वो नज़्म...
वो नज़्म
जो कभी
तुमने मुझ पर लिखी थी
एक प्यार भरे रिश्ते से
आज बरसों बाद भी
उस पर नज़र पड़ती है तो
यूं लगता है
जैसे
फिर से वही लम्हें लौट आए हैं
वही मुहब्बत का मौसम
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफ़शी किरनों से
सजी होती थीं
जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी तेज़ धूप से
सराबोर होती थीं
जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ होती थीं
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती थी
सच !
कितनी कशिश है
तुम्हारे चंद लफ़्जों में
जो आज भी
मेरी उंगली थामकर
मुझे मेरे माज़ी की तरफ़
ले चलते हैं...
-फ़िरदौस ख़ान
29 दिसंबर 2009 को 10:41 am बजे
बहुत ही खूबसूरत नज़्म....
29 दिसंबर 2009 को 5:03 pm बजे
bahut hi sundar nazm.......bahut hi gahre bhav.
29 दिसंबर 2009 को 11:57 pm बजे
दर्द में डूबे
खूबसूरत अलफाज़ से सजी
एक बेहतरीन नज्म
फिरदौस साहिबा, मुबारकबाद
आने वाले नये साल की भी मुबारकबाद कुबूल फरमायें
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
30 दिसंबर 2009 को 2:49 pm बजे
बेहद दिलकश, रूह तक पहुँचती हुए रचना ........ सच में कभी कभी कुछ कुछ लफ़्ज आयेज नही जाने देती ..... राह रोक लेते हैं, मोड़ देते हैं बीते वक़्त की तरफ ..... ...... नया साल बहुत बहुत मुबारक ........
6 मार्च 2010 को 9:01 pm बजे
वो नज़्म
जो कभी
तुमने मुझ पर लिखी थी
एक प्यार भरे रिश्ते से
आज बरसों बाद भी
उस पर नज़र पड़ती है तो
यूं लगता है
जैसे
फिर से वही लम्हें लौट आए हैं
वही मुहब्बत का मौसम
वही चम्पई उजाले वाले दिन
जिसकी बसंती सुबहें
सूरज की बनफशी किरनों से
सजी होती थीं
जिसकी सजीली दोपहरें
चमकती सुनहरी तेज़ धूप से
सराबोर होती थीं
जिसकी सुरमई शामें
रूमानियत के जज़्बे से
लबरेज़ होती थीं
और
जिसकी मदहोश रातों पर
चांदनी अपना वजूद लुटाती थी
सच !
कितनी कशिश है
तुम्हारे चंद लफ़्जों में
जो आज भी
मेरी उंगली थामकर
मुझे मेरे माज़ी की ओर
ले चलते हैं...
सुब्हानअल्लाह.......
21 अप्रैल 2010 को 12:40 am बजे
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।