तब झूठा लगता है हर लफ़्ज़ मुहब्बत का...
हर रोज़ की तरह
जब
सुबह का सूरज
दस्तक देता है
ज़िन्दगी के
नये दिन की चौखट पर
और
फिर से शुरू होता है
तन्हाई का
एक और मुश्किल सफ़र...
जब
उम्र की तपती दोपहरी में
जिस्म तरसता है
ठंडी छांव को...
जब
सुरमई शाम को
बिखरते ख़्वाबों की किरचें
लहू-लुहान करती हैं
अरमानों के पांव को...
जब
लम्बी तन्हा रात में
अहसास सुलगते हैं
अंगारों से...
तब, वाक़ई
झूठा लगता है
हर लफ़्ज़ मुहब्बत का...
-फ़िरदौस ख़ान
1 नवंबर 2008 को 1:47 pm बजे
जब
लम्बी तन्हा रात में
अहसास सुलगते हैं
अंगारों से...
तब, वाक़ई
झूठा लगता है
हर लफ्ज़ मुहब्बत का...
फ़िरदौस...क्या कहूं आपसे...कुछ अहसास ऐसे होते हैं जिनकी वज़ाहत नहीं की जा सकती...अल्लाह ने यह हुनर आपको बख्शा है...आपकी नज़्म ने बेचैन कर दिया है...काश...
1 नवंबर 2008 को 2:17 pm बजे
जब
सुरमई शाम को
बिखरते ख्वाबों की किरचें
लहू-लुहान करती हैं
अरमानों के पांव को...
जब
लम्बी तन्हा रात में
अहसास सुलगते हैं
shabad nahi mil rahe hai...bahut sunder
1 नवंबर 2008 को 2:53 pm बजे
sunder likha haen
1 नवंबर 2008 को 3:36 pm बजे
जब
उम्र की तपती दोपहरी में
जिस्म तरसता है
ठंडी छांव को...bahut khuub
1 नवंबर 2008 को 4:01 pm बजे
हर रोज़ की तरह
जब
सुबह का सूरज
दस्तक देता है
ज़िन्दगी के
नए दिन की चौखट पर
और
फिर से शुरू होता है
तन्हाई का
एक और मुश्किल सफ़र...
wah kya khoob kaha hai ,,,,,,,,,,, waqai tanhayeeeeeee ka ahsaas samjh me aane laga
mubarakbad
1 नवंबर 2008 को 4:01 pm बजे
हर रोज़ की तरह
जब
सुबह का सूरज
दस्तक देता है
ज़िन्दगी के
नए दिन की चौखट पर
और
फिर से शुरू होता है
तन्हाई का
एक और मुश्किल सफ़र...
wah kya khoob kaha hai ,,,,,,,,,,, waqai tanhayeeeeeee ka ahsaas samjh me aane laga
mubarakbad
1 नवंबर 2008 को 4:16 pm बजे
जब
लम्बी तन्हा रात में
अहसास सुलगते हैं
अंगारों से...
तब, वाक़ई
झूठा लगता है
हर लफ्ज़ मुहब्बत का...
बहुत सुंदर एहसासों से पिरोया है आपने इस को ..बहुत अच्छी लगी यह नज्म
1 नवंबर 2008 को 7:41 pm बजे
फिरदौसजी आपकी नज़्म में मंज़रकशी का ज़बाब नहीं. मर्हूम मुहतरमा परवीन शाकिर की याद दिलादी-
तराशकर मेरे बाजू उड़ान छोड़ गया.
बड़ी जो धूप तो बेसायबान छोड़ गया.
उक़ाब को थी गरज़ फ़ाख़्ता पकड़ने से,
जो गिर गई तो फिर नीमजान छोड़ गया.
मुहब्ब्त का हर लफ़्ज़ झूठा लगने के बावज़ूद इतना दिलकश क्यों हैं हमने अपने एक शेर में यूँ कहा था
ये बात अलग है की इक पल को नहीं भूले,
कोशिश तो बहुत की है उस शै को भुलाने में.
ज़्यादातर हमें संज़ीदा ग़ज़लें अपनी ओर खींचती हैं आपकी तो नज़्में भी जान लेवा हैं.
अल्लाह करे ज़ोरे कलम और ज़्यादा.आमीन.
आपकी दर्दगाह में आने की कहीं आदत न पड़ जाये.
1 नवंबर 2008 को 9:09 pm बजे
लाजवाब नज़्म...एक एक लफ्ज़ दिल में सीधे सीधे उतर जाता है...वाह वा...बेमिसाल.
नीरज
1 नवंबर 2008 को 9:40 pm बजे
बहुत बढ़िया ..
1 नवंबर 2008 को 9:43 pm बजे
बेहतरीन!
2 नवंबर 2008 को 1:38 am बजे
आपने बहुत अच्छा िलखा है ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
2 नवंबर 2008 को 9:31 am बजे
'………तन्हाई का एक और मुश्किल सफ़र…।
बहुत ख़ूब! बहुत ही ख़ूब!!
2 नवंबर 2008 को 7:45 pm बजे
तब, वाक़ई
झूठा लगता है
हर लफ्ज़ मुहब्बत का...
अहसास का समंदर है आपकी रचना
बेहतरीन
बधाई
3 नवंबर 2008 को 3:03 pm बजे
जब
उम्र की तपती दोपहरी में
जिस्म तरसता है
ठंडी छांव को...
जब
लम्बी तन्हा रात में
अहसास सुलगते हैं
अंगारों से...
तौबा तौबा क्या अदा है दर्द की शिद्दत को बयां करने की. अहसास-ए-तन्हाई और सफर के हालात ने ऐसा गहरा असर किया कि पढने वाला इसके तिलिस्म में क़ैद होकर रह जाए
मगर क़ैद भी ऐसी कि रिहाई की तमन्ना भी न हो.
बस इतनी दुआ है कि मुहब्बत का लफ्ज़ झूठा न लगे.
न राते तन्हा हो न बिखरने को मजबूर ख्वाब हो. दूर तलक निगाहों में गुलाब गुलाब बस गुलाब हो.
27 मार्च 2012 को 8:39 pm बजे
क्या कहूँ .....?