारीख़े-नफ़े उल्साल्कीन के मुताबिक़, बुल्ले शाह का जन्म सिंध (पाकिस्तान) के उछ गीलानीयां गांव में सखि शाह मुहम्मद दरवेश के घर हुआ था. उनका नाम अब्दुल्ला शाह रखा गया था. मगर सूफ़ी कवि के रूप में विख्यात होने के बाद वह बुल्ले शाह कहलाए. वह जब छह साल के थे, तब उनके पिता पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उछ गीलानीयां छोड़कर साहीवाल में मलकवाल नामक बस्ती में रहने लगे. इस दौरान चौधरी पांडो भट्टी किसी काम से तलवंडी आए थे. उन्होंने अपने एक मित्र से ज़िक्र किया कि लाहौर से 20 मील दूर बारी दोआब नदी के तट पर बसे गांव पंडोक में मस्जिद के लिए किसी अच्छे मौलवी की ज़रूरत है. इस पर उनके मित्र ने सखि शाह मुहम्मद दरवेश से बात करने की सलाह दी. अगले दिन तलवंडी के कुछ बुज़ुर्ग चौधरी पांडो भट्टी के साथ दरवेश साहब के पास गए और उनसे मस्जिद की व्यवस्था संभालने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. इस तरह बुल्ले शाह पंडोक आ गए. यहां उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की. वह अरबी और फ़ारसी के विद्वान थे, मगर उन्होंने जनमानस की भाषा पंजाबी को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया. प्रसिद्ध क़िस्सा हीर-रांझा के रचयिता सैयद वारिस शाह उनके सहपाठी थे. बुल्ले शाह ने अपना सारा जीवन इबादत और लोक कल्याण में व्यतीत किया. उनकी एक बहन भी थीं, जिन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर ख़ुदा की इबादत की. बुल्ले शाह लाहौर के संत शाह इनायत क़ादिरी शत्तारी के मुरीद थे. इश्क़े-हक़ीक़ी के बारे में बुल्ले शाह कहते हैं-
इश्क़े-हक़ीक़ी ने मुथ्थी कु़डे
मैनूं दस्सो पिया दा देसा
कियो इश्क़ असां ते आया है
तूं आया है मैं पाया है...

यानी प्रेम के देवता ने मेरा मन चुरा लिया है. मुझे बताओ कि पिया का देश कहां है. इश्क़ मेरे पास क्यों आया है. ओ इश्क़, तू आया है और मैंने तुझे महसूस किया है.

अल्लाह का पहला वर्ण (अरबी, फ़ारसी, उर्दू) है अलिफ़ का आकार 1 के समान होता है. यह परमात्मा की अद्वैतता को इंगित करता है. चूंकि बुल्ले शाह अल्लाह से अलग नहीं होना चाहते थे. इसलिए उन्होंने कहा है-

इक्को अलिफ़ पढ़ो छुटकारा आये
यानी मुक्ति के लिए सिर्फ़ अलिफ़ पढ़ना ही काफ़ी है.

इश्क़ में वियोग भी होता है. वियोग में ही प्रेमी गिले-शिकवे करता है. यहां तक कि वह अपने प्रियतम को संगदिल और बेरहम भी कह उठता है. बुल्ले शाह कहते हैं-
कीह बेदर्दां संग यारी
रोवन अखियां ज़ारो ज़ारी
सानूं गए बेदर्दी छडके
हिजरे संग सीने विच ग़ड के
जिस्मो जिंद नू लै गए क़ढ के
इह गल कर गए हैंसयारी...

यानी बेदर्दी के साथ इश्क़ का क्या कहना. मेरी आंखें तो अविरल आंसू बहाती हैं. वह बेरहम महबूब मेरे सीने में वियोग रूपी कटार घोंपकर, मेरी जान निकालकर ले गया. उसने यह सब ब़डी बेरहमी के साथ किया. प्रेमी को दुनिया की कोई परवाह नहीं होती. वह हर तरह की निंदा सहन कर लेता है. ईश्वर वियोग में उसे तकली़फ महसूस होती है. बुल्ले शाह कहते हैं-
बिरहों आ व़डया विच वेह़डे
ज़ोरों ज़ोर देवे तन घेरे
दारू दर्द नां बझो तेरे
मैं सजनां बाझ मारीनी हां
मित्तर पियारे कारन नी
मैं लोक पियारे कारन नी
मैं लोक अलाहमे लैनी हां...

