फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते


फ़िरदौस ख़ान
ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा बचपन होता है. बचपन की यादें हमारे दिलो-दिमाग़ पर नक़्श हो जाती हैं. और जब बात गर्मियों की छुट्टियों की हो, तो फिर कहना ही क्या. शायद ही कोई बच्चा हो, जिसे गर्मियों की छुट्टियों का इंतज़ार न रहता हो. 

हमें भी सालभर गर्मियों की छुट्टी का इंतज़ार रहता था, क्योंकि गर्मियों की छुट्टियों में हमें अपनी नानी जान के घर जाने का मौक़ा मिलता था. हमारे नाना के बाग़ थे, जिनमें आम, अमरूद, जामुन और शहतूत के अलावा और भी बहुत से फलों के दरख़्त थे. हम अपने भाइयों के साथ दरख़्तों पर चढ़कर फल तोड़ते और खाते थे. दरख़्तों पर चढ़कर फल तोड़कर खाने के लुत्फ़ को कभी भुलाया नहीं जा सकता. आज भी फलों के दरख़्तों को देखकर बचपन में उन पर चढ़ना याद आ जाता है.  

बाग़ के पास एक बड़ा तालाब भी था. एक बार वहां खेलते हुए तालाब में गिर भी गए थे. अल्लाह का शुक्र है कि हमें पानी में से निकाल लिया गया. वहां का लज़ीज़ खाना, रबड़ी, छोले-समौसे और बर्फ़ वाली नारियल के बुरादे की कुल्फ़ी बहुत याद आती है.     

अब बात करते हैं अपने घर की. हमारे घर के पास एक बड़ा मैदान था. उस मैदान में बहुत से दरख़्त थे. वहां खजूर के भी दरख़्त थे. घर बहुत बड़ा था और उसका आंगन भी बहुत ही बड़ा था. घर में बग़ीचा था. बग़ीचे में गूलर और दीगर फलों के बहुत से दरख़्त थे. गर्मियों की छुट्टियों में हम ख़ूब शरारतें करते थे. 

हमारे घर में फुलवारी भी बहुत थी. इनमें बेला, गुलाब, जूही, चम्पा, चमेली, मोगरा जैसे बहुत से फूलों के पौधे व बेलें थीं. हमारा घर ही नहीं, बल्कि आसपास का इलाक़ा भी इन फूलों की ख़ुशबू से महकता रहता था. अम्मी को मोगरा के फूल पहनने का बहुत शौक़ था. वे चांदी के तार की बालियों में बेला के फूलों को पिरोकर कानों में पहना करती थीं और बालों में बेला के गजरे भी लगाती थीं. हमारी दादी जान भी कानों में फूल पहना करती थीं. वे मेज़ पर रखे पंखों पर फूलों के गजरे डाल देतीं, जिससे सारा घर-आंगन महक उठता था. हमारे घर से बहुत से लोग फूल ले जाते थे और फिर उनके गजरे व हार बनाते थे. घर के पास एक मन्दिर था. बहुत से लोग मन्दिर में देवताओं को चढ़ाने के लिए फूल लेकर जाते थे.   
  
हमें लू की वजह से गर्मियों की भरी दोपहरी में बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी. इसलिए हम घर के भीतर ही रहते और दोपहर ढलने का इंतज़ार करते थे. कई बार हम घरवालों की नज़र से बचकर बाहर खेलने चले जाते थे. आंगन में तख़्त बिछे होते थे. उन पर सफ़ेद चादरें बिछी होतीं और गाव तकिये क़रीने से लगे हुए होते थे. शाम को घर के सब लोग इन्हीं पर बैठते थे. शाम को दादी तरह-तरह के पकौड़े बनाती थीं. रूह अफ़ज़ा शर्बत भी बनता था. उसमें बहुत सी बर्फ़ डाली जाती थी.    

गर्मियों में हम छत पर सोया करते थे. शाम को छत की साफ़-सफ़ाई की जाती. फिर पानी छिड़का जाता, ताकि छत ठंडी हो जाए. छत पर चटाइयां बिछाई जातीं. फिर उन पर दरियां बिछाई जातीं. दरियों पर रंग-बिरंगी कढ़ाई वाली चादरें बिछाई जातीं और तकिये रखे जाते. क़रीब में ही पानी से भरी मिट्टी की सुराहियां रखी जातीं, गिलास रखे जाते. हम बच्चे अपनी-अपनी छोटी सुराहियां अपने सिरहाने रख लिया करते थे, ताकि रात में प्यास लगे तो अपनी ही सुराही से पानी पी लें. 

हमारे घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल था. ननिहाल और ददिहाल में सब लोग पढ़े-लिखे थे. नाना जान और दाद जान दोनों ही दानिशमंद थे. हमारी अम्मी को भी लिखने और पढ़ने का बहुत शौक़ था. वे शायरा थीं और बहुत शानदार लिखती थीं.

