हमसफ़र
हमसफ़र
कहने को
महज़ एक लफ्ज़ है
लेकिन
इसमें छुपी हैं
दो धड़कते जवां दिलों की
कितनी ही उमंगें, ख़्वाहिशें
और तमन्नाएं
जिनके सहारे
इंसान
दुनिया की भूल-भूलैया में
कितनी ही दिक्क़तों को
झेलते हुए
आगे बढ़ जाता है
अपनी उस मंज़िल की चाह में
जिसके इंद्रधनुषी सपने
उसने संजोए हैं
बचपन से जवानी तक
या शायद
हसरतों के आखिरी लम्हे तक
मगर
कितना मुश्किल होता है
अपने ख्यालात, अपने अहसासात को
मुजस्सम करना
शायद
दो धड़कते जवां दिलों की इंतिहा
हमेशा
तड़पते रहने में ही है...
-फ़िरदौस ख़ान
7 अगस्त 2008 को 7:05 pm बजे
हमसफ़र
कहने को
महज़ एक लफ्ज़ है
लेकिन
इसमें छुपी हैं
दो धड़कते जवां दिलों की
कितनी ही उमंगें, ख़्वाहिशें
और तमन्नाएं
जिनके सहारे
इंसान
दुनिया की भूल-भूलैया में
कितनी ही दिक्क़तों को
झेलते हुए
आगे बढ़ जाता है
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सुंदरतम और यथार्थ। सटीक रचना।
7 अगस्त 2008 को 7:09 pm बजे
वाह! बहुत सुन्दर.बहुत बधाई.
7 अगस्त 2008 को 7:50 pm बजे
वाह फिरदौस जी अच्छा लिखा आपने बधाई हो और फिरदौस जी कभी हमारे ब्लाग पर भी नजरें इनायत करो आप ही कहते थे कि हम नहीं सुधरेंगे देखो अब सुधर गए हैं
http://mohankaman.blogspot.com
8 अगस्त 2008 को 9:37 am बजे
आपका ब्लॉग देखा...बहुत अच्छा है...अपने शौक को ज़िन्दा रखना चाहिए...