मेरे महबूब
मेरे महबूब !
उम्र की
तपती दोपहरी में
घने दरख़्त की
छांव हो तुम
सुलगती हुई
शब की तन्हाई में
दूधिया चांदनी की
ठंडक हो तुम
ज़िन्दगी के
बंजर सहरा में
आबे-ज़मज़म का
बहता दरिया हो तुम
मैं
सदियों की
प्यासी धरती हूं
बरसता-भीगता
सावन हो तुम
मुझ जोगन के
मन-मंदिर में बसी
मूरत हो तुम
मेरे महबूब
मेरे ताबिन्दा ख़्यालों में
कभी देखो
सरापा अपना
मैंने
दुनिया से छुपकर
बरसों
तुम्हारी परस्तिश की है...
-फ़िरदौस ख़ानशब्दार्थ
परस्तिश---- पूजा
6 अगस्त 2008 को 9:16 am बजे
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं. एक गंभीर और संवेदनशील पत्रकार के तौर पर हम आपकी खूबियों से परिचित हैं. अब आपकी कविताओं और गजलों से भी हम लाभान्वित होंगे. ब्लॉग जगत में इस डायरी की निरंतरता बनी रहे, बस यही शुभकामना.
6 अगस्त 2008 को 6:25 pm बजे
बेहद खूबसूरत...बहुत उम्दा...वाह!
7 अगस्त 2008 को 9:07 am बजे
agar firdaus barroo-e- zameen asto,hamee asto,hamee asto...waqyi gazab likhti hain aap. ham to barson se apki tehreer ke qaayal hain... apka ek-ek lafz rooh ki gehrayi mein utr jata hai...