जब हरि था तो मैं नहीं अब हरि है मैं नाहि


इंसान में जब तक अहंकार है, ’मैं’ है, वो ख़ुदा को क्या, किसी अच्छे इंसान तक को मुतासिर नहीं कर पाएगा...
मैं यानी मेरा मज़हब सबसे बड़ा, मेरी ज़ात सबसे ऊंची, मैं ही सच्चा, मैं ही सबसे अच्छा, मैं ही सही... यानी जब तक मैं-मैं की रट लगी रहती है, तब तक इंसान न कुछ देख पाता है, न सुन पाता है और न ही समझ पाता है... उसकी अक़्ल पर अहंकार की धूल जमी रहती है...
जिस दिन इंसान ने ’मैं’ यानी अपने अहंकार का त्याग कर दिया, तभी वह सही मायने में इंसान कहलाने लायक़ है...
कबीर चचा कह गए हैं-
जब हरि था तो मैं नहीं अब हरि है मैं नाहि
प्रेम गलि अति सांकरी ता में दो न समाये

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