मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है


फ़िरदौस ख़ान
हर भाषा की अपनी अहमियत होती है. फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी है. क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं. बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है. इसलिए भी मातृभाषा हमें सबसे ज़्यादा प्रिय है. लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िंदगी बसर करते हैं यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को तुच्छ समझते हैं. बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग़्रेजी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं. हिंदी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है. वे लोग जिनके पूर्वज अंग्रेज़ी की एबीसी तक नहीं जानते थे, वे लोग भी हिंदी को गरियाते हुए मिल जाएंगे. अंग्रेज़ी भी अच्छी भाषा है. इंसान को अंग्ऱेजी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए. इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है. यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है. हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है. पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे. क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं.

रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है. एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है-अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे. अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हो. नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों. मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता. पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी. रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जु़डे हैं. कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है. मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए मेरा दाग़िस्तान में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं. मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं. इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए. हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए. मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं. मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है.

एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था. अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया. उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा. बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा. इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया. लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की. लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका. चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा. तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी. अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा. तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो. इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं. बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था. अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है. महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए. वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं.

अबूतालिब एक बार मास्को में थे. सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई. शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया. इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं. मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है.

अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा. अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की. आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए. एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है. अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते. समझे न? समझ रहा हूं. अबूतालिब ने जवाब दिया. मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?

रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई. क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा. पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था. वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही. मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है. इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया. एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद. चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी. वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक्काशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी. पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं. पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं. मैं कुहासा ही हूं. दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा. झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी. पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी. चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है.

किस किंवदंती के आधार पर?

एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया. बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं. पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुंदर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे. तो मैं इस परिंदे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है. इस तरह वह मुझे उस अद्‌भुत देश का रास्ता दिखा देगा. उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया. दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा. इस झा़डी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था. अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं. चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की.

तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?
देर हो चुकी है. कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था. अब मैं उसे सिर्फ़ बूढी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?
रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है. अपनी एक कविता में वह कहते हैं:-
मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है
बेशक लोग कहें, कहने दो, मेरी यह भाषा दुर्बल है
बड़े समारोहों में इसका, हम उपयोग नहीं सुनते हैं
मगर मुझे तो मिली दूध में मां के, वह तो बड़ी सबल है
प्यार मुझे बेहद जीवन से, प्यार मुझे सारी पृथ्वी से
उसका कोना-कोना प्यारा, प्यारा उसका साया-छाया
फिर भी सोवियत देश अनूठा, मुझको सबसे ज़्यादा प्यारा
अपनी भाषा में उसका ही, मैंने जी भर गौरव गाया
बाल्टिक से ले, सख़ालीन तक इस स्वतंत्र खिलती धरती का
हर कोना मुझको प्यारा है, हर कोना ही मन भरमाये
इसके हित हंसते-हंसते ही, दे दूंगा मैं प्राण कहीं भी
पर मेरे ही जन्म गांव में, बस मुझको दफ़नाया जाए
ताकि गांव के लोग कभी आके, करें क़ब्र पर चर्चा मेरी
कहें हमारी भाषा में यह, यहां रसूल अपना सोता है
अपनी भाषा में ही जिसने, अपने मन-भावों को गाया है
त्सादा के हमज़ात सुकवि का, अरे वही बेटा होता है ... (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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7 Response to "मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है"

  1. Darshan jangra says:
    1 सितंबर 2013 को 10:27 am बजे

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - सोमवार -02/09/2013 को
    मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra




  2. भारतीय नागरिक - Indian Citizen says:
    1 सितंबर 2013 को 10:56 am बजे

    भाषा मनुष्य के लिये सबकुछ है, जिसने भाषा त्याग दी उसके पास कुछ नहीं बचा..

  3. राजीव कुमार झा says:
    1 सितंबर 2013 को 12:55 pm बजे

    सुन्दर प्रस्तुति.
    कोलाज जिन्दगी के : अगर हम जिन्दगी को गौर से देखें तो यह एक कोलाज की तरह ही है. अच्छे -बुरे लोगों का साथ ,खुशनुमा और दुखभरे समय के रंग,और भी बहुत कुछ जो सब एक साथ ही चलता रहता है.
    http://dehatrkj.blogspot.in/2013/09/blog-post.html

  4. Guzarish says:
    1 सितंबर 2013 को 2:50 pm बजे

    आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [02.09.2013]
    चर्चामंच 1356 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
    सादर
    सरिता भाटिया

  5. Darshan jangra says:
    2 सितंबर 2013 को 12:14 am बजे

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - सोमवार -02/09/2013 को
    मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra




  6. कालीपद "प्रसाद" says:
    2 सितंबर 2013 को 12:24 pm बजे

    है
    बहुतसुन्दर , बढ़िया प्रस्तुति !
    latest post नसीहत

  7. Kartikey Raj says:
    2 सितंबर 2013 को 9:16 pm बजे

    भाषा ही एक इंसान के पास सुरक्षित रहती और वो ही इंसान का मरते दम तक साथ निभाती है..............

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