मुहब्बत के रंग

आज फ़िज़ा में मुहब्बत के रंग बिखरे हैं... दिल ख़ुशी से झूम रहा है...नाच रहा है... ऐसे ही तो लम्हे हुआ करते हैं, जब बेख़ुदी में ख़ुदा को पा लेने की तमन्ना अंगड़ाइयां लेने लगती है...
अमीर ख़ुसरो साहब का कलाम याद आ गया-
मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब-ए-इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया वो तो दोनों बसंती रंग दे
जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरबी रख ले
आन परी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे...
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