हमारे घर किताबों की एक अच्छी ख़ासी लाइब्रेरी थी. उनमें अरबी, उर्दू, इंग्लिश और हिन्दी की किताबों की भरमार थी. आज भी यही हाल है. इनमें पंजाबी की किताबें भी शामिल हो गई हैं. अम्मी की देखा-देखी हमें भी किताबों से मुहब्बत हो गई. बचपन में ही हमने लिखना शुरू कर दिया था. हमें डायरी लिखने का भी शौक़ था, जो आज भी है. डायरी में हम अपनी बातों के अलावा अपने पसंदीदा शायरों की ग़ज़लें, गीत और नज़्में लिखा करते थे. हमारी डायरी में शायरा इशरत आफ़रीं की एक ग़ज़ल दर्ज है- 
यूं ही किसी के ध्यान में अपने आप में गाती दोपहरें
नर्म गुलाबी जाड़ों वाली बाल सुखाती दोपहरें

सारे घर में शाम ढले तक खेल वो धूप और छांव का
लिपे पुते कच्चे आंगन में लोट लगाती दोपहरें

जीवन-डोर के पीछे हैरां भागती टोली बच्चों की
गलियों-गलियों नंगे पांव धूल उड़ाती दोपहरें

सरगोशी करते पर्दे कुंडी खटकाता नटखट दिन
दबे-दबे क़दमों से तपती छत पर जाती दोपहरें

कमरे में हैरान खड़े आईना जैसे हंसते दिन
ख़ुद से लड़कर गौरैया-सी शोर मचाती दोपहरें

वही मुज़ाफ़ातों के भेद भरे सन्नाटों वाले घर
गुड़ियों के लब सी कर उनका ब्याह रचाती दोपहरें

खिड़की के टूटे शीशों पर एक कहानी लिखती हैं
मंढे हुए पीले काग़ज़ से छनकर आती दोपहरें

नीम तले वो कच्चे धागे रंगती हुई पुरानी याद
घेरा डाले छोटी-छोटी हाथ बटाती दोपहरें

फटी-पुरानी कथरी ओढ़े धूप सेंकते बूढ़े दिन
पेशानी तक पल्लू खींचे चिलम बनाती दोपहरें

पानी की तक़सीम के पीछे जलते खेत सुलगते घर
और खेतों की ज़र्द मुंडेरों पर कुम्हलाती दोपहरें

पुरवाई से लड़ते कितने वर्क़ पुरानी यादों के
सौग़ातों के संदूक़ों को धूप दिखाती दोपहरें

दुखती आंखें ज़ख़्मी पोरें उलझे धागों जैसे दिन
बादल जैसी ओढ़नियों पर फूल खिलाती दोपहरें

ओढ़नियों के उड़ते बादल रंगों के बाज़ारों में
चूड़ी की दुकानों से वो हमें बुलाती दोपहरें

सुनते हैं अब उन गलियों में फूल शरारे खिलते हैं
ख़ून की होली खेल रही हैं रंग नहाती दोपहरें

ये तो मेरे ख़्वाब नहीं हैं ये तो मेरा शहर नहीं
किस जानिब से आ निकली हैं ये गहनाती दोपहरें          

वाक़ई बचपन से वाबस्ता यादें बहुत दिलकश होती हैं.  बशीर बद्र साहब ने क्या ख़ूब कहा है-
उड़ने दो परिन्दों को अभी शोख़ हवा में 
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते  
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

पानदान


पानदान अब बहुत कम देखने को मिलते हैं. हमारे बचपन में नहिनाल और ददिहाल के सभी घरों में पानदान होते थे. हमारे घर में भी दो पानदान थे. एक दादी जान का पानदान था, जिसमें कत्था, चूना, सुपारी और तम्बाक़ू होता था. पानदान के पास एक डलिया रखी रहती थी, जिसमें एक गीले कपड़े में लिपटे हुए पान रखे रहते थे. अम्मी का पानदान सन्दूक़ में रखा रहता था. वह आज भी सन्दूक़ में ही रखा है. कभी-कभार उसे देख लेते हैं.
-फ़िरदौस ख़ान
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

टमटम गाड़ी


बरसों पहले, शायद नौ बरस पहले अम्मी ने अमरोहा से ख़रीदी थी. अमरोहा में मिट्टी और लकड़ी का बहुत अच्छा सामान मिलता है. वहां के खिलौने भी बहुत प्यारे होते हैं. बचपन में हम मिट्टी और लकड़ी के खिलौने से बहुत खेलते थे.
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS

गीतकार देवेन्द्र शर्मा पर बेहतरीन शोध ग्रंथ


फ़िरदौस ख़ान
सुविख्यात नवगीतकार देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के कृतित्व पर एक शानदार पुस्तक पढ़ने का अवसर मिला। इस पुस्तक का नाम ‘नवगीत को देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ का अवदान’ है। वास्तव में यह एक शोध ग्रन्थ है, जिसे डॉ. प्रफुल्लिता तिवारी ने लिखा है। इस पुस्तक को आगरा के निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है।

देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' नवगीत के उन पुरोधाओं में सम्मिलित हैं, जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती, समकालीन एवं परवर्ती पीढ़ी के रचनाकारों को अत्यंत प्रभावित किया है। असंख्य छात्रों ने उनकी रचनाओं पर शोध किया है। डॉ. प्रफुल्लिता तिवारी ने भी नवगीत को उनके अवदान पर गहन अध्ययन कर शोध ग्रन्थ लिखा है। इस पुस्तक में छह प्रकरण हैं। प्रथम प्रकरण हिन्दी नवगीत : परम्परा का अवदान, द्वितीय प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ : व्यक्ति और सृष्टि, तृतीय प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’के गीतों का संवेदनात्मक धरातल, चतुर्थ प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’के गीतों की भाषा और छन्द-विधान, पंचम प्रकरण देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के नवगीतों का शिल्प-विधान, षष्ठ प्रकरण उपसंहार है, जिसमें देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी है। इसके अतिरिक्त ‘परिशिष्ट’नामक अध्याय में साक्षात्कार तथा देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अप्रकाशित नवगीत संग्रह एवं नवगीतेतर अप्रकाशित साहित्य का उल्लेख है।    

लेखिका कहती हैं कि नवगीत गीतिकाव्य परम्परा का अधुनातन रूप है जहाँ संवेदनाएँ कमरे से बाहर निकल कर चौराहे पर खड़ी दिखाई देती हैं। इस प्रक्रिया में नवगीत से छन्द की शास्त्रीयता के कठोर आवरण और भाषा के बासीपन के खोल को उतार फेंका है तथा युगबोध को अपना पाथेय बनाकर अभिव्यंजना की एक मौलिक और सर्वथा नई कलात्मक यात्रा सफलतापूर्वक पूरा किया है। नवगीत की यात्रा यों तो निराला से प्रारम्भ मानी जाती है परन्तु इसे गति देने में 1950 के बाद के गीतकारों की भूमिका विशेष रही है।        

देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ ने नवगीत को उर्वर भूमि एवं संस्कार देने का अथक प्रयास किया है। उन्होंने नवगीत को एक संतुलित दिशा देने के लिए अभिव्यक्ति को लक्ष्य केन्द्रित बनाया। उनका बिम्ब विधान तक लक्ष्यहीन नहीं है। उन्होंने न केवल गीतों को मूलचेतना से मंडित किया, अपितु नवगीतकारों का भी मार्ग प्रशस्त किया है। उनके इस लक्ष्य में समाज का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। यथा-
फिर दिशाओं के कपोलों पर 
रात का 
घुलने लगा काजल
झाड़ में उलझा 
करौंदों की 
हवाओं का 
चम्पई आँचल
धुंधलकों से फिर पता पूछना 
राह में भूले मुसाफ़िर।            

           
इस पुस्तक में गीत और नवगीत में अंतर को भी बहुत बारीकी से समझाया गया है। नवगीत ने समूह-चेतना को विराट पटल पर उतारा है, इसलिए उसका संवेदना-पक्ष अत्यंत सामाजिक रूप में रूपायित हुआ है। परम्परागत  गीत की व्यक्ति संवेदना में वैयक्तिकता अधिक होती है, नवगीत में ‘मैं’ और ‘हम’ शब्द भी सामाजिकता का बोध अधिक कराते हैं। यथा-
परम्परागत गीत : 
न बीते दिन, न बीते रात 
बिन तेरे सजन। 
कहें किससे हृदय की बात  
ये प्यासे नयन ।।
तड़पती वेदना मेरी 
घहरती इन घटाओं में । 
खिसकती लाज की चुनरी 
सरर बहती हवाओं में ।।
चपल चपला घटाओं से 
लिपट जब कौंध जाती है 
गीत बनकर व्यथा मेरी 
मचलती है दिशाओं में ।।
सही जाती नहीं, 
बरसात की दारुण अगन ।


नवगीत :
बीच में न रहे कुछ भी 
फेंक दें 
बैसाखियों को हम 
टूट जाए यातनाओं का वहम ।
सुगबुगाता जेब में 
सूरज अँधेरे का 
तड़फड़ाता आँख में 
क्रौंच का जोड़ा 
नापसे हटने लगा है 
मोह घेरे का, 
इस धुँआती आग से 
राख है 
अपनी गरम है।               
      
 
इस शोध ग्रन्थ में लेखिका ने पुस्तक में प्रस्तुत तथ्यों को प्रमाणित किया है। संदर्भ ग्रंथों की सूची लेखिका के विराट अध्ययन एवं परिश्रम का प्रमाण है। ग्रंथ की भाषा परिमार्जित एवं विषय को स्पष्ट करने में पूर्ण समर्थ है। निसंदेह, यह कृति साहित्य विशेषकर काव्य प्रेमियों के लिए आलोक स्तम्भ सिद्ध होगी।

पुस्तक का नाम : नवगीत को देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’का अवदान
लेखिका : प्रफुल्लिता तिवारी
प्रकाशक : निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा
पृष्ठ : 448
मूल्य : 1200 रुपये      
 
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • Twitter
  • RSS