हाथ की लकीरें...
मेरे महबूब
कितने पहर
मैं ढूंढती रही
तुम्हारे हाथ की लकीरों में
अपना वजूद...
जब कुछ समझ न पाई
तब
मुझे उदास पाकर
तुमने कहा था-
तुम मेरे हाथ की लकीरों में
हो या नहीं
मैं नहीं जानता
लेकिन
इतना ज़रूर जानता हूं
तुम मेरे दिल में रहती हो
मेरी रूह में बसती हो
तुम्हीं तो मेरी धड़कन हो
मेरी ज़िन्दगी हो
मेरी मुहब्बत हो...
और
तब से मैंने ख़ुद को
कभी नहीं ढूंढा
तुम्हारे हाथ की लकीरों में...
क्योंकि
जो रूह में बस जाते हैं
फिर उन्हें
हाथ की लकीरों में नहीं ढूंढा जाता...
-फ़िरदौस ख़ान
28 अगस्त 2014 को 4:35 pm
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (29.08.2014) को "सामाजिक परिवर्तन" (चर्चा अंक-1720)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
29 अगस्त 2014 को 12:01 pm
wah ! bahut khoob.....sach kaha
5 सितंबर 2014 को 7:00 am
सुन्दर और भावप्रणव प्रस्तुति।