यानी विरह ने मेरे आंगन में आकर मुझे अपने प्रकोप से बेहोश कर दिया. इसके अलावा तकली़फ दूर करने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. मैं तो प्रियतम के बिना मर रही हूं. मैं अपने प्रिय के लिए लोगों के उलाहने सुन रही हूं. कभी-कभी प्रेमी प्रियतम के उन गहन प्रेम सपनों को देखता है, जिसमें प्रियतम पलभर के लिए दर्शन देकर ओझल हो जाता है. उस व़क्त प्रेमी पी़डा से कराह उठता है. बुल्ले शाह कहते हैं-
देखो नीं पियारा मैनूं सुफने में छल गया

प्रेमी की ज़िंदगी में एक व़क्त ऐसा भी आता है, जब वह वियोग की रात गुज़र जाती है और फिर मिलन की सुबह आती है. उस व़क्त प्रेमी खुशी से नाच उठता है. वह दूसरों से मुबारकबाद लेना चाहता है. बुल्ले शाह कहते हैं- आओ सैयो रल दियो वधाई
मैं वर पाया रांझा माही...

यानी आओ दोस्तों, सब मिलकर मुझे मुबारकबाद दो. मैंने अपने महबूब यानी अपने खुदा को पा लिया है. हीर की तरह यह रहस्यवादी भी अपने प्रियतम रांझा की तलाश में भटकता रहा. प्रियतम एक जोगी के वेश में आया और प्रेमी ख़ुद को प्रियतम की जोगन कहता है. बुल्ले शाह के शब्दों में-
रांझा जोगिण बण आया
वाह सांगी सांग रचाया
रांझा जोगी ते मैं जुगियाणीं
इस दी खातर भरसां पाणीं
ऐवें पिछली उमर विहाणी
इस हुण मैनूं भरमाया...

यानी प्रियतम योगी के रूप में आया है. बहरुपिए ने ब़डा सुंदर नाटक रचाया है. रांझा एक जोगी है और मैं उसकी जोगन. उसके लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूं. मेरा पिछला जन्म तो बेकार हो गया. उसने मुझे अब मोहित कर लिया है. बुल्ले शाह ने अन्य सूफ़ियों की तरह ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को स्वीकार किया. उनकी रचनाओं में हिंदुस्तान के विभिन्न संप्रदायों का प्रभाव साफ़ नज़र आता है.

बुल्ले शाह के मुताबिक़ आत्मा ता परमात्मा की ही एक अभिन्न अंग है. परमात्मा प्रत्येक आत्मा में विराजमान है और स्वेच्छा से बोलता है. वह कहते हैं-
नाल महबूब सिरे दी बाज़ी
जिस ने कुल तबक लै साजी
मन मेरे विच जोत बिराजी
आपे ज़ाहिर हाल बताया...

यानी अपने महबूब के लिए अपने सिर की बाज़ी लगा दी है, जिसने सारी कायनात को बनाया है. मेरे दिल में वह रूहानी रौशनी मौजूद है, जो जिस्म के ज़रिये खुद को दर्शाती है. यह रूहानी रौशनी खुदा के इश्क़ से वाबस्ता है. लेकिन इसकी अपनी कोई ख्वाहिश नहीं है. यह ख़ुदा के हुक्म से ही अपने अलग-अलग रूपों में रहती है. ख़ुदा के हुक्म से ही मिट्टी की देह के रूप में नाचती है. वह कहते हैं-
मैं मेरी है ना तेरी है
एह अंत ख़ाक दी ढेरी है
एक ढेरी होई खेरी है
ढेरी नु नाच नचाई दा
हुण किस तो आप लुकाई दा...

यानी मैं यानी देह न मेरी है, न तेरी है. इसका अंत तो मिट्टी के ढेर के रूप में होता है, जो इधर-उधर बिखर जाती है. मिट्टी के इस ढेर में जब आत्मा प्रविष्ट होती है तो यह ढेर नाचता है. अब तुम ख़ुद को किससे छुपा रहे हो. बुल्ले शाह दुनिया को भ्रम या मायावी नहीं मानते. ख़ुदा ने ही इस दुनिया को बनाया है. इंसान जन्म लेता है और फिर एक रोज़ मर जाता है. यही इस सृष्टि का नियम है. वह कहते हैं-
मैं सुपना सभ जग वी सुपना
सुपना लोक बिबाणा
ख़ाकी ख़ाक सियों रल जागा
कुझ नहीं ज़ोर घीणांणा...

यानी मैं एक सपना हूं और पूरी दुनिया भी एक सपना है. सब इंसान भी एक सपना ही हैं. जो मिट्टी में जन्म लेगा, वह एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा. यह सब बिना किसी ज़ोर के ख़ुद-ब-ख़ुद ही हो जाएगा.

भले ही बुल्ले शाह की धरती अब पाकिस्तान हो, लेकिन हिंदुस्तान में भी उन्हें उतना ही माना जाता है, जितना पाकिस्तान में. उनका कलाम, उनका संदेश तो पूरी दुनिया के लिए है. दरअसल, बुल्ले शाह हिंदुस्तान और पाकिस्तान के महान सूफ़ी कवि होने के साथ इन दोनों मुल्कों की सांझी विरासत के भी प्रतीक हैं. बुल्ले शाह के बारे में कहा जाता है कि मेरा शाह-तेरा शाह, बुल्ले शाह. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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